Mahesh Navami Katha: महेश नवमी व्रत से जुड़ा है महेश्वरी समाज का आरंभ, पढ़ें प्राचीन कथाएं !
punjabkesari.in Tuesday, Jun 03, 2025 - 02:16 PM (IST)

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Mahesh Navami 2025: समाज में महेश नवमी का दिन हर वर्ष श्रद्धा से मनाया जाता है, न केवल महादेव की पूजा के लिए, बल्कि इस बात की स्मृति में कि कोई भी सामान्य मानव, जब सच्चे भाव से ईश्वर को पुकारता है, तो वह स्वयं प्रकट होकर उसे एक धर्ममय जीवन का पथ दिखा सकते हैं। महेश नवमी केवल भगवान शिव की पूजा का दिन नहीं है, यह उस चेतना का प्रतीक है जब एक साधारण व्यक्ति, भगवान के आशीर्वाद से असाधारण धर्मरक्षक बन सकता है। आइए पढ़ें, महेश नवमी से जुड़ी कथाएं-
Mahesh Navami Vrat Katha महेश नवमी व्रत कथा
बहुत प्राचीन समय की बात है, जब पृथ्वी पर अधर्म और अन्याय बढ़ चला था। दैत्यों का आतंक चारों दिशाओं में फैल चुका था और साधु-संत, ब्राह्मण तथा धर्मात्मा लोग भयभीत होकर वनों में छिपने को विवश हो गए थे। यज्ञ, पूजा और सत्य का मार्ग जैसे विलुप्त होने लगा था। तब सभी देवताओं ने भगवान विष्णु से प्रार्थना की और उन्होंने कहा, "इस संकट से मुक्ति का उपाय केवल एक ही है महादेव शिव की कृपा।"
देवताओं ने कैलाश पर्वत पर जाकर भगवान शिव से निवेदन किया। शिव मुस्कुराए और बोले, "जब मानव स्वयं धर्म का दीप जलाना चाहता है, तभी उसे मैं अपने तेज का अंश देता हूं। चलो, आज एक नई परंपरा का बीज बोया जाए जो आने वाले युगों में धर्म का संरक्षक बनेगा।"
उस दिन ज्येष्ठ शुक्ल नवमी तिथि थी। महादेव ने अपनी भार्या पार्वती संग आराधना की और अपने गले से एक दिव्य हार उतारकर पृथ्वी पर फेंका। वह हार वहां गिरा जहां एक साधारण लकड़हारा परिवार निवास करता था। जैसे ही हार भूमि से टकराया, वहां एक दिव्य प्रकाश उत्पन्न हुआ और उस लकड़हारे दंपत्ति को भगवान शिव का साक्षात्कार हुआ।
महादेव बोले, "हे भक्तों, तुम मेरे 'महेश' नामक रूप के रक्षक बनो। आज से तुम मेरे नवम स्वरूप की सेवा करोगे। धर्म की रक्षा, समाज में समानता और सत्य के प्रचार का संकल्प लो।"
वह दिन 'महेश नवमी' के रूप में जाना गया।
लकड़हारा दंपत्ति ने अपनी जीवन दिशा बदल दी। उन्होंने समाज में धर्म, सेवा और समानता का संदेश फैलाया। उन्होंने न सिर्फ देवता की आराधना की, बल्कि लोगों को भी कर्म, न्याय और ईश्वर के प्रति श्रद्धा रखने का मार्ग दिखाया। धीरे-धीरे उनके अनुयायी बढ़ते गए और एक संपूर्ण समुदाय बना, जिसे आगे चलकर 'माहेश्वरी समाज' कहा गया।
Mahesh Navami Katha महेश नवमी कथा
