क्यों इतने भिन्न हैं जीव और हमारे आस-पास की दुनिया ?
punjabkesari.in Monday, Jul 28, 2025 - 11:07 AM (IST)

शास्त्रों की बात, जानें धर्म के साथ
क्या आपने कभी सोचा है कि इस ग्रह पर कीड़े-मकौड़े, रेंगने वाले जन्तु, पशु-पक्षी ,मानव और यहां तक कि दिव्य प्राणी भी आदि इतने भिन्न प्रकार के क्यों हैं ? यहां तक कि मनुष्यों में भी इतनी श्रेणियां हैं जो धर्म, जाति, आर्थिक स्थिति आदि के आधार पर विभाजित हैं। क्या इससे स्पष्टतः यह प्रतीत नहीं होता कि सभी कुछ, ज्ञात या अज्ञात परतों में विद्यमान है। क्या यह आश्चर्यजनक नहीं है कि विभिन्न ग्रहों और आकाश गंगाओं की यात्रा करने के पश्चात भी जीवन का कोई चिह्न नहीं मिला और न ही कभी मिलेगा। कभी सोचा है क्यों ?
क्या कभी इस बात से आश्चर्य हुआ है कि कई बार हम कमरे में अकेले होते हैं फिर भी किसी की उपस्थिति का एहसास होता है भले ही हमारी पांच इन्द्रियां उसको न अनुभव कर पाएं। सृष्टि विभिन्न स्तरों की ऊर्जा का संयोजन है। प्रत्येक स्तर की ऊर्जा दूसरे से भिन्न है। क्रम-विकास पर आधारित हर एक स्तर अपने आप में पूर्ण भी है और अन्य स्तरों का पूरक भी हैं। इस प्रकार सृष्टि में एक संतुलन कायम है। ऊर्जा, एक परत से दूसरी परत में प्रस्थान करती है किन्तु तभी जब दोनों परतों में अधिक अंतर न हो। यदि ऊर्जा का आदान-प्रदान दो ऐसे स्रोतों में किया जाये जो एक दूसरे से बिलकुल भिन्न हैं तो असंतुलन उत्पन्न हो सकता है, जो विनाश का कारण हो सकता है। किसी भी समय पर होने वाले हमारे अस्तित्व के स्तर को आयाम या लोक कहते हैं। जिस स्तर या लोक में मनुष्य विद्यमान हैं, भू लोक कहलाता है। भू लोक से नीचे के लोक ताल कहलाते हैं, सुताल, रसताल, पाताल आदि जबकि भुवः ,स्वः ,मह ,जनः , तपः और सत्य लोक, भूलोक से ऊपर के लोक हैं तथा हर एक लोक के अपने भी विशेष उप स्तर हैं। भू लोक के स्तर पर यानि हम मनुष्य भी कितने भिन्न प्रकार के हैं, मज़दूर, पेशेवर, व्यापारी, सी.ई.ओ आदि हर कोई अपनी विशेषताओं और अनुभवों के आधार पर एक दूसरे से भिन्न है।
भू लोक से नीचे के लोकों में क्रम विकास एक प्राकृतिक प्रक्रिया है लेकिन उच्च लोकों में हमारी ऊर्ध्वाधर वृद्धि हमारे कर्मों पर आधारित है। इसकी एक ही कुंजी है कि अधिक से अधिक जिम्मेदारियों को स्वेच्छा से लेना। उदाहरण के तौर पर एक फैक्ट्री में एक कार्यकर्ता पदानुक्रम विकास तभी पा सकता है जब वह स्वेच्छा से अतिरिक्त जिम्मेदारियों का भार अपने ऊपर लेता है। जब ऐसा होता है, वह तुरंत वरिष्ठ प्रबंधन की नजरों में आ जाता है और उसे उच्च पद दे दिया जाता है। प्रबंधन सदैव इस तरह के उत्तरदायी लोगों की तलाश में रहती है। स्वैच्छिक कार्य कभी भी अनदेखे नहीं रहते। उच्च पद के साथ-साथ कार्यकर्ता को अधिक शक्तियां भी दी जाती हैं जो कि उसे उसका वर्चस्व साबित करने के लिए नहीं बल्कि प्रभावी ढंग से कार्य निष्पादित करने में मदद करने के लिए दी जाती हैं।
