संविधान संशोधन से ही सफल होगी आरक्षण की गारंटी

punjabkesari.in Tuesday, May 07, 2024 - 04:11 AM (IST)

चुनावी रण में आरक्षण पर नेताओं की तीखी बहस के बीच महिला आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले से विवादों का नया पिटारा खुल गया है। जजों ने सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन की रजिस्टर्ड सोसायटी की कार्यकारिणी में एक तिहाई महिलाओं को आरक्षण देने का आदेश दिया है। उस फैसले के बाद देशभर की सभी जिला अदालतों और हाईकोर्ट की बार एसोसिएशन के साथ हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति में भी महिलाओं के आरक्षण की मांग होने लगी है। सनद रहे कि लोकसभा और विधानसभा में महिलाओं को एक तिहाई आरक्षण देने का कानून बनाने वाले नेताओं ने लोकसभा चुनावों में सिर्फ 9 फीसदी महिलाओं को ही टिकट दिया है। प्रधानमंत्री मोदी आरक्षण के प्रति वचनबद्धता को दोहराते हुए धर्म के आधार पर आरक्षण की पुरजोर खिलाफत कर रहे हैं। 

संविधान सभा में बहस के दौरान मई, 1949 में मोहम्मद इस्माइल साहिब ने मुस्लिमों को आरक्षण के लिए जोरदार तकरीर दी थी। लेकिन सरदार पटेल के साथ बेगम ऐजाज रसूल जैसे कई सदस्यों ने उसकी खिलाफत की थी। उनके अनुसार अंग्रेजों ने धार्मिक आधार पर पृथक निर्वाचक मंडल की परम्परा शुरू की थी, जिसकी वजह से भारत का धर्म के आधार पर विभाजन हुआ। इसलिए धर्म के आधार पर आरक्षण गलत है। साल 1995 में देवेगौड़ा की सरकार ने मुस्लिम समुदाय को 4 फीसदी आरक्षण दिया था। साल 2023 के विधानसभा चुनाव के पहले भाजपा सरकार ने उसे रद्द करके वोक्कलिंगा  और लिंगायत समुदाय में बांट दिया था। लेकिन उस आदेश पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा दी थी। साल 2004 में अविभाजित आंध्र प्रदेश में कांग्रेस सरकार ने मुस्लिम समुदाय के लिए 5 फीसदी आरक्षण का कानून बनाया था, जिस पर हाईकोर्ट ने रोक लगा दी थी। 

आरक्षण का बढ़ता दायरा : विधानसभा और लोकसभा में वंचित वर्ग के लिए संविधान में अल्पकालिक आरक्षण का प्रावधान था। सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में अपवाद स्वरूप आरक्षण की व्यवस्था थी। सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन के आधार पर संविधान में आरक्षण के लिए मापदंड बनाए गए थे। नेताओं ने सियासी सहूलियत के अनुसार उन्हें जाति के पैमाने पर बदल दिया। वी.पी. सिंह सरकार ने मंडल कमीशन की सिफारिशों के मुताबिक कई दशक पुरानी जनगणना के आंकड़ों के अनुसार अन्य पिछड़े वर्ग (ओ.बी.सी.) के लिए 27 फीसदी आरक्षण को लागू किया था। 

मोदी सरकार द्वारा नियुक्त जस्टिस रोहिणी आयोग की रिपोर्ट को लागू करने पर ओ.बी.सी. की जातियों के वर्गीकरण से जुड़े अनेक नए विवाद खड़े होंगे। उसके अलावा दिव्यांग, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी जैसे अन्य वर्गों के लिए आरक्षण के प्रावधान हैं। दक्षिण दिल्ली में किन्नर राजन सिंह ने चुनावों में निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर नामांकन करके किन्नर समुदाय के लिए एक फीसदी आरक्षण की मांग की है। सुप्रीम कोर्ट के 9 जजों की बैंच ने 1992 में इंदिरा साहनी मामले में आॢथक आधार पर आरक्षण को नकार दिया था, लेकिन मोदी सरकार ने ई.डब्ल्यू.एस. के नाम पर अगड़े वर्ग को भी आरक्षण के दायरे में शामिल कर लिया। उसके अलावा आनन-फानन में महिला आरक्षण के लिए संविधान संशोधन कानून पारित कर दिया गया। लेकिन उसे लागू करने के लिए निश्चित समय सीमा और तारीख मुकर्रर नहीं की गई है।

