राजनीतिक दलों को ‘सत्ता’ मतदाता सौंपते हैं, विश्वविद्यालय नहीं

punjabkesari.in Monday, Jan 13, 2020 - 03:01 AM (IST)

देश के विश्वविद्यालय और कालेज रिसर्चपरक  कार्यों और देश की तरक्की में योगदान देने के बजाय राजनीति के अखाड़े बनते जा रहे हैं। दिल्ली का जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय इसका प्रमाण है। इस विश्वविद्यालय में शिक्षा और शोध के बजाय पूरा जोर राजनीतिक उठा-पटक पर लग रहा है। मुद्दा यह नहीं है कि विश्वविद्यालय में जो कुछ चल रहा है, उसमें गलती किसकी है, बल्कि सवाल यह है कि आखिर विश्वविद्यालय और कालेजों को स्थापित किए जाने का मकसद क्या है? 

इससे शायद ही कोई इंकार करे कि उच्च शिक्षा और शोधपरक कार्य ही इनका उद्देश्य है लेकिन मौजूदा हालात इस उद्देश्य से भटक कर दूसरे हो गए हैं। देश में पहले ही उच्च शिक्षा की गुणवत्ता खराब है, उसमें मौजूदा घटनाक्रम करेला और नीम चढ़ा जैसे हो गए हैं। जे.एन.यू. में विरोध और ङ्क्षहसा का जो नया रूप सामने आया है, उससे सर्वाधिक नुक्सान शिक्षा का हो रहा है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि बेहतर रोजगार के लिए युवाओं के सपने में से एक सपना जे.एन.यू. में दाखिला लेना भी होता है। इसके लिए न सिर्फ युवा, बल्कि उनके परिजन भी सहयोग, समर्पण से लेकर धन की व्यवस्था करने की बड़ी कीमत अदा करते हैं। 

ऐसे संस्थानों में प्रवेश लेकर अपने भविष्य पर कुल्हाड़ी तो नहीं मार ली
इसके विपरीत शिक्षा के ऐसे उच्चतर संस्थानों में जब धरना, प्रदर्शन, पुलिस लाठीचार्ज, आपसी मारपीट और ङ्क्षहसा की घटनाएं होती हैं तो युवा और उनके परिजनों का हताश होना लाजिमी है। उन्हें लगने लगता है कि कहीं ऐसे उच्च शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश लेकर अपने भविष्य पर कुल्हाड़ी तो नहीं मार ली। जहां चारों ओर अराजकता का वातावरण हो, वहां नियमित कक्षाएं और रिसर्च कार्य की उम्मीद नहीं की जा सकती। 

सवाल यह भी है कि चंद लोगों की किसी मुद्दे पर पक्ष-विपक्ष की मानसिकता का खामियाजा वे हजारों विद्यार्थी क्यों उठाएं जो अपने अभिभावकों की गाढ़ी कमाई के बूते अपना भविष्य संवारने आते हैं। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि क्या विश्वविद्यालय मुद्दे तय करने के लिए बनाए गए हैं। यदि देश-दुनिया के मुद्दे ही तय करने हैं तो इसके लिए सीधे विधानसभाएं और संसद बनी हुई हैं। यहां खूब बहस की जा सकती है। यहां कानून और नीतियां बनाई जा सकती हैं, न कि विश्वविद्यालयों में ऐसे मुद्दों का फैसला किया जा सकता है। यह काम राजनीतिक दलों का है कि देश को किस दिशा में ले जाना है। देश में राजनीतिक दलों को सत्ता की चाबी करोड़ों मतदाता सौंपते हैं, विश्वविद्यालय नहीं। 

विश्वविद्यालयों को मिलने वाला अनुदान भी इन्हीं मतदाताओं की जेबों से जाता है। आम लोगों के टैक्स के बूते विश्वविद्यालयों का संचालन होता है। ऐसे में यदि लक्ष्य के विपरीत कार्य किया जाए तो विश्वविद्यालयों के औचित्य पर प्रश्रचिन्ह लगना लाजिमी है। वैसे भी देश में नीति और कानून बनाए जाने का काम राज्य और केंद्र सरकारों का होता है। मतदाता इन्हें चुन कर भेजते हैं। यदि किसी को सरकार की कोई नीति पसंद नहीं है तो उसमें ही नीतियों में बदलाव संभव है,हिंसा और प्रतिहिंसा से किसी तरह का बदलाव संभव नहीं है। 

