कम वोटिंग और ‘नोटा’ को मान्यता की मांग

punjabkesari.in Tuesday, Apr 30, 2024 - 05:28 AM (IST)

दो चरणों के शुरुआती दौर में कम मतदान से ‘कहीं खुशी कहीं गम’ का माहौल है। कम हो रहे मतदान का मर्ज दरअसल कुत्सित राजनीति और अवसरवादी नेताओं के प्रति जनता का अविश्वास प्रस्ताव है। जनता के गुस्से, क्षोभ और अरुचि को समझने की बजाय, चुनाव आयोग पानी में लाठी मारकर समाधान का प्रयास कर रहा है। उत्तर प्रदेश के कई कस्बों में जागरूकता बढ़ाने के नाम पर चुनाव आयोग वाहनों के काफिले से रोड शो कर रहा है। ऐसे भद्दे रोड शो में बढ़ रहे ट्रैफिक जाम, प्रदूषण और लाऊड स्पीकर के ध्वनि प्रदूषण से चुनावों के प्रति लोगों की रही-सही रुचि भी कम हो रही है।

वोट नहीं देने का कानूनी हक: संविधान के तहत 18 साल से बड़ी उम्र के भारतीय नागरिकों का नाम वोटर लिस्ट में होना चाहिए लेकिन अनिवार्य वोटिंग के बारे में फिलहाल कोई कानून नहीं है। साल 1961 में बनाए गए चुनावी नियम 49-ओ में वोट नहीं डालने के अधिकार का इस्तेमाल करने की प्रक्रिया निर्धारित है। सुप्रीम कोर्ट ने 1993 में लिली थॉमस मामले में कहा था कि लोगों को वोट नहीं देने का भी अधिकार है। ई.वी.एम. से वोटिंग शुरू होने के बाद साल 2013 में सुप्रीमकोर्ट के फैसले से लोगों को नोटा का विकल्प भी हासिल हो गया। वह फैसला पी.यू.सी.एल. मामले में चीफ  जस्टिस पी. सदाशिवम, रंजना देसाई और रंजन गोगोई की बैंच ने दिया था।  ई.वी.एम. से नोटा का विकल्प चुनने पर मतदाता की गोपनीयता सुरक्षित रहती है जो पुराने नियमों में सम्भव नहीं था। सभी उम्मीदवारों को असंतोषजनक मानने की स्थिति में वोटर नोटा का बटन दबाकर उन्हें अस्वीकार कर सकता है।

साल 2019 में बिहार के गोपालगंज में 51,660 लोगों ने नोटा का बटन दबाया था। पिछले 5 सालों में लगभग 1.29 करोड़ लोगों ने नोटा का बटन दबाया है। मौजूदा कानून के अनुसार नोटा को सबसे ज्यादा वोट मिलें तो भी चुनाव परिणाम में फर्क नहीं पड़ता। सुप्रीमकोर्ट के फैसले अनुसार नोटा के बाद चुनावों में बेहतर उम्मीदवार के चयन से लोकतंत्र मजबूत होगा लेकिन पक्ष और विपक्ष के नेताओं के भाषणों और आरोपों से साफ  है कि दलों के दलदल में चुनावी व्यवस्था का कैंसर बढ़ता जा रहा है। पैसे और शराब के दम पर रैलियों और रोड शो में भीड़ के प्रचलन में कोई कमी नहीं आ रही। सत्ता हासिल करने के लिए सभी तरह के सब्जबाग दिखाए जा रहे हैं लेकिन सरकारों की खाली तिजोरी की हकीकत सामने नहीं आ रही।

इन चुनावों में एक लाख करोड़ रुपए से ज्यादा खर्च होने की उम्मीद है जिसमें से अधिकांश भ्रष्टाचार से अर्जित काला धन है। इसके खर्चे का पार्टियों और चुनाव आयोग के पास कोई हिसाब-किताब नहीं है। चुनावी भाषणों में लगाए जा रहे सभी आरोपों पर कानूनी तौर पर संज्ञान लिया जाए तो सभी दलों के नेताओं के खिलाफ लाखों एफ.आई.आर. दर्ज होनी चाहिएं। चुनावी नतीजों के बाद भ्रष्ट और दल-बदलू नेताओं से बनी किसी भी सरकार से लोगों को बदलाव और सुशासन की उम्मीद नहीं है। इसकी वजह से पोङ्क्षलग बूथ जाने में लोगों की दिलचस्पी कम हो रही है।

