शास्त्र कहते हैं, अपने बच्चों के Bright Future के लिए उन्हें दें इस मंत्र का उपदेश
Monday, Feb 10, 2020 - 04:12 PM (IST)
शास्त्रों की बात, जानें धर्म के साथ
महर्षि दयानंद सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश के तीसरे समुल्लास में अध्ययन-अध्यापन विषय पर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि हमारी अध्यापन प्रणाली कैसी होनी चाहिए? संतानों को उत्तम विद्या, शिक्षा, गुण, कर्म रूपी आभूषण धारण करवाना माता-पिता, आचार्य और संबंधियों का मुख्य कर्म है। सोने, चांदी, माणिक, मोती, मूंगा, आदि रत्नों से युक्त आभूषणों को धारण करने से मनुष्य की आत्मा सुभूषित कभी नहीं हो सकती क्योंकि आभूषणों के धारण करने से केवल देहाभिमान, विषयासक्ति और चोर आदि का भय तथा मृत्यु का भी संभव है।
विद्याविलासमनसो धृतशीलशिक्षा:
सत्यव्रता रहितमान-मलापहारा:।
संसार दु:ख दलनेन सुभूषिता
येधन्या नरा विहितक-र्मपरोपकारा:।।
जिन पुरुषों का मन विद्या के विलास में तत्पर रहता, सुंदर शील स्वभाव युक्त, सत्यभाषण आदि, नियम पालनयुक्त और अभिमान, अपवित्रता से रहित, अन्य की मलीनता के नाशक, सत्योपदेश, विद्यादान से संसारी जनों के दुखों के दूर करने से सुभूषित, वेदविहित कर्मों से पराय उपकार करने में रहते हैं, वे नर और नारी धन्य हैं इसलिए 8 वर्ष के हों तभी लड़कों को लड़कों की और लड़कियों को लड़कियों की शाला में भेज दें। जो अध्यापक पुरुष या स्त्री दुराचारी हों उनसे शिक्षा न दिलाएं किन्तु जो पूर्ण विद्यायुक्त धार्मिक हों वे ही पढ़ाने और शिक्षा देने योग्य हैं।
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द्विज अपने घर में लड़कों का यज्ञोपवीत और कन्याओं का भी यथायोग्य संस्कार करके यथोक्त आचार्य कुल अर्थात अपनी-अपनी पाठशाला में भेज दें। विद्या पढऩे का स्थान एकांत में होना चाहिए और लड़के-लड़कियों की पाठशाला 2 कोस एक-दूसरे से दूर होनी चाहिए। वहां अध्यापिका और अध्यापक पुरुष व भृत्य अनुचर हों व कन्याओं की पाठशाला में सब स्त्री और पुरुषों की पाठशाला में पुरुष रहें। स्त्रियों की पाठशाला में 5 वर्ष का लड़का और पुरुषों की पाठशाला में 5 वर्ष की लड़की भी न जाने पाए अर्थात जब तक वे ब्रह्मचारी व ब्रह्मचारिणी रहें तब तक स्त्री व पुरुष का दर्शन, स्पर्शन, एकांतसेवन, भाषण, विषयकथा, परस्पर क्रीड़ा, विषय का ध्यान और संग इन 8 प्रकार के मैथुनों से अलग रहें और अध्यापक लोग उनको इन बातों से बचाएं। जिससे उत्तम विद्या, शिक्षा, शील, स्वभाव, शरीर और आत्मा के बलयुक्त होकर आनंद को नित्य बढ़ा सकें।
पाठशालाओं से एक योजन अर्थात 4 कोस दूर ग्राम व नगर रहे। सबको तुल्य वस्त्र, खान-पान, आसन दिए जाएं, चाहे वह राजकुमार, राजकुमारी हो, चाहे दरिद्र की संतान हो, सबको तपस्वी होना चाहिए। उनके माता-पिता अपनी संतानों से तथा संतान अपने माता-पिताओं से न मिल सकें और न किसी प्रकार का पत्र व्यवहार एक-दूसरे को कर सकें, जिससे संसारी चिंता से रहित होकर केवल विद्या बढ़ाने की चिंता रखें। जब भ्रमण करने को जाएं तब उनके साथ अध्यापक रहें, जिससे वे किसी प्रकार की कुचेष्टा न कर सकें और न आलस्य प्रमाद करें।