प्राचीन काल में खडगलसेन नामक एक राजा थे, उनसे उनकी प्रजा बहुत प्रसन्न थी। राजा खडगलसेन धार्मिक प्रवृति के व्यक्ति थे। वे अपनी प्रजा की भलाई के लिए हर संभव काम करते, जिससे वह सुखी और संतुष्ट रहे। उनके पास संसार का हर सुख था केवल संतान सुख से वंचित थे। जिस कारण वे बहुत दुखी रहते थे। राजा ने पुत्र प्राप्ति की इच्छा से कामेष्टि यज्ञ का आयोजन करवाया। इस यज्ञ में संत-महात्माओं ने राजा को वीर और पराक्रमी पुत्र होने का आशीर्वाद दिया।
साथ में भविष्यवाणी करी कि पुत्र पैदा होने के बाद 20 सालों तक उसे उत्तर दिशा की यात्रा न करने दी जाए। भूलवश भी वो उत्तर दिशा का रुख न करें। राजा ने उनकी बात को सहर्ष स्वीकार कर लिया। लंबे इंतजार के बाद आखिरकार राजा को पिता बनने का सुख प्राप्त हुआ। राजा के यहां पुत्र का जन्म हुआ, धूमधाम से उसका नामकरण संस्कार करवाया गया। पुत्र का नाम सुजान कंवर रखा गया। सुजान कंवर वीर, तेजस्वी और समस्त विद्याओं से निपुण था।
कुछ समय पश्चात नगर में जैन मुनि का आगमन हुआ, सुजान कंवर उनके सत्संग से बहुत प्रभावित हुए। जिसके बाद उन्होंने जैन धर्म की शिक्षा ग्रहण कर और जगह-जगह धर्म का प्रचार-प्रसार करने लगे। जिससे धीरे-धीरे राज्य के लोगों की जैन धर्म में आस्था बढ़ने लगी।
कहा जाता है कि एक दिन राजकुमार सुजान कंवर शिकार खेलने के लिए जंगल में गए, इस दौरान वो उत्तर दिशा की ओर निकलने लगे। सैनिकों के मना करने के बावजूद वह रुके नहीं। उत्तर दिशा में सूर्य कुंड के पास ऋषि-मुनि यज्ञ कर रहे थे। जिसे देखकर राजकुमार अत्यंत क्रोधित हुए और बोले- 'मुझे अंधेरे में रखकर उत्तर दिशा में नहीं आने दिया गया' और उन्होंने सभी सैनिकों के द्वारा यज्ञ में विघ्न उत्पन्न करवाया।
ऋषियों ने उनके इस कर्म से क्रोधित होकर उन सभी को श्राप दे दिया और वे सब पत्थर बन गए। जब राजा ने यह समाचार सुना तो उन्होंने अपने प्राण त्याग दिए और उनकी सभी रानियां भी सती हो गईं।
राजकुमार सुजान की पत्नी चंद्रावती ने हार नहीं मानी। वह सभी सैनिकों की पत्नियों को लेकर ऋषियों के पास गयी और उनसे क्षमा-याचना करने लगी। ऋषियों ने कहा कि हमारा श्राप विफल नहीं हो सकता। उपाय के तौर पर भगवान महेश और माता पार्वती की आराधना करो। हो सकता है वो तुम सब पर प्रसन्न होकर तुम्हारी कोई मदद कर दें।
चन्द्रावती और सैनिकों की पत्नियों ने श्रद्धा के साथ भगवान महेश और देवी पार्वती की आराधना करी और उनसे अखंड सौभाग्यवती और पुत्रवती होने का आशीर्वाद प्राप्त किया। उसके बाद सभी ने चन्द्रावती के साथ मिलकर अपने-अपने सुहाग को जीवित करने की प्रार्थना करी।
भगवान महेश ने चन्द्रावती और सैनिकों की पत्नियों की पूजा से प्रसन्न होकर उनके सुहाग को जीवनदान दे दिया। मान्यता है कि भोलेनाथ की आज्ञा से इस समाज के पूर्वजों ने क्षत्रिय कर्म छोड़कर वैश्य धर्म को अपना लिया। इसलिए इस समाज को 'माहेश्वरी समाज' के नाम से जाना जाने लगा।