सत्य कहानी: दु:खों के सागर से पार लगना चाहते हैं तो पढ़ें...
punjabkesari.in Saturday, Dec 26, 2015 - 12:08 PM (IST)

"ब्रज की एक शाम"
संध्या का सुहावना समय था। चारों ओर सू्र्य की लालिमा फैली हुई थी। सूर्यदेव भी अस्ताचल की गुफा में खड़े नवीन सन्यासी की तरह सारे संसार को विशेष रुप से ब्रज मण्डल को, झांक-झांक कर देख रहे थे। उन्हें देख कर ऐसा लगता था कि मानों वे श्रीकृष्ण की निशांत कालीन लीला भी देखना चाहते थे और लीला देखते हुए अस्ताचल की गुफा में समा जाने को तैयार थे।
किंतु वे किसी और शक्ति के कारण मजबूर थे। उन्हीं का अनुसरण करते हुए सारे पक्षी अपने-अपने घौंसलों में आकर चहचहा रहे थे। बछड़े अपनी पूंछ उठा-उठा कर खुशी से इधर-उधर कूद रहे थे, जिन गायों का दूध निकल चुका था। वे भी अपने बच्चों के पीछे-पीछे भाग रही थी। जिन गायों का दूध नहीं निकला था। वे इस प्रकार रम्भा रही थीं, मानों "गोपाल ! गोपाल ! !" कहकर पुकार रहीं हों। सभी ग्वाले अपनी-अपनी गायों का दूध निकालने में व्यस्त थे तथा गोपियां सज-धज कर यमुना की पूजा के लिए जा रही थीं, ब्रज के बच्चे बछड़ों के साथ मिट्टी में खेल रहे थे पंरतु कन्हैया सबसे अंदर बैठा हु्आ भी सबसे दूर अपने घर के कोने में माखन की खाली मटकियों से खेल रहा था।
माता यशोदा ने देखा कि सभी गोपियां यमुना में दीप-दान करने जा रही हैं अत: मुझे भी जाना चाहिए पंरतु इस नटखट का क्या करे? यदि वह इसे साथ में नहीं ले जाती तो जाने की जिद्द करेगा और यदि साथ चला तो वहां जाकर न तो मुझे ठीक से पूजा करने देगा और न ही अन्य गोपियों को।
अत: बहला-फुसलाकर यदि इसके सखाओं के साथ इसे भेज दिया जाए तो कुछ काम बन सकता है। ऐसा सोचकर यशोदा ने अपने प्राणधन गोपाल को आवाज लगाई। माता की आवाज सुनते ही कन्हैया माखन की हांडिय़ो को छोड़कर माता के पास आ गए।
"तूने मुझे बुलाया मैया।"
"हां लाला, क्या कर रहा था तू अकेले में?"
"कुछ नहीं मैया, यूं ही खेल रहा था हांडिय़ों से।"
"क्यों, सखाओं के साथ नहीं गया। देख, सामने मैदान में सभी ग्वाल-बाल खेल रहे हैं।"
"नहीं मैया। तुझे छोड़कर मैं कहीं नहीं जाउंगा।"
"पागल है तू, मुझे कुछ होगा थोड़े ही, जा खेल सखाओं के साथ। "
माता की बात सुनकर कन्हैया सखाओं के संग खेलने चला गया तभी यशोदा दीप-दान को जाने के लिए तैयारियां करने लगी। उसने हाथ-पैर धोए व सुंदर-सुंदर वस्त्रालंकारों से सुसज्जित होकर कहीं गोपाल न देख ले, चुपके से घर से निकल गई। पंरतु सर्वान्तर्यामी प्रभु से भी भला कुछ छिप सकता है?
सभी सखाओं को छोड़़कर दौडा़-दौडा़ " मैया।मैया ! ! " पुकारता हुआ कन्हैया अपनी मैया के पास चला आया।
"कहां जा रही है मैया तू ?" भोलेपन से श्रीकृष्ण ने कहा ।
"कहीं नहीं, तू जा खेल ले सखाओं के साथ।"
नहीं मैया, "बता तो कहां जा रही है तू !"
"लाला ! तेरे लिए माखन मिश्री लेने जा रही हूं।" पूजा के सामान को अपने आंचल से छिपाती हुई मैया बोली।
"नहीं मैया, तू झूठ बोल रही है, मैंने, अभी देखा है कि घर में ढेर सारी माखन की मटकियां और ढेर सारी मिश्री पड़ी है! मैया, तू सच-सच बता कहां जा रही है।"
"लाला, मैं किसी ज़रुरी काम से जा रही हूं, तू जा खेल।"
"नहीं मैया, तू सज-धज के जरुर मेला देखने जा रही है। मैं भी जाऊंगा, मेला देखने।"
"अरे लाला ! रात को भी भला कहीं मेला होता है। मैं तो यमुना मैया की पूजा करने जा रही हूं।"
"अरे मैया, मैं भी जाऊंगा पूजा करने।"
"नहीं लाला, वहां बच्चे थोड़े ही जाते हैं।"
"नहीं मैया, अब मैं छोटा तो नहीं हूं, देख न कितना बड़ा हो गया हूं।"
लाला की चिकनी-चुपड़ी बातें सुन कर मैया का मन पसीज गया। अत: वह गोपाल से बोली,"देख गोपाल ! मैं तुझे ले तो जाऊं, लेकिन तू वहां करेगा कया ?"
