राजनीति और अपराध का रिश्ता कमजोर होना चाहिए

punjabkesari.in Saturday, Jul 09, 2022 - 06:31 AM (IST)

महाराष्ट्र में सत्ता के फैसले के बाद सीजन टू में शिवसेना पार्टी के उत्तराधिकार का निर्धारण चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट से होगा। दो-तिहाई विधायकों को मान्यता मिलने के साथ दल-बदल कानून के तहत उन्हें अन्य पार्टी के साथ विलय करना जरूरी होना चाहिए। लेकिन शिंदे ने खुद को असली शिवसेना का वारिस बनाकर इस संवैधानिक अड़चन से मुक्ति पा ली। फिर भी दूसरे दल में विलय या अलग मान्यता के सवालों के बहाने पार्टियों में लोकतंत्र की बदहाली और मिस मैनेजमैंट पर गौर करना जरूरी है। 

चुनाव आयोग की अनेक रिपोर्टों पर गौर करें तो ऐसा लगता है कि हजारों रजिस्टर्ड पार्टियां, हवाला, मनी लांड्रिंग, चुनावी हेर-फेर और अन्य आपराधिक कार्यों में लिप्त होकर लोकतंत्र को खोखला कर रही हैं। गैर-मान्यता प्राप्त रजिस्टर्ड दलों की संख्या सन् 2001 में 694 से 20 सालों में 300 फीसदी बढ़कर 2796 हो गई है। इनमें से सिर्फ 623 दलों ने 2019 के चुनावों में भाग लिया। चुनाव आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार 2019-20 में 2351 दलों ने आमदनी का ब्यौरा नहीं दिया। 

फिर भी ऐसे दलों को मिले चंदे पर सरकारी खजाने से टैक्स की छूट जारी रही। कई पार्टियां अपने रजिस्टर्ड पते पर मौजूद नहीं हैं, यानी बेनामी हैं। चुनाव आयोग ने पिछले कुछ महीनों में लगभग 200 बेनामी पार्टियों की मान्यता खारिज कर दी। तीन पार्टियों के खिलाफ गंभीर वित्तीय घोटालों के प्रमाण मिलने के बाद उनके खिलाफ कार्रवाई के लिए चुनाव आयोग ने वित्त मंत्रालय को पत्र लिखने के बावजूद, पार्टियों के नैक्सस पर ठोस प्रहार नहीं हो रहा है। 

पार्टियों को रैगुलेट करने में विफल चुनाव आयोग : भारत की संवैधानिक व्यवस्था की ड्राइविंग सीट पर क्षेत्रीय और राष्ट्रीय पार्टियों ने कब्जा कर लिया है। इन दलों का रजिस्ट्रेशन और उन्हें चुनाव चिन्ह का आबंटन चुनाव आयोग करता है., लेकिन उसके बाद पार्टि की कार्यप्रणाली और कानूनी जवाबदेही के लिए भारत में अभी तक कोई रैगुलेटरी सिस्टम नहीं बना। इसकी वजह से सभी पार्टियां वंशवाद, परिवारवाद, भ्रष्टाचार, संगठन में लोकतांत्रिक चुनाव नहीं होने और हाईकमान जैसे मर्ज से पीड़ित हैं। यह भारतीय लोकतंत्र के लिए बड़ा अभिशाप है।

पार्टियों के खिलाफ ठोस कार्रवाई का अधिकार हासिल करने के लिए आयोग ने सरकार से नया कानून बनाने की मांग की है। संविधान और कानून के अनुसार दलों के पंजीकरण का अधिकार रखने वाले चुनाव आयोग के पास पार्टियों को रैगुलेट करने और उनके खिलाफ कार्रवाई करने का पूर्ण अधिकार है। इस जवाबदेही से बचकर चुनाव आयोग द्वारा संवैधानिक प्रावधानों पर गोलमोल बहस लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए ठीक नहीं है।

