टैक्नोलोजी की कमी आधुनिक युद्ध में जानलेवा सिद्ध होगी

punjabkesari.in Monday, Feb 19, 2018 - 04:04 AM (IST)

दो देशों के बीच सबसे अंतिम बड़ी लड़ाई 15 वर्ष पूर्व लड़ी गई थी। 2003 में एकतरफा युद्ध में जार्ज डब्ल्यू. बुश ने सद्दाम हुसैन को परास्त कर दिया था। इस लड़ाई से मेरा तात्पर्य ईराक पर प्रारंभिक हमले से है न कि उसके इलाके पर कब्जे से। 

ईराकियों को कई वर्षों से आधुनिक सैन्य साजो-सामान नहीं मिल रहा था और उनके कालबाह्य हो चुके टैंक और लड़ाकू जैट अमरीकी सैन्य शक्ति से मुकाबला करने के काबिल नहीं थे। बेशक दोनों पक्ष जब युद्ध में उतरे तो उनके सैनिकों की संख्या लगभग बराबर थी। यानी कि हरेक के पास 3 लाख 50 हजार सैनिक थे लेकिन युद्ध में अमरीकियों का जानी नुक्सान ईराकियों के मुकाबले केवल 10वां हिस्सा हुआ था, क्योंकि उनके पास बहुत उम्दा हथियार थे। 

टैंक, जलपोत, युद्धक विमान जैसे सैन्य साजो-सामान को खरीदने  के लिए सभी देश बहुत अधिक पैसा खर्च करते हैं। उदाहरण के तौर पर भारत के रक्षा बजट में 1 लाख करोड़ रुपया केवल भारी सैन्य साजो-सामान खरीदने के लिए रखा गया है। सैन्य रणनीति के अधिकतर विशेषज्ञों को यह स्पष्ट हो चुका है कि यह ऐसा सामान है जो शायद ही गणतंत्र दिवस परेड के सिवाय अन्य किसी काम के लिए प्रयुक्त किया जाए। किन्हीं भी दो बड़े राष्ट्रों के बीच अगला आधुनिक युद्ध 2003 में हुए ईराक-अमरीका युद्ध से उतना ही अलग तरह का होगा जितना ईराक-अमरीका युद्ध 1757 के प्लासी युद्ध से भिन्न था। इस भिन्नता को समझने के लिए हमें खुद से यह सवाल पूछना होगा कि वास्तव में युद्ध कैसा होता है? दो देशों के बीच युद्ध तब होता है जब एक को यह स्पष्ट हो जाता है कि वह शक्ति प्रयुक्त करके दूसरे देश को अपनी मर्जी के मुताबिक चला सकता है। 

वैसे दूसरे देश से अपनी मर्जी के मुताबिक कोई काम बिना किसी प्रकार की हिंसा प्रयुक्त किए भी करवाया जा सकता है। अमरीकी गुप्तचर एजैंसियों ने कहा है कि रूस ने 2016 में अमरीकी राष्ट्रपति चुनावों में दखल दिया था। व्लादीमिर पुतिन चाहते थे कि हिलेरी क्लिंटन पराजित हो जाएं और डोनाल्ड ट्रम्प विजयी हों। ऐसे आरोप भी लगाए जा रहे हैं कि इस दखलअंदाजी में शायद ट्रम्प ने रूसियों के साथ सांठ-गांठ की थी। इसकी जांच-पड़ताल की जा रही है लेकिन एक बात के बारे में कोई संदेह नहीं कि पुतिन और उनके जासूसों ने अमरीकी चुनाव में हस्तक्षेप किया था और शायद बहुत निर्णायक ढंग से इसको प्रभावित भी किया था। 

शुक्रवार, 16 फरवरी को ट्रम्प के न्याय विभाग ने 13 रूसियों पर आरोप लगाया कि उनमें से अधिकतर उस गुट से संबंधित हैं जिसे रूस के सेंट पीटर्सबर्ग शहर में ‘इंटरनैट रिसर्च एजैंसी’ का नाम दिया जाता है। उन्होंने एक वर्चुअल प्राइवेट नैटवर्क (वी.पी.एन.) पर सोशल मीडिया अकाऊंट स्थापित किए जिससे ऐसा आभास हो कि यह अकाऊंट अमरीका से परिचालित किए जा रहे हैं जबकि वास्तव में उनका कार्यान्वयन रूस में ही हो रहा था। अमरीकियों का मानना है कि इन सोशल मीडिया अकाऊंटों पर पुतिन ने दो करोड़ के लगभग रुपया खर्च किया था और इतने कम खर्च से ही अमरीकी  राष्ट्रपति चुनावों का पलड़ा ट्रम्प के पक्ष में झुक गया था। आखिर रूस  ट्रम्प को क्यों चाहता था?

