Shiv Parvati Vivah Katha: पढ़ें, शिव और शक्ति के वियोग से लेकर पुनर्मिलन की कथा
punjabkesari.in Tuesday, Aug 19, 2025 - 04:14 PM (IST)

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Shiv Parvati Vivah Katha: दक्ष पुत्री और शिव पत्नी भगवती सती ही अगले जन्म में मां पार्वती हुई। माता पार्वती जी गणेश जी और स्कंद जी की माता हैं। दक्ष प्रजापति की कई पुत्रियां थीं। सभी पुत्रियां गुणवती थी पर दक्ष के मन में संतोष नहीं था। वह चाहते थे उनके घर में एक ऐसी पुत्री का जन्म हो, जो शक्ति-संपन्न हो, सर्व-विजयिनी हो।
अपने पिता ब्रह्मा जी से मार्गदर्शन प्राप्त कर दक्ष एक ऐसी पुत्री के लिए तप करने लगे। तप करते-करते अधिक दिन बीत गए, तो भगवती आद्या शक्ति ने स्वयं प्रकट होकर कहा, ‘‘मैं तुम्हारे तप से प्रसन्न हूं। मैं स्वयं पुत्री रूप में तुम्हारे यहां जन्म धारण करूंगी। मेरा नाम सती होगा। मैं सती के रूप में जन्म लेकर अपनी लीलाओं का विस्तार करूंगी।’’
यह भी बताया कि दक्ष का पुण्य क्षीण हो जाएगा, तब वह शक्ति जगत को विमोहित करके अपने धाम को लौट जाएंगी। फलत: भगवती आद्या ने सती रूप में दक्ष के यहां जन्म लिया।
जब सती विवाह योग्य हुईं तो दक्ष को उनके लिए वर की चिंता हुई। उन्होंने ब्रह्मा जी से परामर्श किया। ब्रह्मा जी ने कहा, ‘‘सती आद्या का अवतार हैं। आद्या आदिशक्ति और शिव आदि पुरुष हैं। अत: सती के विवाह के लिए शिव ही योग्य और उचित वर हैं।’’
दक्ष लौकिक बुद्धि से शिव जी के प्रभाव को न समझने के कारण उनके वेश को अमर्यादित मानते थे और उन्हें किसी प्रकार भी सती के योग्य वर नहीं मानते थे।
फिर भी दक्ष ने ब्रह्मा जी की बात मानकर भगवती सती का विवाह भगवान शिव के साथ कर दिया। भगवती सती कैलाश में जाकर भगवान शिव के साथ रहने लगीं।
श्रीमद्भागवत महापुराण में वर्णित कथा के अनुसार, प्रयाग में प्रजापतियों के एक यज्ञ में दक्ष के पधारने पर सभी देवतागणों ने खड़े होकर उन्हें आदर दिया परंतु ब्रह्मा जी के साथ शिवजी भी बैठे ही रहे। लौकिक बुद्धि से शिव जी को अपना जामाता अर्थात पुत्र समान मानने के कारण दक्ष ने खड़े न होकर अपने प्रति आदर प्रकट न करने के कारण अपना अपमान महसूस किया और भगवान शिव के प्रति अनेक कटूक्तियों का प्रयोग करते हुए उन्हें यज्ञ भाग से वंचित होने का शाप दे दिया। इसी के बाद दक्ष और भगवान शिव में मनोमालिन्य उत्पन्न हो गया।
तत्पश्चात अपनी राजधानी कनखल में दक्ष के द्वारा एक विराट यज्ञ का आयोजन किया गया, जिसमें न तो भगवान शिव को आमंत्रित किया और न ही अपनी पुत्री सती को। सती को यज्ञ का पता चला तो उनका मन भी वहां जाने को व्याकुल हो गया। भगवान शिव के समझाने के बावजूद सती की व्याकुलता बनी रही। तब भगवान शिव ने अपने गणों के साथ उन्हें वहां जाने की आज्ञा दे दी। परंतु वहां भगवान शिव का यज्ञ-भाग न देखकर सती ने घोर आपत्ति जताई और दक्ष के द्वारा अपने तथा पति भगवान शिव के प्रति भी घोर अपमानजनक बातें कहने के कारण सती ने योगाग्नि से अपने शरीर को भस्म कर डाला। इससे अत्यंत कुपित भगवान शिव ने अपनी जटा से वीरभद्र को उत्पन्न किया जिसने गणों सहित दक्ष के यज्ञ का विध्वंस कर डाला। भगवान शिव के विरोधी देवताओं तथा ऋषियों को यथायोग्य दंड दिया तथा दक्ष के सिर को काट कर हवन कुंड में जला डाला।
