मोदी सरकार से पिछले पांच सालों में हुईं कुछ गलतियां

punjabkesari.in Thursday, May 02, 2019 - 04:17 AM (IST)

एक महीने के भीतर नई सरकार का गठन हो जाएगा। इस बात की ज्यादा संभावना जताई जा रही है कि नरेन्द्र मोदी नीत सरकार बनेगी लेकिन अन्य संभावनाओं से भी इंकार नहीं किया जा सकता। हालांकि इस समय पूरी टीम मोदी नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एन.डी.ए.) के लिए दूसरी बार चुनाव जीतने हेतु डटी हुई है। ऐसी उम्मीद है कि बड़ी योजना पर भी काम हो रहा है। यह निराशाजनक है कि मोदी ने अपने कार्यकाल का पहला हिस्सा  ऐसे कामों (राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग इत्यादि) में गंवा दिया जिनसे कुछ खास हासिल नहीं हो पाया और दूसरा हिस्सा जी.एस.टी. तथा इन्सॉल्वैंसी एंड बैंकरप्सी कोड (आई. बी.सी.) जैसे सुधारों में लगा दिया।  

एक तरफ 23 मई के बाद किए जाने वाले कार्यों की प्राथमिकता सूची बनाने की जरूरत है, वहीं पिछले 5 सालों में हुई गलतियों से भी कुछ सबक सीखे जा सकते हैं। पहला, एक साथ बहुत सारे कामों में हाथ डालने से परहेज करना चाहिए। मोदी के कार्यकाल के पहले भाग में ऐसा कोई महीना या तिमाही नहीं थी जिसमें कोई न कोई नई योजना लांच न की गई हो। जन-धन योजना से लेकर स्वच्छ भारत, स्टार्टअप इंडिया, स्टैंड अप इंडिया, मुद्रा, स्मार्ट सिटी, डिजीटल इंडिया, उज्ज्वला, प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना तथा  अंतरिम बजट में प्रधानमंत्री किसान सम्मान सहित कई तरह की योजनाएं शुरू की गईं। इन योजनाओं की आलोचनाएं करने की कोई जरूरत नहीं है लेकिन क्या किसी एक प्रशासन के लिए इनमें से एक भी योजना की पांच वर्ष के भीतर सफलतापूर्वक पूरा होने की देखरेख करना संभव है। कागज पर प्राप्त की गई उपलब्धियों और मतदाता द्वारा इन उपलब्धियों की पुष्टि के बीच का अंतर महत्वपूर्ण है। 

क्या अच्छे दिन का सपना पूरा हुआ
दूसरे, अच्छे दिन का असर बताने पर ध्यान केन्द्रित न करना। अच्छे दिन  तीन मामलों में दिखने चाहिएं थे : खुशहाल किसानी, अधिक नौकरियां और मध्यम वर्ग के लिए अधिक आय तथा गरीबी में स्पष्ट कमी। इनमें से आखिरी उपलब्धि शायद पूरी होने के करीब है लेकिन अन्य दो मामलों में सफलता आसानी से नजर नहीं आती। कृषि अर्थव्यवस्था की स्थिति ठीक नहीं है और रोजगार सृजन-विशेष तौर पर अच्छे वेतन के साथ रोजगार अनिश्चित दिखाई पड़ता है। सरकार का आॢथक रिपोर्ट कार्ड मैक्रो स्तर पर काफी अच्छा है-मुद्रास्फीति इकाई  में है तथा वित्तीय घाटे को नियंत्रण में रखा गया है। इसके अलावा आधारभूत ढांचे में काफी सार्वजनिक निवेश हुआ है लेकिन इनमें से दो अच्छे दिन में योगदान नहीं देतीं। आम आदमी को वित्तीय घाटे से कोई लेना-देना नहीं है और मुद्रास्फीति तभी मायने रखती है जब वह नियंत्रण से बाहर हो जाती है। 

