कम मतदान होने का अर्थ क्या

punjabkesari.in Monday, Apr 29, 2024 - 03:08 AM (IST)

प्रथम चरण एवं दूसरे चरण में लगातार मतदान की गिरावट देश में चिंता का विषय बनी है तो यह स्वाभाविक है। अब तक कुल 12 राज्यों केरल, राजस्थान, त्रिपुरा, तमिलनाडु, उत्तराखंड, अरुणाचल, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम  नागालैंड, सिक्किम तथा 3 केंद्र शासित प्रदेशों अंडमान, लक्षद्वीप और पुडुचेरी का मतदान संपन्न हो चुका है। हालांकि राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो औसत मतदान में गिरावट नहीं है। राज्यों एवं राज्यों के अंदर संसदीय क्षेत्र में भी मतदान प्रतिशत कहीं ठीक-ठाक है तो कहीं गिरा है। अगर दोनों चरणों की कुल 190 सीटों पर 2019 के मतदान प्रतिशत से तुलना करें तो यह मोटा मोटा दो प्रतिशत की गिरावट ही दिखाता है। दूसरे चरण में लगभग 68.49 प्रतिशत मतदान हुआ, जबकि 2019 में 70.05 प्रतिशत से ज्यादा हुआ था। त्रिपुरा में सर्वाधिक 79.66 प्रतिशत लोगों ने मताधिकार का उपयोग किया तो मणिपुर में 78.78 प्रतिशत ने।

असम में 2019 में 76.45 की जगह 77.35 प्रतिशत, छत्तीसगढ़ में 75 प्रतिशत प्रतिशत की जगह 75.16 प्रतिशत, कर्नाटक में 68.21 की जगह 68.47 प्रतिशत, केरल में लगभग 80 प्रतिशत की जगह 70.21 प्रतिशत, बिहार में करीब 60 प्रतिशत की जगह  56.81 प्रतिशत, मध्यप्रदेश में 67.75 प्रतिशत  की जगह 58.26 प्रतिशत, महाराष्ट्र में 61.93 में 59.63 प्रतिशत, प. बंगाल में 80 प्रतिशत की जगह 73.78 प्रतिशत और  उत्तर प्रदेश में 62. 39 प्रतिशत की जगह  54.8 प्रतिशत मतदान हुआ। तो मध्यप्रदेश में 9 प्रतिशत तथा उत्तर प्रदेश में 8 प्रतिशत से ज्यादा मतदान की गिरावट असाधारण है।  निश्चित रूप से इन दो चरणों ने मतदान की प्रवृत्तियों का आकलन कठिन बना दिया है।  तो क्या मायने हैं मतदान प्रतिशत की इन गिरावटों का? 

अभी तक 2019 के लोकसभा चुनाव में मतदान उच्चतम स्तर पर पहुंचा था। वर्तमान मतदान को देखते हुए तत्काल यह मानना होगा कि हमारे देश में 2019 ने रिकार्ड स्तर प्राप्त किया और तत्काल इससे आगे बढ़ाने की संभावना नहीं है। जब एक बार कोई भी प्रवृत्ति ऊंचाई छूती है तो उसके बाद उसे नीचे आना ही पड़ता है। हालांकि राजनीतिक दलों की प्रतिस्पर्धा और जन जागरूकता को देखते हुए मतदान प्रतिशत में नि:संदेह वृद्धि होनी चाहिए थी। नहीं हुआ तो यह सभी राजनीतिक दलों, मीडिया के साथ सक्रिय नागरिकों के लिए ङ्क्षचता का विषय होना चाहिए और आगे के दौर में सभी कोशिश करें कि ज्यादा से ज्यादा लोग निकल कर मतदान करें, किंतु राष्ट्रीय स्तर पर गिरावट को देखकर ज्यादा निराश होने का कोई कारण नहीं हो सकता। नागालैंड में इसलिए मतदान प्रतिशत ज्यादा गिरा क्योंकि 6 जिलों में ईस्टर्न नागालैंड पीपुल्स फ्रंट (ई.एन.पी.ओ.) ने अलग राज्य की मांग को लेकर मतदान का बहिष्कार किया था।

इन 6 जिलों के 20 विधानसभा क्षेत्रों में चार लाख से अधिक मतदाता हैं। जब इतनी संख्या में मतदाता मत डालेंगे नहीं तो उसे गिरना ही है। इसे मतदान की प्रवृत्ति नहीं मान सकते। करीब डेढ़ दशक पहले मतदान घटने का अर्थ सत्तारूढ़ घटक की विजय तथा बढऩे का अर्थ पराजय के रूप में लिया जाता था और प्राय: ऐसा देखा भी गया। किंतु 2010 के बाद प्रवृत्ति बदली है। मतदान बढऩे के बावजूद सरकारें वापस आई हैं और घटने के बावजूद गई हैं। पिछले 17 लोकसभा चुनावों के मतदान की प्रवृत्ति का आकलन करें  तो 5 बार मतदान घटा है और 4 बार सरकार बदल गई और  7 बार मतदान बढ़ा तो उसमें 4 बार सरकारें बदल गईं। इसलिए इसके आधार पर कोई एक निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता। दूसरे, हर जगह मतदान प्रतिशत ज्यादा गिरा भी नहीं है। तीसरे, बंगाल में साफ दिखाई दे रहा है कि दोनों पक्षों के मतदाताओं में एक-दूसरे को हराने और जीताने की प्रतिस्पर्धा है। संदेशखाली से लेकर अन्य मामलों के कारण वहां ङ्क्षहदुओं के बड़े समूह के अंदर ममता बनर्जी को लेकर आक्रोश है। 