भगवान शिव भी शीघ्र कनखल जा पहुंचे। सती के जले हुए शरीर को देखकर भगवान शिव अपने आपको भूल गए। उन्होंने माता सती के जले हुए शरीर को कंधे पर रख लिया। वे सभी दिशाओं में भ्रमण करने लगे। भयानक संकट उपस्थित देखकर सृष्टि के पालक भगवान विष्णु ने परिस्थिति को संभालने हेतु सुदर्शन चक्र से माता सती की देह के इक्यावन भाग कर दिए। धरती पर जिन इक्यावन स्थानों में माता सती के अंग गिरे थे, वही स्थान शक्ति के पीठ स्थान माने जाते हैं। आज भी उन स्थानों में माता सती का पूजन, उपासना होती है। तत्पश्चात देवताओं सहित ब्रह्मा जी के द्वारा स्तुति किए जाने से प्रसन्न भगवान शिव ने पुन: यज्ञ में हुई क्षतियों की पूर्ति की तथा दक्ष का सिर जल जाने के कारण बकरे का सिर जुड़वा कर उन्हें भी जीवित कर दिया। फिर उनके अनुग्रह से यज्ञ पूर्ण हुआ।
इस प्रकार यही माता सती अगले जन्म में भगवती पार्वती के रूप में हिमालय की पुत्री बनकर पुन: भगवान शिव को पत्नी रूप में प्राप्त हो गईं। पर्वतराज की पुत्री होने के कारण वे ‘पार्वती’ कहलाईं।
भगवती पार्वती जी भगवान शिव को पति के रूप में प्राप्त करने के लिए वन में तपस्या करने चली गईं। अनेक वर्षों तक कठोर उपवास करके घोर तपस्या की। भगवान शंकर ने पार्वती के अपने प्रति अनुराग की परीक्षा लेने के लिए सप्तऋषियों को पार्वती के पास भेजा। उन्होंने यह समझाने के अनेक प्रयत्न किए कि शिव जी तुम्हारे लिए उपयुक्त वर नहीं हैं। उनके साथ विवाह से तुम्हें सुख की प्राप्ति नहीं होगी। तुम उनका ध्यान छोड़ दो किन्तु भगवती पार्वती अपने विचारों में दृढ़ रहीं।
उनकी दृढ़ता को देखकर सप्तऋषि अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्हें सफल मनोरथ होने का आशीर्वाद देकर भगवान शिव जी के पास वापस आ गए। सप्तऋषियों से पार्वती के अपने प्रति दृढ़ प्रेम का वृत्तांत सुन कर भगवान शंकर अत्यंत प्रसन्न हुए। तब सप्तऋषियों ने भगवान शिव और भगवती पार्वती जी के विवाह का लग्न मुहूर्त आदि निश्चित कर दिया।
माता पार्वती आदिशक्ति हैं। नवरात्र में नवदुर्गा के रूप में इनका ही पूजन होता है। दुर्गा सप्तशती में मां पार्वती को मुख्य रूप से देवी दुर्गा के रूप में ही प्रतिष्ठित किया गया है।
पराशक्ति, आदिशक्ति, मां दुर्गा, नारायणी, मां लक्ष्मी, मां ब्रह्माणी, मां सरस्वती देवी, माता सती, मां गायत्री, शिवानी, मां चामुंडा, मां महाकाली, कामाख्या देवी, त्रिपुर सुंदरी, छिन्नमस्ता, भैरवी, महादेवी, महाविद्या, मातंगी, मां भगवती, मां भवानी, शताक्षी देवी, मां तारा, महिषासुर मॢदनी, नवदुर्गा, शाकम्भरी देवी, आदिशक्ति गौरी, मां वैष्णो देवी, कल्याणी तथा नवदुर्गा रूप में शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कूषमांडा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी, सिद्धिदात्री इत्यादि मां पार्वती जी के ही स्वरूप हैं। दुर्गा सप्तशती में 108 नामों से भगवती पार्वती जी की स्तुति की गई है।
इस विवाह से शिव और शक्ति का पुनर्मिलन हुआ, जिससे सृष्टि में संतुलन स्थापित हुआ। मां पार्वती का यह जन्म शिव-शक्ति के मिलन और सृष्टि की रक्षा का प्रतीक है।