सदियां बीतीं पर लौह स्तंभ पर नहीं छाया ज़ंग का असर जानें, इसके पीछे का रहस्य ?

punjabkesari.in Wednesday, Mar 12, 2025 - 03:00 AM (IST)

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Old Iron Pillar Refuses Rust: रहस्य के मामले में या उन्नत विज्ञान के बारे में बात की जाए तो भारत का नाम हमेशा सबसे आगे आता है। यहां की धरती अनेक रहस्यमयी चीजों से भरी हुई है और हर प्राचीन वस्तु में कोई न कोई गूढ़ ज्ञान या रहस्य छुपा ही होता है, जो लोगों को सोचने पर विवश कर देता है कि जिस हाईटेक साइंस की बात आज सारा संसार कर रहा है, उसे सदियों पूर्व हमारा देश साबित कर चुका है।

प्रमाण के तौर पर दिल्ली के कुतुब मीनार परिसर में स्थित लौह स्तंभ को ही देखा जाए। 98 प्रतिशत लोहे से बना यह स्तंभ अपनी उच्च तकनीक से निर्मित होने के कारण गत कई दशकों से दुनिया को चुनौती दे रहा है। वर्षों से खुले वातावरण में नम वायु और बारिश को झेलते हुए यह ज्यों का त्यों खड़ा है, इस पर कभी जंग नहीं लगा।

PunjabKesari  New Delhi Iron Pillar

सोलह सौ साल पुराना लौह स्तंभ दिल्ली के महरौली नामक स्थान पर स्थित है, जिसका वजन लगभग 3 टन (6614 पौंड) है। इसकी ऊंचाई 23 फुट, 8 इंच अर्थात 7.21 मीटर है और यह 16 इंच (41 सैंटीमीटर) व्यास वाला लोहे का स्त भ जमीन में 3 फुट 8 इंच गहरा गड़ा है। माना जाता है कि इस लौह स्तंभ का निर्माण राजा चंद्रगुप्त विक्रमादित्य (शासन 375 -412) ने कराया, जिसका पता उस पर लिखे लेख से चलता है, जो गुप्त शैली का है। कुछ विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि इसका निर्माण उससे बहुत पहले किया गया था, स भवत 912 ईसा पूर्व में। इसके अलावा कुछ इतिहासकारों का यह भी मानना है कि यह सम्राट अशोक द्वारा बनाया गया है, जो उन्होंने अपने दादा चंद्रगुप्त मौर्य की याद में बनवाया था।

स्तंभ पर संस्कृत में लिखे लेख के अनुसार, इसे ध्वज स्तंभ के रूप में खड़ा किया गया था। माना जाता है कि मथुरा में इसे विष्णु पहाड़ी पर निर्मित भगवान विष्णु के मंदिर के सामने खड़ा किया गया था, जिसे 1050 ईस्वी में तोमर वंश के राजा और दिल्ली के संस्थापक अनंगपाल दिल्ली लाए। यह भी कयास लगाया जा रहा है कि संभवत: 912 ईस्वी में इसका निर्माण किया गया था, जो हिन्दू और जैन मंदिर का एक भाग था। 13वीं सदी में कुतुबुद्दीन ऐबक ने मंदिर को नष्ट करके कुतुब मीनार की स्थापना की।

निर्विवाद रूप से यह बात दुनिया भर के धातु वैज्ञानिक भी मानते हैं कि पुरातन काल में भारत में धातु-विज्ञान का ज्ञान उच्चकोटि का था। धातु इतिहासकारों के लिए सबसे बड़ी पहेली है इस स्तंभ के निर्माण में इस्तेमाल की गई तकनीक। इसमें ऐसा क्या इस्तेमाल किया गया, जिसकी वजह से यह स्तंभ आज भी नया है।

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1998 में इसका खुलासा करने के लिए आई.आई.टी. कानपुर के प्रोफैसर डा. सुब्रमण्यम ने एक प्रयोग किया। रिसर्च के दौरान पाया कि इसे बनाते समय पिघले हुए कच्चे लोहे में फास्फोरस मिलाया गया था। यही वजह है कि इसमें आज तक जंग नहीं लगा।

कुछ इतिहासकारों का यह भी मानना है कि स्तंभ को बनाने में वूज स्टील का इस्तेमाल किया गया। इसमें कार्बन के साथ-साथ टंगस्टन और कैडमियम की मात्रा भी होती है जिससे जंग लगने की गति को काफी हद तक कम किया जा सकता है। रासायनिक परीक्षण से यह भी पता चला है कि इस स्त भ का निर्माण गर्म लोहे के 20-30 किलो के कई टुकड़ों को जोड़कर किया गया है।

क्या इतने बरसों पहले भारत की तकनीक इतनी विकसित थी ?

दुनिया यह मानती है कि फास्फोरस का पता हैनिंग ब्रांड ने सन् 1669 में लगाया था, लेकिन इस स्तंभ का निर्माण तो 1600 साल पूर्व में किया गया था, यानी हमारे पूर्वजों को इससे पहले ही इसके बारे में पता था। दूसरा सवाल यह है कि 1600 साल पहले गर्म लोहे के टुकड़ों को जोड़ने की तकनीक क्या इतनी विकसित थी, क्योंकि उन टुकड़ों को इस तरीके से जोड़ा गया है कि पूरे स्त भ में एक भी जोड़ दिखाई नहीं देता।

सिर्फ दिल्ली के इस स्तंभ में ही नहीं, धार, मांडू, माऊंट आबू, कोदाचादरी पहाड़ी पर पाए गए लौह स्तंभ, पुरानी तोपों में भी यह जंग-प्रतिरोधक क्षमता पाई गई है। इसके निर्माता को लेकर जो भी संशय हो, किन्तु हजारों साल पुराने लौह स्तंभ का सदियों से बिना किसी जंग के ऐसे खड़ा रहना भारत के गौरवशाली उन्नत विज्ञान की गाथा सुना रहा है।     

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Content Editor

Prachi Sharma

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