‘गुरु’ कौन है, कहां मिलेगा?

punjabkesari.in Thursday, Nov 18, 2021 - 01:45 PM (IST)

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यह जो दूसरे को ढूंढने की, दूसरे को परखने की मानव की आदत है सर्वप्रथम उस पर ही काबू पाना पड़ेगा। गुरु ढूंढने से पहले मैं कौन हूं किस पानी में हूं, उसे जानना आवश्यक है। यदि आप हीरे-जवाहरात के बाजार में भिंडी-तोरी खरीदने जाएं तो उपहास के सिवा क्या होगा? खरीद पाएंगे क्या? इसलिए शिष्य और साधक ज्ञानी एवं भक्त हम सभी गुरु परखने तथा गुरु ढूंढने में समय खराब न करें। ईश्वर, अध्यात्म गुरु व परमार्थ की ओर जाने वालों के लिए सर्वप्रथम किन-किन लक्षणों से युक्त होना चाहिए इसकी जानकारी प्राप्त होनी चाहिए।

भक्त में जिज्ञासु और ज्ञानी के लक्षण दिखने लगें तो हर परिस्थिति में विवेक जागने का माध्यम बनेगा। हर व्यक्ति गुरु ही लगेगा। जिससे भी जो भी गुण सीखने को मिलेगा वही गुरु बनता चला जाएगा। दत्तात्रेय महाराज जी ने चौबीस गुरु बना लिए। जिससे भी आपने ज्ञान सीख लिया वही आपका गुरु बनता चला जाएगा। जीवन में किसी भी चीज को पसंद या नापसंद करना, लाभ हानि, मान-अपमान जैसी भावनाओं को स्वीकार करना सीख लिया कि नहीं, सहनशीलता तथा बर्दाश्त करने की ताकत आई कि नहीं, यह देखना जरूरी है।

एक महात्मा कहने लगे कि साधु बन कर भी झाड़ू लगाना पड़े तो भूखे मरूंगा पर वह काम नहीं करूंगा। यह कोई गुरु या ज्ञान ढूंढने का तरीका नहीं है। साधु बनोगे तो तुम्हारा मल-मूत्र क्या कोई दूसरा धोएगा? अहंकार भी विष्टा ही है।

अभिमान शून्य होने की ओर चले बिना गुरु के गुण आ ही नहीं सकते और न ही भक्त तथा सेवक के गुण आ सकते हैं। इसके बिना किया गया साधन, जप, तप, पूजा-पाठ, दान, धर्म, तीर्थ, व्रत सब व्यर्थ है।

जो भी घटता है, जैसा भी घटता है उसे स्वीकार करने की शक्ति मनुष्य में कैसी है, कितनी है, उससे पता चलेगा कि वह गुरु की ओर जा सकता है या नहीं।

ऐसा है, वैसा है, यह होना चाहिए, वह होना चाहिए, जमाना खराब है, दुनिया धोखेबाज है जैसी बातें न कह कर जो है जैसा है, उसे स्वीकार करो। स्वीकार करने से व्यक्ति का चरित्र रूपांतरित होने लगेगा।

रूपांतरित होने से अंतर्दृष्टि होने लगेगी। अंतर्दृष्टि होगी तो व्यक्ति खुद सुधरने लगेगा और दूसरों को दोष देना बंद करेगा। विचार करके देखो कि क्या गंगा जी यह पूछती हैं कि समुद्र कहां है? कैसे जाऊं? कब मिलूं? पर चलती जाती हैं बहती जाती हैं। छोटे-मोटे अवरोधों को अपने में समाते चली जाती हैं। स्वयं रास्ता बनता जाता है और गंतव्य समुद्र में पहुंच ही जाती हैं। साधकों को भी बाधाओं से जूझते हुए सतत् साधना पथ में आगे बढ़ते रहना चाहिए। गुरु या लक्ष्य की चिंता किए बिना सद्मार्ग का अनुसरण करते हुए अविरल मार्ग पर बढ़ते रहना चाहिए।

गंगा की तरह सभी के पापों को धोते हुए चलने का अर्थ सरलता को अपनाकर चलना है। याद रखें कि परमात्मा के अस्तित्व में सब कुछ घट रहा है तो हम टांग अड़ाने वाले, पसंद या नापसंद करने वाले कौन होते हैं? इस क्षण जो है जैसा ही है, वैसा ही घट रहा है। 


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Content Writer

Jyoti

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