जो भी इस मंदिर में जाता है बाबा का नित नया रूप देखने को मिलता है

punjabkesari.in Thursday, Aug 03, 2017 - 08:58 AM (IST)

हमारे देश में बहुत से ऐसे धार्मिक स्थल हैं जो अपने चमत्कारों व वरदानों के लिए प्रसिद्ध हैं। उन्हीं में से एक है राजस्थान में शेखावाटी क्षेत्र के सीकर जिले का विश्व विख्यात प्रसिद्ध खाटू श्याम मंदिर। यहां फाल्गुन माह के शुक्ल पक्ष की द्वादशी को श्याम बाबा का विशाल मेला भरता है। जिसमें देश-विदेश से कई लाख श्रद्धालु शामिल होते हैं। यह राजस्थान में लगने वाले बड़े मेलों में से एक है। इस मंदिर में भीम के पौत्र और घटोत्कच के पुत्र बर्बरीक की श्याम यानी कृष्ण के रूप में पूजा की जाती है।


कहा जाता है कि जो भी इस मंदिर में जाता है उन्हें श्याम बाबा का नित नया रूप देखने को मिलता है। कई लोगों को तो इस विग्रह में कई बदलाव भी नजर आते हैं, कभी मोटा तो कभी दुबला। कभी हंसता हुआ तो कभी ऐसा तेज भरा कि नजरें भी नहीं टिक पातीं। श्याम बाबा का धड़ से अलग शीश और धनुष पर तीन बाण की छवि वाली मूर्ति यहां स्थापित की गई है। कहते हैं कि मंदिर की स्थापना महाभारत युद्ध की समाप्ति के बाद स्वयं भगवान कृष्ण ने अपने हाथों से की थी।


श्याम बाबा की कहानी महाभारत काल से आरंभ होती है। वह पहले बर्बरीक के नाम से जाने जाते थे तथा पांडव भीम के पुत्र घटोत्कच और नाग कन्या अहिलवती के पुत्र थे। बाल्यकाल से ही वह बहुत वीर और महान योद्धा थे। उन्होंने युद्ध कला अपनी मां से सीखी। भगवान शिव की घोर तपस्या करके उन्हें प्रसन्न किया और उनसे तीन अभेद्य बाण प्राप्त किए तथा ‘तीन बाणधारी’ का प्रसिद्ध नाम प्राप्त किया। अग्रि देव ने प्रसन्न होकर उन्हें धनुष प्रदान किया जो उन्हें तीनों लोकों में विजयी बनाने में समर्थ था।
महाभारत का युद्ध कौरवों और पांडवों के मध्य अपरिहार्य हो गया था, यह समाचार बर्बरीक को प्राप्त हुआ तो उनकी भी युद्ध में सम्मिलित होने की इच्छा जागृत हुई। जब वह अपनी मां से आशीर्वाद प्राप्त करने पहुंचे तब मां को हारे हुए पक्ष का साथ देने का वचन दिया। वह अपने घोड़े, जिसका रंग नीला था, पर तीन बाण और धनुष के साथ कुरुक्षेत्र की रणभूमि की ओर अग्रसर हुए।


सर्वव्यापी कृष्ण ने ब्राह्मण वेश धारण कर बर्बरीक से परिचित होने के लिए उसे रोका और यह जानकर उनकी हंसी भी उड़ाई कि वह मात्र तीन बाण से युद्ध में सम्मिलित होने आया है। ऐसा सुनने पर बर्बरीक ने उत्तर दिया कि मात्र एक बाण शत्रु सेना को ध्वस्त करने के लिए पर्याप्त है और ऐसा करने के बाद बाण वापस तरकश में ही आएगा। यदि तीनों बाणों को प्रयोग में लिया गया तो तीनों लोकों में हाहाकार मच जाएगा। इस पर श्री कृष्ण ने उन्हें चुनौती दी कि इस पीपल के पेड़ के सभी पत्तों को छेद कर दिखलाओ जिसके नीचे दोनों खड़े थे। बर्बरीक ने चुनौती स्वीकार की और अपने तुणीर से एक बाण निकाला और ईश्वर को स्मरण कर बाण पेड़ के पत्तों की ओर चलाया। 


तीर ने क्षण भर में पेड़ के सभी पत्तों को भेद दिया और कृष्ण के पैर के इर्द-गिर्द चक्कर लगाने लगा क्योंकि एक पत्ता उन्होंने अपने पैर के नीचे छुपा लिया था, बर्बरीक ने कहा कि आप अपना पैर हटा लीजिए वर्ना यह आपके पैर को चोट पहुंचा देगा। 


