नागरिकता संशोधन कानून पर ‘बवाल’ क्यों

punjabkesari.in Friday, Dec 20, 2019 - 12:43 AM (IST)

 नागरिकता संशोधन कानून पर उग्र प्रदर्शन के बीच सर्वोच्च न्यायालय ने बुधवार (18 दिसम्बर) को रोक लगाने से इंकार कर दिया। अब अदालत इसकी वैधानिकता को परखेगी। गुरुवार (19 दिसम्बर) को वामपंथियों ने भारत बंद भी बुलाया। अब तक देश में जारी उग्र बवाल में रेलवे, अन्य सार्वजनिक और निजी सम्पत्तियों को भारी क्षति पहुंची है। आगजनी और पथराव की अनेक घटनाओं ने तो कश्मीर की पुरानी तस्वीरों को ताजा कर दिया। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार इन हिंसक प्रदर्शनों में असामाजिक तत्वों के साथ इस्लामी चरमपंथी भी शामिल हैं। यक्ष प्रश्न है कि आखिर भारतीय विरोधी दलों के साथ मुस्लिम समाज का एक हिस्सा संशोधन के बाद एकाएक क्यों भड़का, जो उनके किसी भी संवैधानिक और नागरिक अधिकारों का हनन नहीं करता है? 

संशोधन के अनुसार पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बंगलादेश में मजहबी अत्याचारों से प्रताडि़त होकर जो भी वहां के अल्पसंख्यक, हिन्दू, सिख, बौद्ध, ईसाई, पारसी और जैन 31 दिसम्बर, 2014 तक भारत आए हैं, उन्हें भारतीय नागरिकता प्राप्त करने का अधिकार होगा। यह कानून पूर्वोत्तर भारत के उन क्षेत्रों में लागू नहीं होगा, जो ‘इनर लाइन परमिट’ के अंतर्गत आते हैं और जहां संविधान की छठी अनुसूची लागू है। 

आश्रय देने से किसी का क्या बिगड़ता है
मजहबी उत्पीडऩ के शिकार उपरोक्त लोगों को यदि भारत आश्रय देता है तो इससे किसी का क्या बिगड़ता है? बेबस हिन्दुओं को पनाह देने से भारतीय मुसलमानों या किसी अन्य का अहित कैसे हो सकता है? प्रश्न यह भी उठता है कि यदि भारत में इन 3 इस्लामी देशों के 6 समुदायों को नागरिकता मिल रही है तो उन देशों के मुसलमानों को क्यों नहीं? इसका सीधा उत्तर यह है कि ये तीनों देश घोषित रूप से इस्लामी राष्ट्र हैं, इसलिए वहां मजहबी आधार पर मुस्लिम उत्पीडऩ की बात हास्यास्पद है। 

क्या इन तीनों इस्लामी देशों में अल्पसंख्यकों का मजहबी शोषण होता है? विभाजन के समय पाकिस्तान में हिन्दू, सिख, बौद्ध और जैन समुदाय वहां की तत्कालीन कुल आबादी का 15.16 प्रतिशत थे, जो 72 वर्ष पश्चात घटकर 1.5-2 प्रतिशत रह गए हैं। एक आंकड़े के अनुसार वर्ष 2002 में पाकिस्तान में सिख जहां 40,000 थे, वे अब घटकर 8000 से नीचे पहुंच गए हैं। इसी तरह बंगलादेश (1971 से पहले पूर्वी पाकिस्तान) में हिन्दू और बौद्ध अनुयायियों की संख्या 1947 में वहां की कुल जनसंख्या का 30 प्रतिशत थी, वह आज 8 प्रतिशत भी नहीं रह गई है। अफगानिस्तान में 1970 के दशक में अफगान हिन्दुुओं और सिखों की संख्या लगभग 7 लाख थी, जो 1990 में गृहयुद्ध के बाद निरंतर घटती हुई आज केवल 3000 लोगों तक पहुंच गई है। इन देशों में ‘काफिर’ अल्पसंख्यकों की दयनीय स्थिति का मुख्य कारण यह है कि कालांतर में उन्हें इस्लाम अपनाने के लिए विवश होना पड़ा है और जिस किसी ने इसकी अवहेलना की, उसे मौत के घाट उतार दिया गया। परिणामस्वरूप, इस तरह के मजहबी उत्पीडऩ से बचने के लिए वहां के अल्पसंख्यक भारत सहित अन्य देशों में पलायन के लिए मजबूर हुए। 

घाटी में हिन्दुओं को शेष भारत में पलायन हेतु विवश किया
भारत में कश्मीर इसी दंश का सबसे बड़ा मूर्त रूप है। घाटी में 1980-90 के दशक में जेहाद के नग्न नृत्य ने 5 लाख से अधिक हिन्दुओं को शेष भारत में पलायन हेतु विवश कर दिया। विडंबना देखिए, पिछले 7 दशकों में  जिस प्रकार पाकिस्तान, अफगानिस्तान में हिन्दू, सिख, बौद्ध आदि अल्पसंख्यक विरोधी हिंसा के लिए किसी दोषी को सजा नहीं हुई है, वैसे ही कश्मीर में हिन्दुओं के शृंखलाबद्ध नरसंहार के लिए आज तक किसी भी जेहादी को सजा नहीं मिली है। 