मतदाताओं को कांग्रेस की नीतियां और तौर-तरीका पसंद नहीं आया
देश की चुनी हुई सरकार विदेश नीति हो या गृह नीति तय कर सकती है। सड़कों पर या विश्वविद्यालय परिसरों में ऐसी नीतियां तय नहीं की जा सकतीं। यदि किसी को इनसे एतराज है तो चुनाव जीत कर नीतियों में संशोधन करने के दरवाजे खुले हुए हैं। यही वजह भी रही कि देश के मतदाताओं ने पांच दशक से लंबे समय से राज करने वाली कांग्रेस को दरकिनार कर दिया। मतदाताओं को कांग्रेस की नीतियां और तौर-तरीका पसंद नहीं आया। देश के मतदाताओं के विवेक पर सवाल उठाने वालों को विवेकहीन ही कहा जा सकता है। ये देश के मतदाता ही हैं जिन्होंने अपनी सूझबूझ से देश को विगत 7 दशक से लोकतांत्रिक तरीके से बांधे रखा है, साथ ही लोकतंत्र की बुनियाद को मजबूत किया है। 

मतदाताओं ने आजादी के बाद से हर चुनाव में कई दौर देखे हैं। चाहे  वह जातिवाद हो, धर्म, भाषा या फिर क्षेत्रवाद हो। राजनीतिक दलों ने अपने संकीर्ण स्वार्थों के लिए ऐसे विवादास्पद मुद्दों का इस्तेमाल करने में कभी गुरेज नहीं किया। इसके बावजूद मतदाताओं की परिपक्वता ही है कि देश को कमजोर करने वाले ऐसे मुद्दों पर राजनीतिक दलों को आईना दिखाकर ही  लोकतंत्र को मजबूत किया है। ऐसा नहीं है कि मतदाताओं को इस बात का अंदाजा नहीं है कि कौन-सा राजनीतिक दल कितने पानी में है। 

मतदाताओं के पास राजनीतिक दलों की जन्म कुंडलियां हैं
मतदाताओं के पास लंबे समय से सभी राजनीतिक दलों की जन्म कुंडलियां हैं। उन्हें अच्छी तरह अंदाजा है कि कौन-सा राजनीतिक दल सत्ता में आने के बाद कैसी नीतियां और कानून बनाएगा। इसका उदाहरण अयोध्या विवाद से समझा जा सकता है। भाजपा ने राजनीतिक सहारे के लिए इसे आधार बनाया पर मतदाताओं ने इस मुद्दे पर भाजपा को सत्ता सौंपने से इंकार कर दिया। इतना ही नहीं, भाजपा को मतदाताओं की कसौटी पर खरा उतरने में दो दशक से ज्यादा का वक्त लग गया। 

मतदाताओं ने हर तरह परखने के बाद ही भाजपा को केंद्र में दूसरी बार सत्ता की बागडोर सौंपी है। ऐसे में यह कहना नासमझी होगी कि सरकार चुनने में गलती हुई है। ऐसा भी नहीं है कि जिन मुद्दों पर देश में विवाद चल रहा है, उनके बारे में मतदाताओं को अंदाजा नहीं रहा होगा कि सरकार उन्हें लागू करे बगैर नहीं मानेगी। इससे जाहिर है कि सरकार की नीतियों का विरोध अप्रत्यक्ष तौर पर उन करोड़ों मतदाताओं का विरोध होगा, जिन्होंने अपने भाग्य का फैसला करने के लिए बेहतर विकल्प चुना है। स्वस्थ लोकतंत्र के लिए नीतिगत मुद्दों पर विरोध संभव है पर इसका स्थान विश्वविद्यालय नहीं हो सकते। यह काम विपक्ष का है कि विरोध के मुद्दों को मतदाताओं की अदालत में ले जाए और मतदान के वक्त उन्हें ध्यान दिलाए। मतदाता ही देश की आखिरी अदालत हैं और इस अदालत के फैसले पर प्रश्रचिन्ह नहीं लगाए जा सकते।-योगेन्द्र योगी     
                 


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