Dol Gyaras Mela: लोकजीवन का प्रतीक डोल मेला आरंभ, जानें इतिहास और अनूठी परम्पराएं
punjabkesari.in Wednesday, Sep 03, 2025 - 02:48 PM (IST)

शास्त्रों की बात, जानें धर्म के साथ
Dol Gyaras Mela 2025: राजस्थान के हाड़ौती संभाग के बारां तथा इसके आसपास का बसा क्षेत्र, जिसे राजस्थान के अनाज का कटोरा कहें अथवा पांच नदियों को बहाने वाला मिनी पंजाब, भगवान विग्रह की डोल शोभायात्रा को देखकर हाड़ौती की मथुरा कहें या लोकपर्व तेजा दशमी को देखकर लोक संस्कृति का प्रतीक रामदेवरा, इन सभी का मिलाजुला रूप है कोटा-बारां, भोपाल, जबलपुर रेल लाईन के बीच बसा क्षेत्र। पार्वती, परवन तथा कालीसिंध समेत कुछ अन्य छोटी नदियों के मैदानों के मध्य बसा यह क्षेत्र विभिन्न आपदाओं के पश्चात् भी जूझना जानता है और संघर्षों को भी पर्व-त्यौहारों के माहौल में भुलाकर मधुर मुस्कान बिखेरना जानता है।
नदियां इसका जीवन है तो प्रकृति ने भी भरपूर कृपा बरसाई है। यदि धनिया तथा बासमती चावल उगाकर बारां राजस्थान ही नहीं वरन् देशभर में अपनी ख्याति में छाया रहता है, तो डोल शोभा यात्रा जैसे मेलों से भी अन्य राज्यों के लोगों को आकर्षित भी करता है।
हाड़ौती का ही नहीं वरन् राजस्थान एवं पड़ोसी मध्य प्रदेश के दूरदराज क्षेत्रों तक ख्याति प्राप्त कर चुके बारां के लोकजीवन का प्रतीक, धार्मिक भावनाओं से ओतप्रोत प्रसिद्ध डोल मेला इस वर्ष भी भाद्रपद शुक्ल जलझूलनी ग्यारस को शहर के विभिन्न 5 दर्जन मन्दिरों के विमानों (डोल) में विराजे भगवान की निकलने वाली शोभायात्रा के साथ 3 सितम्बर को प्रारंभ हो जाएगा। एक पखवाड़े तक लगने वाले इस मेले को भव्यता प्रदान करने के लिए नगर परिषद् तथा प्रशासन जिम्मा संभाले हुए है।
मेला कब से लगता है, निश्चित कुछ नहीं
बुजुर्ग बताते हैं कि आज से 80-90 साल पूर्व बारां का यह डोल मेला मात्र 2-3 दिन का होता था। हॉट की तरह ठेलों, तम्बुओं में गांव की दुकानें लगती थीं लेकिन समय के साथ यहां के लोगों की श्रद्धा बढ़ी और आज यही मेला एक पखवाड़े तक लगता है। कहते हैं कि कोटा संभाग के अलावा मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश के कई कस्बाई क्षेत्रों से व्यापारी इस मेले से खरीद-फरोख्त के लिए आते हैं।
देव विमानों की शोभायात्रा
बारां के डोल मेले का आकर्षण पूरे शहर के विभिन्न जातियों के मन्दिरों से देव विमानों (डोल) की गाजे-बाजों से निकलने वाली शोभायात्रा होती है। इस शोभायात्रा के दर्शनार्थ लाखों नर-नारी, बच्चे, नौजवानों की भीड़ उमड़ती है। विमानों की शोभायात्रा के आगे भजन-कीर्तन मंडलियां होती हैं और उसके आगे सहस्त्रों युवकों एवं अखाड़ेबाजों के मल्ल तथा शारीरिक कौशल के अनूठे हैरतअंगेज कर देने वाले करतबों को देखकर तो दर्शनार्थी दांतों तले उंगली दबा लेते हैं।
शोभायात्रा की कई मान्यताएं विद्यमान
कहते हैं कि इस दिन भगवान श्रीविग्रह अपने विमान यानी डोल में बैठकर विचरने निकलते हैं। दूसरी यह कि इस दिन श्रीकृष्ण की माता गाजे-बाजों के साथ कृष्ण जन्म के 18वें दिन सूर्य एवं जलवा पूजन के लिए घर से निकलती हैं। कुछ का मानना है कि विभिन्न मन्दिरों में विराजे भगवान प्रकृति की हरियाली का वैभव एवं सौन्दर्य निहारने निकलते हैं।
बदलते दौर में भी नहीं बदली परम्पराएं
श्रीकल्याणराय, श्रीजी मन्दिर से विमानों की शोभा यात्रा शुरू होती है। रघुनाथ मन्दिर का भी विमान सबसे आगे होता है। इस मन्दिर को राजमन्दिर कहा जाता है। यह विमान मन्दिर के बाहर आकर रुक जाता है। जहां श्रीजी और रघुनाथजी के विमान आपस में गले मिलते हैं। यह परम्परा आज भी जीवंत है।
शंखनाद, घण्टा ध्वनि के साथ होता है जलवा पूजन
विमानों की यह शोभायात्रा सांध्य होते ही डोल मेला स्थित तालाब पर पहुंच जाती है, जिसके किनारे ये विमान कतारबद्ध रख दिए जाते हैं, जहां देवी-देवताओं को नूतन जल से स्नान करवाया जाता है। उसके बाद शंखनाथ, घंटा, ध्वनि, झालर आदि कई वाद्य यत्रों की ध्वनि एवं जय-जयकार के उद्घोषों के साथ सामूहिक महाआरती होती है।
मेला का इतिहास
बारां में स्थित कल्याणराय श्रीजी का मन्दिर जहां से शोभायात्रा शुरू होती है, वह 600-700 वर्ष पुराना बताया जाता है।
इतिहास में उल्लेख है कि बूंदी के महाराव सुरजन सिंह हाड़ा ने रणथम्भौर का किला अकबर को सौंप दिया था।
उस समय वहां से 2 देव मूर्तियों को लाया गया था। उनमें एक रंगनाथ जी की तथा दूसरी कल्याणराय जी की थी।
रंगनाथ जी की मूर्ति को बूंदी में स्थापित किया गया और कल्याणराय जी की मूर्ति को बारां लाया गया था। बूंदी की तत्कालीन महारानी ने यहां श्रीजी के मन्दिर का निर्माण करवाया और मूर्ति यहां स्थापित की।