वह ऐसा इसलिए चाहता था क्योंकि वह जानता था कि यदि हिलेरी राष्ट्रपति बन गईं तो वह दुनिया में रूसी प्रभाव को सीमित करने के लिए प्रतिबंधों तथा अन्य उपायों का प्रयोग कर सकती हैं। अमरीका के विरुद्ध युद्ध की घोषणा किए बिना भी पुतिन जो चाहते थे वह उन्होंने हासिल कर लिया। मैं ये बातें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघ चालक मोहन भागवत  द्वारा युद्ध के बारे में की गई बातों के संदर्भ में लिख रहा हूं। भागवत ने कहा कि आर.एस.एस. केवल 3 दिनों में अपने कार्यकत्र्ताओं को युद्ध के लिए तैयार करके उन्हें मोर्चे पर भेज सकती है जबकि भारतीय सेना को ऐसी तैयारी के लिए 6 माह का समय लगता है। 

इस बयान को सेना विरोधी मान कर इस पर हल्ला बोला गया लेकिन मैं इस दिशा में नहीं जा रहा हूं। मेरी चिंता तो यह है कि मोहन भागवत क्या सोचते हैं कि उनके स्वयंसेवक सीमा पर पहुंच कर क्या जलवा दिखाएंगे? वह जो भी सोचते हैं उसके पीछे शायद 1962 के चीनी हमले से संबंधित कुछ दस्तावेजी फिल्में ही होंगी जिनमें यह दिखाया जाता है कि किस प्रकार चीनी सैनिक हाथों में राइफलें पकड़े हुए पहाड़ों से नीचे भागे चले आते हैं। यदि भागवत के दृष्टिकोण का यही आधार है तो कल्पना कीजिए कि संघ के स्वयंसेवक सीमा पर जो भी वीरता दिखाएंगे क्या उससे भारत माता की रक्षा हो सकेगी? 

संघ की शाखाओं में नियमित रूप में कार्यकत्र्ता कुछ ड्रिल, व्यायाम और खेलकूद करते हैं और देशभक्ति के गीत गाते हैं। आज की तो बात ही छोडि़ए, 100 वर्ष पूर्व लड़े गए युद्धों में भी इस प्रकार का प्रशिक्षण किसी तरह लाभकारी सिद्ध नहीं होता था। आधुनिक सेनाओं को जो ड्रिल ट्रेङ्क्षनग दी जाती है वह लगभग 400 वर्ष पुरानी है और इसे यह रूप ग्रहण करने में कई सदियां लगी हैं। 2018 में गाइडिड मिसाइलों के युग में ऐसी बातें पूरी तरह बेकार हैं। एक आधुनिक राष्ट्र के विरुद्ध युद्ध में अब हम वालंटियरों की कमी के कारण कमजोर सिद्ध नहीं होंगे बल्कि सैन्य साजो-सामान यानी कि टैंकों और विमानों की कमी के कारण हमारी स्थिति नाजुक होगी। यह टैक्नोलॉजी की कमी का नतीजा होगी जोकि पूरी तरह जानलेवा सिद्ध होगा। 

विकसित देश अपने दुश्मन देश  की संचार प्रणाली को नकारा करने पर ध्यान केन्द्रित करेगा। आज की दुनिया में इंटरनैट को बंद करने से ही कोई देश बिल्कुल उसी तरह धराशायी हो जाएगा जैसे 2003 में ईराक हुआ था। ऐसे देश की बैंकिंग प्रणाली ध्वस्त हो जाएगी और राष्ट्र घुटने टेक देगा। आंतरिक संचार इतना गड़बड़ा जाएगा कि लोगों में अफरा-तफरी और घबराहट फैल जाएगी। बेशक ऐसा हमला पूरी तरह सैन्य दृष्टि से ही किया जाएगा लेकिन केवल संचार व्यवस्था पर हल्ला बोलने से ही किसी देश के दांत खट्टे हो जाएंगे। 

उदाहरण के तौर पर ग्लोबल पोजीशनिंग प्रणालियों पर निर्भरता यदि बेकार की चीज न भी हो तो भी इनसे किसी देश की सैन्य शक्ति कमजोर अवश्य ही हो जाएगी क्योंकि विमानों और मिसाइलों में लगने वाली यह टैक्नोलॉजी पूरी तरह अमरीकी नियंत्रण में है। बेशक करोड़ों लोग शहीद होने के लिए तैयार हो जाएं तो भी इससे कोई अधिक सहायता नहीं मिलेगी। विकसित दुश्मन किसी भी कम विकसित देश को बिना कोई खास हिंसा प्रयुक्त किए केवल टैक्नोलॉजी के बूते ही मजबूर कर सकता है। आधुनिक दौर में युद्ध का दस्तूर यही है और यदि यह हकीकत कुछ लोगों की समझ में नहीं आ रही है तो ऐसा जानकारियों की कमी के कारण नहीं बल्कि अज्ञानता के कारण है। 

मैंने सोचा कि मुझे इस बारे में लिखना चाहिए क्योंकि आर.एस.एस. अपने द्वारा तैयार किए जाने वाले स्वयंसेवकों के दिमाग में इसी तरह की जानकारियां ठूंसता है। हमारे प्रधानमंत्री भी इन्हीं स्वयंसेवकों में से एक हैं। आर.एस.एस. का दृष्टिकोण बहुत सरल और पुराने जमाने का है। बेशक इसमें राष्ट्रभक्ति की ज्वाला धधकती हो और इन स्वयंसेवकों की मंशा भी नेक क्यों न हो, तो भी ऐसे लड़ाकों की और उनकी मानसिकता की गुणवत्ता देख कर मैं डरा हुआ महसूस करता हूं।-आकार पटेल


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