सत्तारूढ़ दल ने गंभीर मुद्दों से ध्यान भटकाया

punjabkesari.in Thursday, Mar 28, 2024 - 05:10 AM (IST)

आगामी लोकसभा चुनाव ऐसे कुछ चुनावों में से एक है जिसके बारे में ज्यादातर लोगों का मानना है कि नतीजे पहले से तय हैं। बहस सिर्फ इस बात पर होती दिख रही है कि भाजपा या एन.डी.ए. गठबंधन कितनी सीटें जीतेगा। यह माहौल आंशिक रूप से भाजपा की आक्रामक प्रचार रणनीति के कारण बनाया गया है, जिसका उचित श्रेय दिया जाना चाहिए और आंशिक रूप से इसका कारण खंडित विपक्ष है और ‘इंडिया’ गठबंधन लगभग ध्वस्त हो गया है और इसमें भाजपा से मुकाबला करने की रणनीति का पूर्ण अभाव है। 

ऐसा प्रतीत होता है कि सत्तारूढ़ दल ने बढ़ती बेरोजगारी, मुद्रास्फीति, अमीर और गरीब के बीच बढ़ती खाई और विवादास्पद चुनावी बांड जैसे गंभीर मुद्दों से लोगों का ध्यान भटका दिया है, जो औद्योगिक घरानों से जबरन वसूली की सबसे बड़ी कवायद में से एक बन गया है। केंद्रीय जांच ब्यूरो, प्रवर्तन निदेशालय और आयकर विभाग जैसी एजैंसियों का इस्तेमाल और  मुख्यधारा के इलैक्ट्रॉनिक मीडिया के विशाल वर्ग को अपने में ढालना और विभिन्न संवैधानिक पदों पर कब्जा किया जा रहा है। लेकिन 80 करोड़ गरीबों को मुफ्त राशन और ऐसी योजनाओं के वितरण सहित विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं का श्रेय मोदी सरकार को भी जाता है। हालांकि यह दुखद है कि हम आजादी के बाद से अपनी आधी आबादी को गरीबी रेखा से ऊपर नहीं ला पाए हैं। 

सरकार की घोषणा के अनुसार, यह योजना अगले 5 वर्षों तक जारी रहेगी जिसका तात्पर्य यह है कि निकट भविष्य में उन्हें आत्मनिर्भर बनाने का कोई प्रयास नहीं किया गया है। अपने प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस के बैंक खातों को फ्रीज करने से पार्टी आर्थिक रूप से कमजोर हो गई है और भारी जुर्माना लगाने की योजना बना रहे आई.टी. विभाग की ताजा रिपोर्ट से पार्टी को एक और झटका लगेगा। चुनाव की घोषणा के बाद दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी, जो एक अनावश्यक कदम प्रतीत होता है, से भी आम आदमी पार्टी को झटका लगा है। 

विपक्ष में नरेंद्र मोदी जैसे करिश्माई नेता का न होना भी विपक्ष के लिए बड़ा नुकसान माना जा रहा है इसलिए इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि यह धारणा बन गई है कि भाजपा के नेतृत्व वाला एन.डी.ए. अब अजेय है। हालांकि, पार्टी इसे आसानी से नहीं ले सकती और न ही ऐसा कर रही है। अतीत में ऐसे कई उदाहरण हैं, जहां जीत के प्रति आश्वस्त पार्टियों की उम्मीदों पर पानी फिर गया है और जहां नेतृत्वहीन पार्टियों ने उन पार्टियों को पछाड़ दिया है, जिन्हें मजबूत माना जाता था। किसी को केवल 2004 के लोकसभा चुनावों पर वापस जाना होगा जब अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली तत्कालीन भाजपा सरकार ने अपने कार्यकाल से पहले लोकसभा को इस विश्वास के साथ भंग कर दिया था कि उनकी पार्टी बड़े अंतर से जीतेगी। हालांकि, ‘शाइनिंग इंडिया’ का नारा मतदाताओं को आकॢषत नहीं कर सका और पार्टी चुनाव हार गई। कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी और उसने अपने सहयोगियों के समर्थन से सरकार बनाने का दावा पेश किया। 

यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि डा. मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने, जबकि उन्होंने चुनाव भी नहीं लड़ा था और सक्रिय राजनीति से संन्यास लेने की तैयारी कर रहे थे। जाहिर है कांग्रेस ने किसी भी नेता को प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर पेश नहीं किया था। उससे पहले 1991 में, पी.वी. नरसिम्हा राव, जिन्होंने हैदराबाद में अपने बेटे के साथ रहने के लिए अपना सामान पैक कर लिया था, चुनाव के बाद प्रधानमंत्री के रूप में उभरे। जिसमें पहले चरण के चुनाव के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की दुखद हत्या हुई थी। 

वी.पी. सिंह और चंद्रशेखर उन अन्य लोगों में से थे जिन्हें कभी भी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में पेश नहीं किया गया था। हालांकि कांग्रेस ने फिर से किसी को भी अपना प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित नहीं किया है, लेकिन धारणा यह है कि अगर किसी भी संयोग से कांग्रेस सत्ता में आती है तो राहुल गांधी पहली पसंद के रूप में उभर सकते हैं। जाहिर तौर पर उनका नरेंद्र मोदी से कोई मुकाबला नहीं है। फिर भी, पिछले अनुभवों को देखते हुए, भाजपा कोई जोखिम नहीं उठा रही है और निष्पक्ष और अनुचित तरीकों से चुनाव जीतने के लिए अपने सभी संसाधन और प्रयास कर रही है।-विपिन पब्बी
    


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