चुनाव पूर्व बनते-बिगड़ते राजनीतिक रिश्ते

punjabkesari.in Thursday, Mar 28, 2024 - 05:20 AM (IST)

राजनीति में दोस्त या दुश्मन स्थायी नहीं होते, पर अक्सर ये रिश्ते चुनाव के आसपास ही बदलते हैं। लंबे समय तक परस्पर विरोधी राजनीति करने वालों को भी चुनाव से पहले या बाद में, सुविधानुसार, एक-दूसरे में वैचारिक समानता नजर आने लगती है। आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे चंद्रबाबू नायडू ने 2018 में नरेंद्र मोदी सरकार पर प्रदेश को विशेष दर्जा और पैकेज न देने का आरोप लगाते हुए राजग ने नाता तोड़ा था। 

अब 2024 के चुनाव से ठीक पहले वह राजग में लौट आए, हालांकि केंद्र से आंध्र को विशेष दर्जा और पैकेज अभी तक नहीं मिला है। दरअसल आंध्र के विधानसभा चुनाव भी लोकसभा चुनाव के साथ होते हैं। नायडू ने 2018 में राजग छोडऩे का दांव अगले साल होने वाले चुनाव में विपक्षी राजनीति में राष्ट्रीय भूमिका की उम्मीद में चला था, लेकिन मोदी की भाजपा के मुकाबले विपक्ष लगातार दूसरे लोकसभा चुनाव में भी चित हो गया। नायडू को बड़ा झटका अपने गृह राज्य में लगा। ‘बाबू’ के संबोधन से लोकप्रिय नायडू की छवि काम करने वाले मुख्यमंत्री की रही, लेकिन सत्ता संघर्ष में कांग्रेस से अलग अपनी वाई.एस.आर.सी.पी. बनाने.वाले युवा जगन मोहन रैड्डी ने उनसे आंध्र की सत्ता छीन ली। 

लोकसभा की भी 25 में से 22 सीटें वाई.एस.आर.सी.पी. जीत गई। बेटे नारा लोकेश को विरासत सौंपने को बेताब नायडू एक और चुनाव हारने का जोखिम नहीं उठाना चाहते। भाजपा भी फिर एक बार लोकसभा चुनाव में खाता तक न खुलने का खतरा मोल नहीं लेना चाहती। पिछली बार तेलुगू देशम तो तीन लोकसभा सीटें जीत गई थी, पर दोनों राष्ट्रीय दलों भाजपा और कांग्रेस का खाता नहीं खुल पाया। भाजपा को तेलुगू देशम से गठबंधन के बाद वहां राजग की सीटें बढऩे की आस है तो नायडू की उम्मीदें विधानसभा चुनाव पर टिकी हैं। इस गठबंधन में फिल्म अभिनेता पवन कल्याण की जन सेना पार्टी भी शामिल है। 

पुराने दोस्तों को मनाने की भाजपा की मुहिम दक्षिण तक सीमित नहीं है। बिहार में नीतीश कुमार का जद (यू) से फिर पाला बदल कर राजग में लौट आना तो उत्तर प्रदेश में भी जयंत चौधरी के रालौद की लंबे समय बाद वापसी हो गई। पहले इन लोगों ने एक-दूसरे के विरुद्ध क्या कुछ कहा सोशल मीडिया के इस दौर में आसानी से उपलब्ध है, पर राजनेता मानते हैं कि जब रिश्ता परस्पर फायदे का बन रहा हो तो अतीत का बंधक नहीं बने रहना चाहिए। 

अनुभव बताता है कि जनता भी ऐसी अवसरवादी उछल-कूद को ज्यादा गंभीरता से नहीं लेती। इसीलिए शिरोमणि अकाली दल की राजग में वापसी की भी कवायद चली, पर बातचीत सिरे नहीं चढ़ पाई।  भाजपा के पुराने दोस्तों में शुमार रहा अकाली दल तीन विवादास्पद कृषि कानूनों के विरोध में लंबे किसान आंदोलन के वक्त राजग छोड़ गया था, लेकिन 2022 के पंजाब विधानसभा चुनावों में दोनों दलों की दुर्गति से सबक मिल गया। पंजाब से लोकसभा के 13 सांसद चुने जाते हैं। 