संविधान संशोधन से सफल होगी गारंटी : नौकरी बढ़ाने में विफल सरकारें, आरक्षण के झुनझुने से वोट हासिल करने के बाद इसके लिए समुचित कानून नहीं बनातीं। धर्म के आधार पर  आरक्षण पर बहस के साथ, आरक्षण की पूरी तस्वीर से जुड़े 5 अहम पहलुओं को समझना जरूरी है। पहला-सुप्रीम कोर्ट के 30 साल पुराने फैसले के अनुसार 50 फीसदी से ज्यादा आरक्षण नहीं हो सकता लेकिन कई राज्यों में इसका खुल्लम-खुल्ला उल्लंघन हो रहा है। इसकी वजह से हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में बड़े पैमाने पर मुकद्दमेबाजी भी हो रही है। कांग्रेस ने आरक्षण के कैप को हटाने के लिए संविधान में संशोधन की मांग की है। ऐसा होने पर सुप्रीम कोर्ट में 9 जजों से बड़ी बैंच को उस कानून की संवैधानिकता का निर्धारण करना होगा। 

दूसरा-साल 2019 की अधिसूचना के अनुसार 8 लाख रुपए से कम की आमदनी वालों को ई.डब्ल्यू.एस. आरक्षण दिया गया। इसकी वजह से 95 फीसदी से ज्यादा आबादी आरक्षण के दायरे में आ गई है। ई.डब्ल्यू.एस.  के आॢथक मापदंड के बाद अन्य आरक्षित वर्गों के लिए केन्द्रीय स्तर पर क्रीमीलेयर का नए सिरे से निर्धारण करने की जरूरत है। 80 करोड़ से ज्यादा लोगों को फ्री का राशन और 95 फीसदी आबादी को आरक्षण के बाद विकसित भारत की सफलता का व्यवहारिक आकलन होना चाहिए। 

तीसरा-केरल समेत कई राज्यों में मुस्लिम समुदाय को ओ.बी.सी. के दायरे में आरक्षण का लाभ मिलता है। ई.डब्ल्यू.एस.  के दायरे में भी मुस्लिम समुदाय के लोग आते हैं। लेकिन ईसाई या मुस्लिम धर्म में शामिल होने के बाद एस.सी./एस.टी. के लोगों को आरक्षण की साहूलियत नहीं मिलती। इस बारे में सुप्रीम कोर्ट में बड़े पैमाने पर मुकद्दमेबाजी चल रही है। चौथा-जाति के आधार पर आरक्षण को सरकार, संसद और सुप्रीम कोर्ट ने मान्यता दे दी है। इसलिए जातिगत जनगणना करवाना विकल्प नहीं बल्कि संवैधानिक बाध्यता है। ऐसा करने पर प्रमोशन से जुड़े कानूनी विवाद कम होंगे और आरक्षण के लाभार्थियों का सही आकलन हो सकेगा।

जनगणना के बाद जातियों की संख्या के आधार पर आरक्षण को बढ़ाने की मांग होगी लेकिन आरक्षण के नाम पर वोट हासिल करने वाले  नेताओं को अब जातिगत आरक्षण के जिन्न से निपटना ही होगा। पांचवां-कम होती सरकारी नौकरियों के बीच संविदा के पदों पर भी आरक्षण को लागू करने की मांग हो रही है। उसके अलावा कई राज्यों में माटीपुत्रों के लिए और निजी क्षेत्र में आरक्षण देने के मनमाफिक प्रयोग हो रहे हैं। स्पष्ट नीति और केन्द्रीय कानून नहीं बनने की स्थिति में आरक्षण से जुड़े मामलों में संवैधानिक अराजकता और मुकद्दमेबाजी के बढऩे से विकसित हो रहे भारत के पैर लडख़ड़ा सकते हैं। आरक्षण के नाम पर वोट मांग रहे नेताओं को आरक्षण से जुड़ी कानूनी चुनौतियों के समाधान का रोडमैप पूरे देश के सामने रखना चाहिए। - विराग गुप्ता (एडवोकेट, सुप्रीम कोर्ट)


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