योगी की नियुक्ति मोदी-शाह की ‘दीर्घकालिक रणनीति’ का हिस्सा

punjabkesari.in Monday, Mar 20, 2017 - 10:22 PM (IST)

योगी आदित्यनाथ का उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में चयन किए जाने के फैसले का अर्थ लगाना कोई आसान काम नहीं। इस समाचार के संबंध में प्रतिक्रियाएं अपेक्षाकृत ढर्रे पर ही व्यक्त की गई हैं, यानी कि एक प्रतिबद्ध और आक्रामक हिंदुत्ववादी के चयन पर एक पक्ष द्वारा कुंठाएं और भय व्यक्त किया गया है, जबकि दूसरे द्वारा उदारपंथियों की अप्रसन्नता पर खुलकर खुशी व्यक्त की जा रही है। 

लेकिन इन प्रत्याशित प्रतिक्रियाओं के दायरे से आगे बढ़कर देखा जाए तो यह कदम बहुत रहस्यमय है क्योंकि यह अब तक के भाजपा के राजनीतिक मुहावरे के विपरीत है। मोदी और शाह की योजना के अनुसार राज्यों में मोदी चुनाव जीतते हैं तो बागडोर किसी ऐसे व्यक्ति के हाथ में थमाते हैं जिसका कोई राजनीतिक कद-काठ नहीं होता और इस प्रकार अमित शाह को साथ लेकर मोदी पार्टी पर व्यावहारिक रूप में मुकम्मल वर्चस्व बनाना जारी रखे हुए हैं। उनके ऐसा कर पाने का एक कारण यह भी है कि मतदाता सीधे उन्हीं के साथ जुड़े हुए हैं। महाराष्ट्र जैसे कुछ मामलों में चुना गया व्यक्ति स्थानीय तौर पर अपने पैर मजबूत कर गया लेकिन अधिकतर मामलों में (जैसे हरियाणा और गुजरात) प्रभारी व्यक्ति की कारगुजारी उल्लेखनीय नहीं और बेगाने सहारे पर ही वह अपनी कुर्सी पर टिका हुआ है। 

इस कार्यशैली का अघोषित वायदा तो यह है कि चुनाव जीतने के लिए हिंदुत्व का आक्रामक ढंग से प्रयोग किया जाए लेकिन चुनाव जीतते ही पूरा फोकस विकास और गवर्नैंस की ओर बदल दिया जाए। उलझन भरी बात यह है कि आदित्यनाथ की नियुक्ति से उपरोक्त दोनों ही प्रकार के तत्वों की कोई जरूरत नहीं रह गई। आदित्यनाथ के रूप में हमारे सामने एक ऐसा नेता है जिसका बहुत मजबूत स्थानीय आधार है और वह इतना दमदार है कि मौका मिलने पर अपनी अप्रसन्नता पार्टी के सामने व्यक्त करने की हिम्मत कर सकता है। यह एक ऐसा काम है जो वर्तमान में भाजपा का एक भी नेता नहीं कर सकता। इससे भी सनसनीखेज बात यह है कि आदित्यनाथ के बारे में पहले ही ये चर्चाएं शुरू हो गई हैं कि वह 2024 में प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बन सकते हैं। 

उनकी नियुक्ति का एक उद्देश्य यह भी है कि प्रचंड हिंदुत्व को और अधिक धारदार बनाया जाए और सार्वजनिक जीवन में इसकी अभिव्यक्ति को बढ़ावा दिया जाए। अब तक तो हिंदुत्व को एक ऐसे शस्त्र के रूप में देखा जाता रहा है जो जरूरत पडऩे पर प्रयुक्त किया जाता था और काम निकल जाने पर ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता था। यानी कि इसे लचकदार ढंग से काम में लाया जाता था। जरूरत पडऩे पर इसे सबसे आगे किया जाता था लेकिन अन्य अवसरों पर इसका प्रयोग केवल प्रतीकात्मक रूप में होता था। सोशल मीडिया के ‘जंगजू’ अपने विरोधियों के खिलाफ शाब्दिक भड़ास निकालने के लिए अपनी ओर से ङ्क्षहदुत्व को और भी ‘मसालेदार’ बना देते हैं। आदित्यनाथ की नियुक्ति ने इस पूरी कवायद को स्थायी रूप में बदल कर रख दिया है। यानी अब ङ्क्षहदुत्व का शंखनाद कुछ लोगों को ही नहीं बल्कि हर किसी को सुनाई देगा और यही बात है जो रणनीति में एक स्पष्ट बदलाव की सूचक है। 

आखिर भाजपा तथा मोदी-शाह की जोड़ी को ऐसा करने की क्या जरूरत पड़ गई? वर्तमान रणनीति भी बहुत बढिय़ा नतीजे दिखा रही थी और यू.पी. में तूफानी जीत इसका जीवंत प्रमाण है। हिंदुत्व के बाहुबलीय प्रदर्शन से पार्टी को कौन-सा अतिरिक्त लाभ होने वाला है? यह मानना होगा कि आदित्यनाथ का चयन हर प्रकार की बुद्धिमता और विवेक के विपरीत दिखाई देता है, फिर भी यदि ऐसा हुआ है तो यह नागपुर (यानी संघ मुख्यालय) के आदेशों पर फूल चढ़ाने का नतीजा है और एक दीर्घकालिक रणनीति का हिस्सा है जो पार्टी को दरपेश कुछ विशेष ढांचागत मुद्दों को सम्बोधित होती है। 