श्री कृष्ण ने बालक बर्बरीक से पूछा कि वह युद्ध में किस ओर से सम्मिलित होगा तो बर्बरीक ने अपनी मां को दिए वचन दोहराए कि वह युद्ध में उस ओर से भाग लेगा जो कि निर्बल हो और हार की ओर अग्रसर हो। श्री कृष्ण जानते थे कि युद्ध में हार तो कौरवों की ही निश्चित है और इस पर अगर बर्बरीक ने उनका साथ दिया तो परिणाम उनके पक्ष में ही होगा।


ब्राह्मण ने बालक से दान की अभिलाषा व्यक्त की, इस पर वीर बर्बरीक ने उन्हें वचन दिया कि अगर वह उनकी अभिलाषा पूर्ण करने में समर्थ होगा तो अवश्य करेगा। श्री कृष्ण ने उनसे शीश का दान मांगा। बालक बर्बरीक क्षण भर के लिए चकरा गया, परंतु उसने अपने वचन पर दृढ़ता जताई। बालक बर्बरीक ने ब्राह्मण से अपने वास्तविक रूप में आने की प्रार्थना की और कृष्ण के बारे में सुनकर बालक ने उनके विराट रूप के दर्शन की अभिलाषा व्यक्त की। श्री कृष्ण ने उन्हें अपना विराट रूप दिखाया।


उन्होंने बर्बरीक को समझाया कि युद्ध आरंभ होने से पहले युद्धभूमि की पूजा के लिए एक वीर क्षत्रिय के शीश के दान की आवश्यकता होती है। उन्होंने बर्बरीक को युद्ध में सबसे बड़े वीर की उपाधि से अलंकृत कर उनका शीश दान में मांगा। बर्बरीक ने उनसे प्रार्थना की कि वह अंत तक युद्ध देखना चाहता है। श्री कृष्ण ने उनकी यह बात स्वीकार कर ली। फाल्गुन माह की द्वादशी को उन्होंने अपने शीश का दान दिया। उनका सिर युद्धभूमि के समीप ही एक पहाड़ी पर सुशोभित किया गया जहां से बर्बरीक संपूर्ण युद्ध का जायजा ले सकते थे।


युद्ध की समाप्ति पर पांडवों में ही आपसी खिंचाव-तनाव हुआ कि युद्ध में विजय का श्रेय किसको जाता है। इस पर श्री कृष्ण ने उन्हें सुझाव दिया कि बर्बरीक का शीश संपूर्ण युद्ध का साक्षी है, अत: उससे बेहतर निर्णायक भला कौन हो सकता है। सभी इस बात से सहमत हो गए। बर्बरीक के शीश ने उत्तर दिया कि श्री कृष्ण ही युद्ध में विजय प्राप्त कराने में सबसे महान पात्र हैं। उनकी शिक्षा, उनकी उपस्थिति, उनकी युद्धनीति ही निर्णायक थी। उन्हें युद्धभूमि में सिर्फ उनका सुदर्शन चक्र घूमता हुआ दिखाई दे रहा था जो शत्रु सेना को काट रहा था। 


वीर बर्बरीक के महान बलिदान से कृष्ण काफी प्रसन्न हुए और वरदान दिया कि कलियुग में तुम श्याम नाम से जाने जाओगे क्योंकि कलियुग में हारे हुए का साथ देने वाला ही श्याम नाम धारण करने में समर्थ है। ऐसा माना जाता है कि एक बार एक गाय उस स्थान पर आकर अपने स्तनों से दुग्ध की धारा स्वत: ही बहा रही थी, बाद में खुदाई के बाद वह शीश प्रकट हुआ। 


एक बार खाटू के राजा को स्वप्न में मंदिर निर्माण तथा वह शीश मंदिर में सुशोभित करने के लिए प्रेरित किया गया। तदन्तर उस स्थान पर मंदिर का निर्माण किया गया और कार्तिक माह की एकादशी को शीश मंदिर में सुशोभित किया गया, जिसे  बाबा श्याम के जन्मदिन के रूप में मनाया जाता है। मूल मंदिर 1027 ई. में रूपसिंह चौहान और उनकी पत्नी नर्मदा कंवर द्वारा बनाया गया था। मारवाड़ के शासक ठाकुर के दीवान अभय सिंह ने ठाकुर के निर्देश पर 1720 ई. में मंदिर का जीर्णोद्धार कराया। मंदिर ने इस समय अपना वर्तमान आकार ले लिया और मूर्ति को गर्भगृह में प्रतिष्ठापित किया गया था।  


खाटू श्याम के मंदिर की बहुत मान्यता होने के उपरांत भी यहां मूलभूत सुविधाओं का अभाव रहता है। मंदिर में स्थान की कमी के कारण मेले के अवसर पर श्रद्धालुओं को दर्शन करने में आठ से दस घंटों तक का समय लग जाता है। 


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