सबसे ज्यादा चर्चा उत्तर प्रदेश की है तो क्षेत्र के हिसाब से देखें तो कुछ जगहों में बहुत ज्यादा गिरावट नहीं है  किंतु ज्यादातर में कमी आई है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के इस इलाके में मतदान प्रतिशत घटना सामान्य स्थिति का परिचायक नहीं है। इस क्षेत्र को जातीय और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का विशेषण प्राप्त है। तो यह आकलन करना कठिन है कि जहां मतदान प्रतिशत गिरा वहां किनके मतदाता नहीं आए। पिछले चुनाव में भाजपा के लिए यह चुनौतीपूर्ण क्षेत्र था तथा बसपा सपा ने उसे गंभीर चुनौती दी थी। अगर भाजपा विरोधी उसे हराना चाहते थे तो उन्हें भारी संख्या में निकलना चाहिए। कहा भी जा रहा है कि सपा के कोर मतदाता यानी मुसलमान और यादवों का बड़ा समूह आक्रामक होकर मतदान कर रहा था। कांग्रेस को भी इसका लाभ मिला होगा। किंतु विरोधी भारी संख्या में निकलेंगे तो समर्थक भी इसका ध्यान रखेंगे।


हालांकि उम्मीदवारों के चयन, दूसरे दलों से आए लोगों को महत्व मिलने तथा कहीं-कहीं,गठबंधन को लेकर भाजपा समर्थकों और कार्यकत्र्ताओं में थोड़ा असंतोष है तथा एक जाति विशेष ने भी विरोधात्मक रूप अख्तियार किया था। बावजूद यह कहना कठिन होगा कि भाजपा समर्थक मतदाता ही ज्यादा संख्या में नहीं निकले। समर्थक कार्यकत्र्ता थोड़ा असंतुष्ट हों तो इसका असर होता है किंतु विरोधी तेजी से हराने के लिए निकले और इसके बावजूद वह प्रतिक्रिया न दें इस पर विश्वास करना कठिन होता है।

इस बात से इंकार करना कठिन है कि मतदाताओं की उदासीनता चुनाव में आरंभ से ही बनी हुई है। हालांकि विपक्ष के प्रचार के विपरीत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार को लेकर आम जनता के अंदर कहीं व्यापक आक्रोश या भारी विरोधी रुझान बिल्कुल नहीं दिखा है। कल्याण कार्यक्रमों के लाभार्थी तथा विकास नीति की प्रशंसा करने वाले हर जगह दिखाई देते हैं। श्री रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा से लेकर समान नागरिक संहिता एवं नागरिकता संशोधन कानून आदि पर विपक्ष के रवैये ने भाजपा के समर्थकों और मतदाताओं में प्रतिक्रिया भी पैदा की है। आम प्रतिक्रिया यही है कि प्रधानमंत्री तो नरेंद्र मोदी को ही होना चाहिए। लोग अगर वोट डालते समय यह विचार करेंगे कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ही बनाना है तो वह किसका समर्थन करेंगे? कार्यकत्र्ताओं, नेताओं और समर्थकों के एक समूह के असंतोष का कुछ असर हो सकता है।

उन्होंने अगर काम नहीं किया या उनमें से कुछ ने मतदान से अपने को अलग रखा तो परिणाम पर इसके प्रभाव से इंकार नहीं किया जा सकता। भाजपा नेतृत्व को इसका संज्ञान लेते हुए दूर करने का प्रयास करना चाहिए। हालांकि जिनके अंदर असंतोष है उनमें भी यह भाव है कि अगर यह सरकार हार गई तो कहा जाएगा कि  ङ्क्षहदुत्व विचारधारा की हार हो गई है। जिस जाति के विद्रोह की चर्चा हो रही है वहां भी लोगों के अंदर भाजपा, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को लेकर सहानुभूति का भाव दिखता है। इसलिए यह मानने में भी कठिनाई है कि इन्होंने बिल्कुल एक मस्त आक्रामक होकर भाजपा के विरोध में मतदान किया होगा। 

ऐसा होने का अर्थ मतदान बढऩा होना चाहिए। मतदान कम होने को भाजपा विरोधी संकेत मानना उचित नहीं होगा। मतदान प्रतिशत सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों के एक-दूसरे के विरुद्ध प्रखर वायुमंडल बनाने से ही बढ़ता है। सत्ता पक्ष अपने कार्यकत्र्ताओं, समर्थकों के साथ आम लोगों के एक समूह के अंदर यह संवेग पैदा कर दे कि हर हाल में उसी की सत्ता में वापसी उनके एवं देश के हित में है तथा विपक्ष के आने से अहित होगा तो लोग अपने आप बाहर निकलते हैं। 
इसी तरह विपक्ष यदि अपने समर्थकों, कार्यकत्र्ताओं एवं गैर-दलीय मतदाताओं के अंदर यह भाव बिठा देगा कि यह सरकार आपके हितों के विरुद्ध काम कर रही है, इसका जाना ही आपके हित की रक्षा करेगा तो वह भी सरकार को हराने की मानसिकता में भारी संख्या में निकलेंगे। मतदान में गिरावट का अर्थ है कि या तो यह दोनों स्थिति नहीं बनी या कम बनी है या फिर इनमें से किसी एक में अवश्य कमी है। -अवधेश कुमार


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