तीसरे, बैंकिंग क्षेत्र में संकट से समय रहते न निपटना। हर कोई जानता था कि 2014 से ही बैंक बैड लोन में फंसे हुए थे लेकिन यह कोई नहीं जानता था कि इसकी जड़ें कितनी गहरी हो चुकी हैं, नई सरकार इस बात को नहीं जान सकी कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक अपने बैड लोन्स को छुपा रहे हैं और जब तक बैंकों में दोबारा पूंजी डालने की जरूरत को समझा गया तथा आई.बी.सी. कानून बनाया गया तब तक काफी देर हो चुकी थी और बैंक काफी संकट में फंस चुके थे। इन चुनौतियों से समय रहते नहीं निपटा गया। स्पष्ट तौर पर सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के बारे में  मोदी की धारणा गलत साबित हुई और इससे और समस्याएं पैदा हो गईं। 

चौथे, काले धन और भ्रष्टाचार को लेकर वे इतने उत्साहित थे कि  इसके दुष्प्रभावों का अंदाजा नहीं लगा सके। यू.पी.ए.के कार्यकाल में हुए घोटालों से सबक लेते हुए शुरू से ही सरकार का ध्यान काले धन और भ्रष्टाचार पर था। अन्य बातों के अलावा मोदी सरकार को कोयला और स्पैक्ट्रम की नीलामी से काफी राजस्व मिला। सरकार द्वारा काला धन धारकों के लिए माफी की दो योजनाएं घोषित की गईं जिनमें से एक घरेलू लोगों के लिए और दूसरी विदेशों के लिए थी। इसके बाद सरकार ने अर्थव्यवस्था को औपचारिक बनाने के लिए जी.एस.टी. शुरू किया। इसके अलावा साइप्रस, मॉरीशस और सिंगापुर के माध्यम से आने वाले निवेश को मिलने वाली कर रियायतों को बंद कर दिया गया। इससे कार्पोरेट घरानों को धन की कमी हो गई। इन उपायों से आर्थिक पुनस्र्थापन में दिक्कत पेश आई। 

राजनीतिक-आर्थिक सलाहकार परिषद की कमी
राजनीतिक-आॢथक सलाहकार परिषद की कमी भी इस सरकार की एक खामी रही। सरकार के लिए मुख्य आर्थिक सलाहकार की नियुक्ति अथवा प्रधानमंत्री के लिए एक आॢथक सलाहकार परिषद (ई.ए.सी.) एक परम्परा रही है लेकिन मोदी ने ई.ए.सी. का गठन तभी किया जब आर्थिक स्थिति बेहद खराब हो गई और यह भी निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता कि ई.ए.सी. के गठन से कोई फर्क पड़ा। वास्तव में मोदी को एक राजनीतिक-आर्थिक सलाहकार की जरूरत है न कि केवल आॢथक सलाहकार की। इस तरह के सलाहकार अथवा परिषद का उद्देश्य ऐसी आर्थिक सलाह देना है जो आर्थिक तौर पर अच्छी होने के साथ-साथ राजनीतिक तौर पर भी लाभकारी हो। कोई भी सरकार ऐसा आर्थिक कदम नहीं उठाना चाहेगी जो आर्थिक तौर पर समस्या में डाले। 

वित्त मंत्री मुख्य आॢथक सलाहकार से काम चला सकते हैं लेकिन प्रधानमंत्री के पास राजनीतिक-आर्थिक सलाहकार परिषद अवश्य होनी चाहिए जो इस तरह की सलाह दे जिससे आॢथक और राजनीतिक दोनों तरह का लाभ मिल सके। अर्थशास्त्रियों को यह बात खराब लग सकती है लेकिन राजनीतिक अर्थव्यवस्था में अर्थशास्त्री उत्तरदायी नहीं होते जबकि प्रधानमंत्री जनता के प्रति उत्तरदायी होता है और उस समय तो और भी ज्यादा, जब हर वर्ष उसे चुनावों का सामना करना पड़ता है। यदि मोदी के पास इस तरह की राजनीतिक-आॢथक सलाहकार परिषद  होती तो संभवत: वह कुछ गलत कदम उठाने से बच सकते थे।-आर. जगन्नाथ


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