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कन्यानां सम्प्रदानं च कुमाराणां च रक्षणम्।। मनु.।।
इसका अभिप्राय: यह है कि इसमें राजनियम और जातिनियम होना चाहिए कि पांचवें अथवा आठवें वर्ष से आगे अपने लड़कों और लड़कियों को घर में न रख सकें। पाठशाला में अवश्य भेज दें जो न भेजे वह दंडनीय हो। प्रथम लड़कों को यज्ञोपवीत घर में ही हो और दूसरा पाठशाला में आचार्यकुल में हो। पिता-माता और अध्यापक अपने लड़के-लड़कियों को अर्थसहित गायत्री मंत्र का उपदेश कर दें : ओउम् भूर्भुव: स्व:। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो न: प्रचोदयात्।।
इस मंत्र में जो प्रथम ओउम् है उसका अर्थ प्रथम समुल्लास में कर दिया है। अब 3 महाव्याहृतियों के अर्थ संक्षेप में लिखते हैं : भूरिति वै प्राण: य:प्राणयति चराचरं जगत स भू: स्वयम्भूरीश्वर: जो सब जगत के जीवन का आधार, प्राण से भी प्रिय और स्वयम्भू है उस प्राण का वाचक होके भू: परमेश्वर का नाम है। भुुवरित्यपान: य: सर्वं दुखमपानयति स: अपान:, जो सब दुखों से रहित, जिसके संग से जीव सब दुखों से छूट जाते हैं इसलिए उस परमेश्वर का नाम भुव: है। स्वरिति व्यान:, यो विविधं जगदं व्यानयति व्यापनोति स व्यान:। जो नानाविध जगत में व्यापक होके सब का धारण करता है इसलिए उस परमेश्वर का नाम स्व: है। ये तीनों वचन तैत्तिरीय आरण्यक के हैं।
(सवितु:) य:सुनोत्युत्पादयति सर्वं जगत् स सविता तस्य।
जो सब जगत का उत्पादक और सब ऐश्वर्य का दाता है। (देवस्य) यो दीव्यति दीव्यते वा स देव:। जो सर्वसुखों का देनेहारा और जिसकी प्राप्ति की कामना सब करते हैं। उस परमात्मा का जो (वरेण्यम्) वत्र्तुमर्हम् स्वीकार करने योग्य अतिश्रेष्ठ (भर्ग:) शुद्धस्वरूप और पवित्र करने वाला चेतन ब्रह्मस्वरूप है (तत्) उसी परमात्मा के स्वरूप को हम लोग (धीमहि) धरेमहि धारण करें। किस प्रयोजन के लिए कि (य:) जगदीश्वर: जो सविता देव परमात्मा (न:) अस्माकम् हमारी (धिय:) बुद्धियों को (प्रचोदयात) प्रेरयेत् प्रेरणा करे अर्थात बुरे कामों से छुड़ा कर अच्छे कामों में प्रवृत्त करे।
हे मनुष्यो! जो सब समर्थों में समर्थ सच्चिदानंदानंत स्वरूप, नित्य शुद्ध, नित्य बुद्ध, नित्यमुक्त स्वभाव वाला, कृपा सागर, ठीक-ठीक न्याय को करने वाला, जन्म मरणादि क्लेश रहित, आकार रहित, सबके घट-घट का जानने वाला, सब का धर्ता, पिता, उत्पादक, अन्नादि से विश्व का पोषण करने वाला, सकल ऐश्वर्ययुक्त जगत का निर्माता, शुद्ध स्वरूप और जो प्राप्ति की कामना करने योग्य है उस परमात्मा को जो शुद्ध चेतन स्वरूप है उसी को हम धारण करें। इस प्रयोजन के लिए कि वह परमेश्वर हमारी आत्मा और बुद्धियों का अंतर्यामी स्वरूप हम को दुष्टाचार अधर्मयुक्त मार्ग से हटा के श्रेष्ठाचार सत्य मार्ग में चलाएं, उसे छोड़कर दूसरी किसी वस्तु का ध्यान हम लोग नहीं करें क्योंकि न कोई उसके तुल्य और न अधिक है, वही हमारा पिता राजा न्यायाधीश और सब सुखों को देने वाला है। इस प्रकार गायत्री मंत्र का उपदेश करके संध्योपासना की जो स्नान, आचमन, प्राणायाम आदि क्रियाएं हैं, सिखलाएं। प्रथम स्नान इसलिए है कि जिससे शरीर के बाह्य अव्यवों की शुद्धि और आरोग्य आदि होते हैं।