अकाली दल परंपरागत सिख एवं किसान जनाधार को उससे जुड़े मुद्दों पर मुखरता के जरिए गोलबंद करना चाहता है तो भाजपा की नजर राज्य के 10 जिलों में 40 प्रतिशत से ज्यादा हिंदू आबादी पर टिकी है, जो 13 में से सात लोकसभा सीटों को प्रभावित कर सकती है बशर्ते एकमुश्त मतदान करे। इसीलिए बात बनते-बनते भी बिगड़ गई और अब दोनों दल अलग-अलग चुनाव लड़ेंगे यानी पंजाब में चतुष्कोणीय मुकाबला होगा। 

21 लोकसभा सीटों वाले ओडिशा में भी मुख्यमंत्री नवीन पटनायक के बीजद को राजग में वापस लाने की कवायद लंबी चली, पर बात नहीं बन पाई। राजनीति में आने पर नवीन भाजपा से गठबंधन में ही चुनाव लड़े। केंद्र में मंत्री रहे। गठबंधन में चुनाव लड़ कर ही वह ओडिशा के मुख्यमंत्री बने, पर बाद में राहें अलग हो गईं। फिर भी रिश्ते मित्रवत रहे। भाजपा के लिए अब यही संतोष की बात है कि नवीन विपक्षी गठबंधन में नहीं जाएंगे और संभावित मददगार बने रहेंगे, लेकिन कुल 34 लोकसभा सीटों वाले पंजाब और ओडिशा में राजग का सपना साकार न हो पाना 400 पार के नारे के लिए झटका साबित हो सकता है। उधर महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे की शिवसेना और शरद पवार की राकांपा को तोड़ कर सत्ता का समीकरण अपने पक्ष में कर चुकी भाजपा अब राज ठाकरे से हाथ मिलाने जा रही है। 

राज ठाकरे के पास भी राजनीतिक प्रासंगिकता बचाए रखने के लिए ज्यादा विकल्प नहीं हैं। हानि-लाभ तो चुनावी नतीजे ही बताएंगे, पर महाराष्ट्र में महायुति और राष्ट्रीय स्तर पर राजग में एक और घटक दल की एंट्री तय मानी जा रही है। यह आश्चर्यजनक लग सकता है कि एक ओर तो पुराने रिश्ते सुधारे जा रहे हैं, नए बनाए जा रहे हैं, तो दूसरी ओर हरियाणा में उप मुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला और उनकी पार्टी जजपा की राजग से विदाई हो गई। शायद इसके मूल में भी चुनावी हानि-लाभ का गणित हो। उधर बिहार के बाहुबली पूर्व सांसद पप्पू यादव ने अपनी जन अधिकार पार्टी का कांग्रेस में विलय कर दिया है। वैसे पप्पू यादव की पत्नी रंजीता रंजन पहले से कांग्रेस की राज्यसभा सांसद हैं। 

पर्याप्त विधायक होने के बावजूद राज्यसभा सीट हार जाने के बाद भी हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस का संकट समाप्त नहीं हो रहा। अब प्रदेश अध्यक्ष प्रतिभा सिंह ने लोकसभा चुनाव लडऩे से इन्कार कर किसी नए रिश्ते का संकेत दे दिया है। ऐसे में वीरभद्र सिंह परिवार के दबदबे वाली मंडी लोकसभा सीट पर भाजपा की कंगना के विरुद्ध दमदार उम्मीदवार खोज पाना कांग्रेस के लिए आसान नहीं होगा। 6 बागी विधायकों को उप-चुनाव में भाजपा द्वारा टिकट दे दिए जाने से वहां भी कांग्रेस को नए दमदार उम्मीदवार तलाशने होंगे।-राज कुमार सिंह
 


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