Konark Sun Temple: इस मंदिर का हर एक पत्थर कहता है एक अलग कहानी
punjabkesari.in Thursday, Apr 17, 2025 - 12:59 PM (IST)

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Konark Sun Temple: उड़ीसा के शांत समुद्र तट के पास स्थित कोणार्क मंदिर ओडिसी शिल्पकला का अद्भुत नमूना है। ऐतिहासिक और पुरातात्विक दोनों ही दृष्टि से कोणार्क के सूर्य मंदिर की अपनी विशिष्टता है। भुवनेश्वर से कोणार्क 65 किलोमीटर दूर है। मंदिर की शिल्पकला की विशेषता है कला की बारीकी। दीवारों पर बनी पशु-पक्षियों, देवी-देवताओं, मनुष्यों, अप्सराओं, लताओं की पच्चीकारी रुचिकर लगती है।
सूर्य की किरणों के साथ-साथ मंदिर की भाव-प्रतिमाओं में भी परिवर्तन आ जाता था मंदिर में सूर्य के पौराणिक स्वरूप की कल्पना को साकार किया गया है। मूल कोणार्क मंदिर तो कब का टूट चुका है। प्राचीन काल में जब सूर्य की किरणें विभिन्न मंडपों से होती हुई सूर्य की प्रतिमा पर पड़ती थीं, तब प्रतिमा का मुख शांत एवं सौम्य प्रतीत होता था। इसी प्रकार मध्याह्न में सूर्य की किरणें सीधी पड़ने से प्रतिमा के चेहरे पर कठोरता और सायंकालीन सूर्य की किरणों के प्रभाव से थकावट का भाव देखा जा सकता है। जब यह मंदिर अपने पूर्ण वैभव के साथ बनकर तैयार हुआ था, तब सूर्य की किरणों के साथ-साथ मंदिर की भाव-प्रतिमाओं में भी परिवर्तन आ जाता था।
इसे 1245-56 ई. के दौरान महाराज नरसिंह देव (प्रथम) ने बनवाया था, जिन्हें लांगुला नरसिंह देव भी कहते हैं। जान पड़ता है कि मूल रूप में इससे भी पहले इसी स्थान पर प्राचीन सूर्य मंदिर था। मंदिर का शिखर बहुत ऊंचा था। उसमें अनेक मूर्तियां प्रतिष्ठित थीं।
1824 ई. में स्टरलिंग नामक अंग्रेज ने इस मंदिर को देखा था। उस समय यह नष्टप्राय: अवस्था में था। किंवदंती के अनुसार, चक्रक्षेत्र (जगन्नाथपुरी) के उत्तर-पूर्वी कोण में यहां अर्क या सूर्य का मंदिर होने के कारण इस स्थान को कोणार्क कहते हैं।
मंदिर का निर्माण 1200 कारीगरों द्वारा 16 वर्षों तक चलता रहा। मंदिर के कलश का पत्थर कोई बैठा नहीं पाता था। राजा की आज्ञा थी कि अगर 3 दिनों के अंदर मंदिर की शिला पर कलश का पत्थर न बैठाया जा सका तो 1200 शिल्पियों को प्राणदंड मिलेगा। अंत में विशु महाराणा के पुत्र धर्मपद ने कलश का पत्थर बैठाकर काम पूरा किया। वह 1200 शिल्पियों की जान बचाने के लिए समुद्र में कूद गया ताकि राजा को यह पता न चल सके कि पत्थर किसी दूसरे ने बैठाया है।
सूर्य भगवान के रथ के आकार का है मंदिर
कोणार्क मंदिर सूर्य भगवान के रथ के आकार का है। मंदिर की संरचना सूर्यदेव के विराट रथ या विमान के रूप में की गई है। बारह राशियों के प्रतीक इस मंदिर के आधारभूत बारह महाचक्र हैं। सूर्य के सात अश्वों के परिचायक रूप में यहां भी सात विशाल घोड़ों की मूर्तियां हैं। वास्तव में सूर्य के सात घोड़े उनकी किरणों के सात रंगों के प्रतीक हैं। किंवदंती है कि कोणार्क का प्राचीन नाम ‘कोन-कोन’ था। सूर्य (अर्क) के मंदिर बन जाने से यह नाम कोनार्क या कोणार्क हो गया। इस मंदिर के तीन प्रवेश द्वार हैं तथा यह तीन भागों में विभाजित है। मंदिर का सामने वाला भाग नृत्य मंदिर, मध्य का जगमोहन या आराधना मंदिर तथा अन्य भाग गर्भगृह कहलाता है। इस मंदिर का आकार रथ के समान है, जिसे सात घोड़े खींच रहे हैं। इस रथ में 2.94 मीटर व्यास के 24 अलंकृत पहिए लगे हुए हैं जो भारतीय समयावधि की ओर संकेत करते हैं। उदाहरणार्थ, अग्र भाग में बने सात घोड़े सात दिनों के, चौबीस पहिए वर्ष के बाहर महीनों के पक्षों के तथा पहियों में आठ-आठ तीलियां दिन के आठ पहरों की प्रतीक हैं।
यह मंदिर पांच फुट चार इंच चौड़ी दीवार से घिरा हुआ है। 1902 ई. में जब इसका पुनरुद्धार किया गया, यह झाड़ियों से ढका था। कुछ हिस्से बालू से ढक गए थे। उत्तर-पश्चिम और दक्षिण भाग में नवोदित सूर्य, मध्याह्न सूर्य और अस्तगामी सूर्य की तीन मूर्तियां हैं। शिथिल अश्वों पर आरूढ़ अस्तगामी सूर्य की शोभा कमनीय है। कोणार्क के आंगन में सुंदर दर्शनीय नवग्रह की मूर्ति है। यह एक ही पत्थर पर उकेरी गई है। इसे विदेश ले जाने की कोशिश की गई थी पर यह इतनी बड़ी है कि किसी भी प्रकार से नहीं ले जाई जा सकी।
विभिन्न प्रकार की मूर्तियां
कोणार्क की प्रथम प्रकार की मूर्तियों में देव मूर्तियां, अवतार अथवा पौराणिक उपाख्यानों के चित्र आते हैं। दूसरे, सामाजिक रीति-रिवाजों के चित्र, जैसे बैलों द्वारा गाड़ी खींचना, औरत का खाना पकाना, दो दलों द्वारा रस्सी खींचा जाना, सैनिकों का युद्ध से लौटना, पलंग पर चंदोवे का तनना आदि आते हैं। तीसरे प्रकार में शृंगारिक, प्रणय संबंधी हाव-भाव की मूर्तियां हैं। इनके अतिरिक्त विशालकाय हाथी-घोड़ों की विश्वप्रसिद्ध मूर्तियां हैं।
कोणार्क मंदिर के पतन के बारे में काला पहाड़ का आक्रमण करना और चुंबक पत्थर का हटाया जाना प्रमुख हैं। अबुल फजल लिखित ‘आईने अकबरी’ में काला पहाड़ द्वारा कोणार्क मंदिर के नष्ट होने का कोई प्रमाण नहीं मिलता। जनश्रुति के अनुसार कोणार्क मंदिर के ऊपर एक चुम्बक पत्थर था जो समुद्र में जाने वाले जहाजों को किनारे की ओर खींच लाता था। अत: विदेशी नाविक उसे निकाल कर ले गए। परिणाम यह हुआ कि मंदिर ढह गया। कोणार्क का पतन अब भी रहस्य बना हुआ है।