भाजपा की सबसे बड़ी शक्ति तो नि:संदेह नरेन्द्र मोदी और उनके साथ जुड़े हुए अन्य कई प्रकार के लाभ हैं, फिर भी यह तथ्य दीर्घकालिक रूप में पार्टी के सामने कुछ असुखद प्रश्र उभारता है। उदाहरण के तौर पर इस प्रतिभाशाली राजनीतिज्ञ के बिना यू.पी. में पार्टी की कारगुजारी कैसी होती? यह सवाल मात्र कल्पना ही महसूस क्यों न होता हो तो भी यह इस दलील को अवश्य ही आगे बढ़ाता है कि देश भर में दिखाई दे रहा राजनीतिक बोलबाला और पार्टी के प्रिय विचारों व मंचों को हासिल हो रही प्रतिष्ठा अपने आप में चुनावी जीत सुनिश्चित नहीं कर सकते। सरल शब्दों में कहा जाए तो मोदी के बिना भाजपा केवल अपने पार्टी मंच की सहायता से सत्ता में आने की काबिलियत का आभास नहीं देती। 

विकास और लोगों की आकांक्षाओं का नि:संदेह अपना ही आकर्षण है लेकिन यदि मोदी न हों तो भाजपा लोगों को अपने इस सपने पर विश्वास दिलाने की योग्यता नहीं रखती। जहां तक इस अपील के वैचारिक पक्ष का सवाल है, सैद्धांतिक रूप में इसे वोटों में बदलने के लिए किसी व्यक्ति की जरूरत नहीं- विचार अपने आप में ही एक शक्ति हैं। लेकिन अब की बार मामला ऐसा नहीं था। मोदी की सबसे बड़ी प्रतिभा तो यह है कि वह राजनीति में मौजूद 2 मूलभूत प्रेरणाओं को एक-दूसरे के साथ जोडऩे का हुनर जानते हैं- ये दोनों प्रेरणाएं हैं डर और उम्मीद की। वह इन्हें एक ही पैकेज का रूप दे देते हैं और इस मामले में वह सचमुच अद्वितीय हैं। 

एक स्तर पर भाजपा ही भारत का एकमात्र ऐसा राजनीतिक संगठन है जो खुद को राष्ट्रीय पार्टी कह सकता है। अब तो यह ऐसे क्षेत्रों में भी एक शक्ति बनती जा रही है जहां कुछ वर्ष पूर्व तक इसका नामोनिशान नहीं था। कांग्रेस तो एक मजाक बनकर रह गई है और ‘आप’ राष्ट्रीय स्तर पर कुछ कर दिखाने की हैसियत में बहुत देर बाद ही आ सकेगी। जहां तक क्षेत्रीय पाॢटयों का सवाल है वे चुङ्क्षनदा व्यक्तियों पर अधिक निर्भर हैं और इनमें से अधिकतर तो पतन की अवस्था में हैं। उनके पैरों तले से जमीन खिसकनी शुरू हो गई है और वह दिन दूर नहीं जब वे काफी जनाधार खो देंगी। इसका सबसे अधिक लाभ भाजपा को मिलेगा। 

भाजपा के मामले में सच्चाई यह है कि इसका टकसाली मंच विपक्ष की कमजोरी और ढेर सारी समस्याओं के बावजूद इसे (भाजपा को) चुनाव जिताने के लिए पर्याप्त नहीं। यही वह मोड़ है जहां पर शायद आदित्यनाथ सबसे अधिक प्रासंगिक होंगे। यू.पी. की जीत ने शायद भाजपा को इस बारे में बहुत आश्वस्त कर दिया है कि इसका सांस्कृतिक एजैंडा अधिक जोर-शोर से आगे बढ़ाए जाने की जरूरत है और यू.पी. में यह अब अधिक खुले रूप में शुरू हो जाएगा क्योंकि लोगों ने भाजपा के लिए मतदान किया है। इसका तात्पर्य यह होगा कि जहां मोदी समूचे तौर पर सरकार का चेहरा होंगे, वहीं पार्टी की वैचारिक पेशकदमी का आदित्यनाथ द्वारा अधिक प्रचंड रूप में प्रतिनिधित्व किया जाएगा। 

यह भी हो सकता है कि इस नियुक्ति से नेतृत्व की दूसरी कतार का निर्माण शुरू हो जाए जो मोदी के बाद पार्टी की कमान संभालेगा। पार्टी के जनाधार को उत्साहित करने के लिए जिस शक्ति की बेहद जरूरत है, आदित्यनाथ का रोम-रोम उसे प्रवाहित करता हुआ दिखाई देता है। उनमें कमी है तो केवल एक बात की कि वह मोदी की तरह आज के मतदाता की आकांक्षाओं को शाब्दिक रूप नहीं पहना सकते। 

यदि इस अटकल को सही मान लिया जाए तो समय बीतने के साथ-साथ आदित्यनाथ शायद मोदी के पदचिन्हों पर चलने का ही रास्ता अपनाएंगे। फिर भी उनके लिए इस कायाकल्प का प्रबंधन करना एक समस्या ही होगा। इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात यह होगी कि वह मोदी को चुनौती देने वाले का अक्स बनाए बिना खुद को किस प्रकार सशक्त बनाएं। यह कहने को बेशक आसान लगता हो लेकिन व्यावहारिक रूप में कठिन है। रणनीतिक बदलाव अब घटित हो चुका है। आगामी कुछ दिनों में स्थिति स्पष्ट हो जाएगी। 


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