इस पर स्वयंभू सैकुलरिस्टों का पाखंड देखिए कि जो कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी गत दिनों दिल्ली में नागरिकता संशोधन एक्ट विरोधी ङ्क्षहसक प्रदर्शन में पुलिसिया कार्रवाई के खिलाफ इंडिया गेट स्थित धरने पर बैठी थीं उन्होंने, उनके परिवार या फिर शीर्ष कांग्रेसी नेता सहित किसी भी स्वघोषित सैकुलरिस्ट ने आज तक कश्मीरी हिन्दुओं को न्याय और उनके अपनों की हत्या करने वाले जेहादियों को सजा दिलाने हेतु धरना तो दूर, इस संबंध में आवाज तक नहीं उठाई है। नागरिकता संशोधन कानून विरोधी देशव्यापी प्रदर्शन और उसका उग्र रूप  स्वयंभू  सैकुलरिस्ट राजनीतिक दलों  के मुस्लिम वोट बैंक हेतु प्रतिस्पर्धा के गर्भ से जनित है। संशोधन कानून के खिलाफ देशभर में प्रदर्शन (हिंसक  सहित) करने वालों में अधिकांश प्रदर्शनकारी मुस्लिम समुदाय से हैं। यह स्थिति तब है जब संशोधन से भारतीय मुस्लिमों के संवैधानिक अधिकारों में किसी तरह की कटौती नहीं होने वाली है। 

मुस्लिम समाज का एक वर्ग ‘हकदारी की भावना’ का शिकार 
वास्तव में मुस्लिम समाज के एक वर्ग द्वारा नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ उग्र विरोध पिछले 6 वर्षों से व्याप्त नाराजगी के मिश्रण का विस्फोट है। यह समूह  ‘हकदारी की भावना’ का शिकार है। इस भावना का जन्म और उसे उग्र रूप देने के लिए लगभग पिछले 100 वर्ष की वह राजनीति जिम्मेदार है जिसने इस्लामी कट्टरता के सतत् पोषण को सैकुलरवाद की संज्ञा दी है। इस विकृति की शुरूआत 1921-24 के कालखंड में तब ही हो गई थी जब गांधी जी ने मुस्लिमों को स्वतंत्रता आंदोलन से जोडऩे के उद्देश्य से इस्लामी अभियान ‘खिलाफत आंदोलन’ का नेतृत्व किया।

1937 तक मुस्लिम वर्ग का एक बड़ा हिस्सा पाकिस्तान को लेकर गंभीर नहीं था, किन्तु अगले 10 वर्षों में ङ्क्षहसा, हत्या, बलात्कार और अंग्रेजों व वामपंथियों के कुटिल सहयोग से मुस्लिम समाज देश का विभाजन कर पाकिस्तान लेने में सफल हुआ। कटु सत्य तो यह है कि जितना विरोध स्वघोषित सैकुलरिस्टों ने अयोध्या में राम मंदिर का किया है, यदि उसका चौथाई ‘पाकिस्तान आंदोलन’ के खिलाफ संघर्ष करता तो संभवत: न ही भारत खंडित होता और न ही पाकिस्तान जैसा विषैला राष्ट्र जन्म लेता। 72 वर्ष पहले मिली इस आसान विजय ने भारतीय उपमहाद्वीप के अधिकांश मुस्लिमों में व्याप्त अलगाववाद और कट्टरवाद को पहले से अधिक पोषित और मजबूत किया है। 

अगस्त, 1947 के बाद इस्लामी कट्टरपंथियों के तुष्टीकरण की राजनीति बंद होनी चाहिए थी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।  उस समय कश्मीर में बहुलतावादी शासकीय व्यवस्था को बाजू में रखकर घोर सांप्रदायिक और कट्टर शेख अब्दुल्ला को घाटी में भेज दिया गया। इसके परिणामस्वरूप 4 दशक पश्चात कश्मीरी पंडितों का घाटी से पलायन हो गया, तो देशभर के मौलवी-मौलानाओं के साथ दिल्ली के शाही इमाम ने इस बात का प्रमाण-पत्र देना आरंभ कर दिया कि देश में कौन-सी राजनीतिक पार्टी या नेता सैकुलर है और कौन सांप्रदायिक। 

वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में भी दिल्ली स्थित जामा मस्जिद के शाही इमाम ने मुस्लिम समाज से ‘सैकुलरिस्ट’ कांग्रेस को वोट देने का फतवा जारी किया था किन्तु उस समय कांग्रेस को स्वतंत्र भारत में अपनी सबसे बुरी पराजय का सामना करना पड़ा। फिर इस वर्ष के आम चुनाव में शाही इमाम द्वारा किसी एक दल को समर्थन नहीं देने का फतवा जारी हुआ। मुसलमानों की राष्ट्रव्यापी गोलबंदी के बीच मोदी सरकार की न केवल वापसी हुई, अपितु 2014 से अधिक सीटों और जनाधार के साथ सत्ता में लौटी। यह मुस्लिम ‘वीटो’ के लिए सबसे बड़ा झटका था। विगत माह कानूनी रूप से 134 वर्षों से लंबित राम जन्मभूमि मामले में सर्वोच्च न्यायालय का निर्णायक फैसला आया। यह इसलिए संभव हुआ, क्योंकि स्वाभाविक न्यायिक प्रक्रिया राजकीय हस्तक्षेप से पूरी तरह मुक्त रही। 

सच तो यह है कि नागरिकता संशोधन कानून का विरोध तो केवल बहाना है। मुस्लिम समाज के एक वर्ग के वास्तविक क्रोध के मुख्य कारण उनके ‘वीटो’ का निष्क्रिय होना तो उन्हें मिले अधिकारों और शेष भारतीय नागरिकों को प्राप्त अधिकार में आए अंतर का धीर-धीरे समाप्ति की ओर आगे बढऩा है। विरोधी दल इसी सांप्रदायिक और विभाजनकारी मनोवृत्ति का दोहन करते हुए अपने-अपने वोट बैंक को पुख्ता करने के प्रयास में है।-बलबीर पुंज


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