नोटा को काल्पनिक उम्मीदवार की मान्यता : सुप्रीमकोर्ट ने ई.वी.एम. और वी.वी.पैट की वैधता पर फिर से मोहर लगाई है। उसी दिन चीफ  जस्टिस चन्द्रचूड़ की दूसरी बैंच ने नोटा को प्रत्याशी मानने वाली याचिका पर केंद्र सरकार और चुनाव आयोग से जवाब मांगा है। इस याचिका में नोटा को काल्पनिक उम्मीदवार का दर्जा देने की मांग की गई है। सूरत में कांग्रेस प्रत्याशी का पर्चा रद्द होने और निर्दलीय उम्मीदवारों की नाम वापसी के बाद भाजपा उम्मीदवार निॢवरोध निर्वाचित हो गए हैं। इसके पहले सपा नेता डिम्पल यादव, कांग्रेस नेता वाई.वी. चह्वाण, फारूक अब्दुल्ला समेत कई दलों के 35 नेता निॢवरोध जीत चुके हैं।

अरुणाचल प्रदेश में तो भाजपा के 10 विधायक निॢवरोध जीत गए थे। सिर्फ एक प्रत्याशी के रहने पर निॢवरोध निर्वाचन के लिए आर.पी. एक्ट की धारा-53 (3) में प्रावधान है। इस बारे में चुनाव आयोग ने चुनाव अधिकारियों के लिए अगस्त, 2023 में जारी हैंडबुक में विस्तार से प्रावधान किए हैं। सुप्रीमकोर्ट में दायर याचिका के अनुसार निॢवरोध जीतने से लोगों के वोट डालने के अधिकार का हनन होता है।

याचिकाकर्ता शिव खेड़ा के अनुसार महाराष्ट्र, हरियाणा, दिल्ली और पुड्डुचेरी में राज्य निर्वाचन आयोग के बनाए गए नियमों के अनुसार नोटा को सर्वाधिक वोट मिलने पर पुनर्मतदान होना चाहिए। इसलिए इस तरह की व्यवस्था विधानसभा और लोकसभा के चुनावों में पूरे देश में होनी चाहिए। नोटा की व्यवस्था सुप्रीमकोर्ट के फैसले से लागू हुई थी और इसके लिए संविधान में कोई संशोधन नहीं किया गया। राज्यसभा चुनावों में नोटा की व्यवस्था लागू करने के लिए चुनाव आयोग ने जनवरी, 2014 और नवम्बर 2015 में आदेश जारी किए थे, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद-80 (4) और आर.पी. एक्ट की व्याख्या करते हुए चुनाव आयोग की अधिसूचना को रद्द कर दिया। उस फैसले में व्हिप को भी नए सिरे से मान्यता मिलने की वजह से पार्टियों के विधायकों का दर्जा बंधुआ से भी बदतर हो गया।

नोटा को व्यावहारिक मान्यता देने में कई कानूनी बाधाएं हैं। न्यूनतम वोटिंग के लिए भारत में कोई कानून नहीं है। साल 2018 में स्थानीय निकाय चुनावों में श्रीनगर में 2.3 प्रतिशत से कम लोगों ने वोट दिया था। उसके बाद मई, 2019 के लोकसभा चुनावों में शोपियां और पुलवामा में 2.81 से 10.3 प्रतिशत वोट ही डाले गए थे। चपरासी की नौकरी के लिए न्यूनतम शिक्षा और नर्सरी के विद्यार्थी को पास होने के लिए न्यूनतम 33 प्रतिशत नम्बरों का नियम है लेकिन नेताओं के लिए शिक्षा और चुनावों में न्यूनतम वोट हासिल करने के लिए कोई नियम नहीं है।

याचिकाकर्ता ने  नियमों में बदलाव करने के लिए सुप्रीमकोर्ट से मांग की है लेकिन संसद में आर.पी. एक्ट कानून में संशोधन के बगैर नोटा को प्रत्याशी का दर्जा मिलना मुश्किल है। राजनीति के अपराधीकरण को रोकने और जनता के आक्रोश को व्यक्त करने के लिए नोटा का प्रावधान किया गया था। इसलिए नोटा में डाले गए वोट यदि हार-जीत के अंतर से ज्यादा हों तो चुनाव रद्द होना ही चाहिए। नोटा को सार्थक मान्यता के बाद ही ‘राइट टू रिजैक्ट’ और ‘राइट टू रिकॉल’ के अधिकारों के कानून पर बात आगे बढ़ेगी। इन चुनावी सुधारों और कानूनों से नेताओं की जवाबदेही बढऩे के साथ लोगों का चुनावों के प्रति रुझान भी बढ़ेगा। -विराग गुप्ता (एडवोकेट, सुप्रीम कोर्ट)


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