पार्टियों में वंशवाद, परिवारवाद और हाईकमान का भयानक मर्ज : पंजाब में अकाली दल और उत्तर प्रदेश में बसपा जैसी अनेक वंशवादी और परिवारवादी पार्टियों को जनता ने नकार दिया। लेकिन हाईकमान के मर्ज से तो कोई भी पार्टी मुक्त नहीं है। विधायक और सांसद जनता के प्रतिनिधि माने जाते हैं जिसके पिरामिड में मंत्री और मुख्यमंत्री शामिल होते हैं। लेकिन हाईकमान के बढ़ते चलन से संविधान में की गई लोकशाही की व्यवस्था पूरी तरह से विफल हो रही है। 

सोशल मीडिया के माध्यम से जिस तरीके से महाराष्ट्र में फडऩवीस को उपमुख्यमंत्री बनने के निर्देश दिए गए उससे हाईकमान का सिस्टम औपचारिक तौर पर पुष्ट हो गया है. इसी तरीके से कई क्रांतिकारी लीडर अपनी पार्टी को प्रोपराईटरशिप में बदलकर लोकतंत्र को खोखला कर रहे हैं। दिल्ली से दूर इसकी एक बानगी आंध्र प्रदेश में देखी जा सकती है जहां जगन मोहन रेड्डी मुख्यमंत्री होने के साथ पार्टी अध्यक्ष भी हैं। उन्हें वाई.एस.आर. कांग्रेस पार्टी का आजीवन अध्यक्ष बनाने के लिए पार्टी के संविधान में संशोधन करने की मुहिम चल रही है। तमिलनाडु में भी जयललिता की ए.आई.डी.एम. के पर कब्जे के लिए कई गुटों में जंग चल रही है। देश की सभी क्षेत्रीय पार्टियां परिवारवाद और एकाधिकारवाद के मर्ज का शिकार हैं, जबकि राष्ट्रीय पार्टियों में हाईकमान के डंडे का खौफ है। 

प्रवक्ता और सदस्यों के लिए पार्टियां जवाबदेही क्यों नहीं लेतीं : पश्चिम बंगाल में टी.एम.सी. की सांसद महुआ मोइत्रा के विवादास्पद बयानों से ममता बनर्जी ने दूरी बना ली। कांग्रेस के सांसद शशि थरूर पहले से बचाव करते हुए अपने बयानों को पार्टी की बजाय निजी स्टेटमैंट बता रहे हैं। भाजपा ने नूपुर शर्मा और नवीन कुमार के खिलाफ कार्रवाई करने के बाद अब हरियाणा आई.टी. सैल के संयोजक को पार्टी से निकाल दिया है। कानून के अनुसार किसी भी कर्मचारी या स्टॉफ के कामों के लिए कंपनी या नियोक्ता की जिम्मेदारी होती है तो फिर अधिकृत प्रवक्ताओं के बयानों की कानूनी जवाबदेही से पार्टियां कैसे बच सकती हैं? 

विश्व की सबसे बड़ी पार्टी का दावा करने वाली भाजपा की सदस्यता का दावा करने वाले कुछ लोग जम्मू-कश्मीर और राजस्थान में आतंकी गतिविधियों में पकड़े गए हैं। पश्चिम बंगाल और केरल जैसे राज्यों में ङ्क्षहसा की घटनाओं को राजनीतिक रूप दे दिया जाता है लेकिन पार्टियों के सदस्य जब आपराधिक मामलों में लिप्त पाए जाते हैं तो फिर जवाबदेही लेने की बजाय भाजपा, कांग्रेस समेत सभी पार्टियां अपने ही लोगों से किनारा काट जाती हैं। 

पार्टियों के पदाधिकारी बनकर लाखों लोग पुलिस और प्रशासन पर गैर-कानूनी दबदबा बनाते हैं। उनमें से कई लोग दलाल और आपराधिक पृष्ठभूमि के होते हैं। पार्टियां किसी भी व्यक्ति को सदस्य बनाने से पहले उनका वैरीफिकेशन करने के साथ उनका विवरण वैबसाइट में उपलब्ध कराएं तो राजनीति और अपराध का रिश्ता कमजोर होगा।-विराग गुप्ता(एडवोकेट, सुप्रीम कोर्ट)


सबसे ज्यादा पढ़े गए

Recommended News

Related News