"मैया, मैं भी देखूंगा, तू कैसे पूजा करती है, कभी मुझको भी तो करनी होगी।"
"अच्छा, तू मुझे परेशान तो नहीं करेगा।"
"तेरी साैगंध खाकर कहता हूं मैया, मैं बिलकुल परेशान नहीं करुंगा।"
"अच्छा ठीक है।"
इतना कहकर मैया ने यमुना की अोर मुख किया और चल दी। कन्हैया ने भी मैया के अांचल के कोने को पकड़ लिया और धीरे-धीरे मैया के पीछे-पीछे चलने लगा ताकि भक्त मैया के श्रीचरणों की रज सिर पर गिरती रहे।
यमुना पर पहुंच कर मैया ने यमुना को प्रणाम किया। यमुना की स्तुति करते हुए उसने दोना निकाला, उसमें एक दीपक जलाया तथा उसे चारों अोर से फूल इत्यादि से सजाकर यमुना में छोड़ दिया और हाथ जोड़ कर व अांख बद करके यमुना मैया के सामने न जाने क्या गुण-गुणाने लगी।
कन्हैया ने देखा कि यमुना के दोनों अोर छोटी-बड़ी बूढ़ी बहुुत सी गोपियां मग्न हुईं यमुना मैया की पूजा कर रही हैं तथा अपने-अपने दीपकों को भांति-भांति के भावों से प्रवाहित कर रही है। लाखों-लाखों दीपक यमुना के जल में झिलमिल-झिलमिल करते हुए बह रहे थे। थोड़ी देर बाद यशोदा मैया ने अांख खोलीं और यमुना जी को प्रणाम करते हुए वापिस जाने लगी पंरतु वहां कन्हैया का अता-पता ही नहीं था।
"कन्हैया ! अो कन्हैया !! इसीलिए तो मैं इसे नहीं ला रही थी। अब कहां ढूंढू इस अन्धेरे में।"
मैया की अावाज़ सुनकर "मैं यहां हूं ! " कन्हैया ने जवाब दिया।
इधर-उधर निगाह दाैड़ाते हुए माता ने देखा कि लाला यमुना के बीच में घुसा हुअा था और बहते हुए दीपकों के साथ खेल रहा था।
"अरे क्या है ? पानी से निकल, कहीं सांप अादि न डस ले।"
कन्हैया मुस्कराते हुए सोचता है कि भला काैन सा सांप मुझे डसेगा। इतना बड़ा विषधर कालिय नाग तो बेचारा मेरा कुछ न कर सका। अरे फिर मैं तो हमेशा ही हजारों फन वाले सांप (शेष नाग) के उपर शयन करता हूं।
"अरे ! जल्दी निकल पानी से। क्या कर रहा है तू वहां।" मैया ने कड़कती हुई अावाज़ में कहा।
"मैया मैं इनको (बहते दीपकों को) किनारे लगा रहा हूं।"
" अरे , पागल है तू, किस-किस को किनारे लगाएगा।"
"मैया, मैंने सभी का ठेका थोड़े ही ले रखा है। जो मेरे सामने अाएगा मैं उसे किनारे लगा दूंगा।"
अर्थात भव सागर में डूबते कष्ट पाते हुए सभी जीवों को किनारे लगाने का ठेका भगवान ने नहीं लिया है, क्योंकि भगवान जीव स्वतंत्रता में बाधा नहीं देना चाहते। हां, जो भाग्यशाली जीव भगवान के सम्मुख अर्थात शरणागत हो जाता है, उसे ही भगवान दु:खों के सागर से पार लगा देते है। जैसे कि अपनी रामलीला में, हम जीवों को हमारे ही पापों के कारण प्राप्त होने वाले कष्टों से छुटकारा पाने का तरीका बताते हुए मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामचन्द्र जी कहते हैं-
"सन्मुख होहि जीव मोहि जबहिं, जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं। "
तथा अपनी कृष्ण लीला में अर्जुन को उपदेश देते हुए भगवान कहते है-
दैवी होषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।।
मामेव ये प्रपघन्ते मायामेंतां तरन्ति ते।।
अर्थात, हे अर्जन! मेरी त्रिगुणमयी दैवीमाया से जीव अपनी चेष्टा से उर्त्तीण नहीं हो सकता ! जो जीव एकमात्र मेरी शरण में अाते है, केवल वे ही मेरी माया से तर जाते हैं।
अरे कन्हैया ! अाता नहीं किसलिए, हाऊ ले जाएगा तेरे को वहां से अपने लाला को डांटती हुई माता बोली ।
श्रीकृष्ण सोचते हैं कि मेरे हाउ रूप (भंयकर नृसिंह स्वरूप) को देखकर तो सारे देवता , कित्रर मनुष्य व राक्षस डरते हैं, मुझे काैन सा हाऊ ले जाएगा। राक्षसराज रावण को मैंने सवंश धूलि मेें मिला दिया । तब तो हाऊ नहीं मिला । बेचारे शकटासुर व तृणार्वत अादि मुझे ले जाने की कोशिश कर रहे थे पंरतु अपनी जान से ही हाथ धो बैठे ।अब कौन सी हाऊ की मैया कह रही है, जो मझे ले जाएगा।
अरे कन्हैया ! देख तू मुझे परेशान मत कर, नहीं तो काली गाय को जो मक्खन मैंने निकाला है, वह मैं तुझे नहीं दूंगी, सारा तेरे दाऊ भैया को दे दूंगी ।
माता का दु:खी मन देखकर श्रीकृष्ण यमुना से बाहर निकले अाए और अत्यन्त भोलेपन से माता के सामने खड़े हो गए। माता ने खूब स्नेह के साथ कन्हैया के शरीर को पोंछा और अपनी तर्जनी उंगली अपने लाला को पकड़ा कर तेजी से अपने घर की अोर चल दी । माता अनुसरण करते हुए श्रीकृष्ण भी अपने नन्हें-नन्हें कदमों से दाैड़ कर चलने लगे।
श्री चैतन्य गौड़िया मठ की ओर से
बी.एस निष्किंचन जी महाराज