इस प्रकार से उस कार्यकर्ता का स्तर फैक्ट्री में ऊंचा हो जाता है। इसी प्रकार अध्यात्म की दुनिया में भी उत्थान तभी होता है, जब साधक स्वार्थ से बाहर निकलकर सृष्टि के दूसरे प्राणियों का उत्तरदायित्व उठाता है। अगर हम अपने आसपास नज़र डालें तो देखते हैं कि हर समय, हर कोई परमात्मा से कुछ न कुछ मांग ही रहा होता है। ईश्वर, भिखारियों के इस सागर में क्यों किसी को विशेष समझेंगे। केवल वही प्राणी जो निःस्वार्थ कार्य कर रहे हैं और दूसरों की मदद कर रहें हैं, ईश्वर की नजरों में आते हैं और फैक्ट्री कार्यकर्ता के समान ही इस स्तर से ऊपर उठ जाते हैं और दूसरों की मदद के लिए उनकी मुहीम में ईश्वर उन्हें अधिक शक्तियां प्रदान करते हैं। इस प्रकार यह प्राणी, ईश्वर और गुरु कृपा द्वारा अपने पूर्व स्तर से ऊपर उठ जाता है। लेकिन यह प्रक्रिया यहीं बंद नहीं हो जाती।
जब कोई पदानुक्रम अनुसार उन्नति करता है तो और अधिक लोगों लोगों की जिम्मेदारी का भार उस पर आ जाता है, जिस कारण उत्तरदायित्व भी उतना ही बड़ा हो जाता है जहां हल्की सी लापरवाही भी गंभीर दंड का भागी बना देती है। उदाहरण के तौर पर, एक कमीज बनाने की फैक्ट्री में यदि एक कार्यकर्ता कोई गलती करता है तो हद से हद एक कमीज़ ख़राब होता है, किन्तु उस फ्लोर का मैनेजर गलती करता है तो कमीज़ों का एक बैच ख़राब हो सकता है, वहीं जनरल मैनेजर की एक गलती से पूरे दिन का उत्पादन खराब होगा और यदि गलती मैनेजिंग डायरेक्टर के स्तर पर हो जाये तो फैक्ट्री बंद हो सकती है और हज़ारों श्रमिक बेरोज़गार हो सकते हैं। इसी प्रकार सज़ा की गंभीरता भी एक कार्यकर्ता के स्तर से मैनेजिंग डायरेक्टर के स्तर पर गंभीर हो जाती है।
इसी प्रकार अध्यात्म के संसार में भी जब एक उन्नत प्राणी को अधिक शक्तियां प्रदान की जाती हैं तो उत्तरदायित्व भी उतने ही बड़े होते हैं और लापरवाही से जुड़े दंड भी उतने ही अधिक गंभीर। क्योंकि शक्ति का हल्का सा भी दुरूपयोग आसपास के बहुत सारे लोगों या जीवों को प्रभावित कर सकता है जिससे सृष्टि के संतुलन पर असर पड़ता है और दैविक शक्ति इसकी अनुमति कभी नहीं देती।
विकास एक निरंतर प्रक्रिया है किन्तु अनेक जन्मों के बाद ही आत्मिक उत्थान का अवसर दिया जाता है, जिसमें गलती करने की हम कोई गुंजाइश नहीं छोड़ सकते। जब हम ध्यान के लिए बैठते हैं तो विभिन्न अनुभवों का आभास होता है, कुछ तो दृष्टिगोचर भी होते है। देवी-देवताओं के प्रिय दर्शन भी होते हैं और कई बार पशुओं और भयानक प्राणियों के अप्रिय दर्शन भी। यह सब ध्यान के समय हमारी बढ़ी हुई चेतना की स्थिति में होता है, जहां हमारी उच्च इन्द्रियां थोड़ी देर के लिए सक्रिय हो जाती हैं और हम अन्य लोकों के प्राणियों के साथ संपर्क कर उनका अनुभव कर पाते हैं। यदि हमारे पास अन्य लोकों का अनुभव करने के यंत्र या उन तक पहुंचने की जागृत सूक्ष्म इन्द्रियां नहीं हैं तो इसका अर्थ यह बिलकुल नहीं है कि यह लोक मौजूद नहीं हैं। अगरआप पृथ्वी लोक में हैं तो आप गुरुत्वाकर्षण से अवश्य प्रभावित हैं चाहे आप इस बात को माने या न माने।
अश्विनी गुरूजी
ध्यान फाउंडेशन