राहुल भूल गए कि उनकी कर्मभूमि अमरीका नहीं भारत हैै

punjabkesari.in Wednesday, Sep 18, 2024 - 05:15 AM (IST)

भारत जोड़ो और न्याय यात्रा जैसे नामों से निकाली लंबी यात्राओं और फिर ‘इंडिया’ गठबंधन (आधा-अधूरा ही सही) बनाकर नरेंद्र मोदी और भाजपा को गंभीर चुनौती देने के बाद से राहुल गांधी का सितारा निरंतर बुलंदी की तरफ गया है। लोकसभा चुनाव के परिणाम में कांग्रेस और ‘इंडिया’ गठबंधन को जितनी जीत नहीं मिली, उससे ज्यादा बड़ा राजनीतिक संदेश नरेंद्र मोदी का कद घटने से गया। लेकिन जब नरेंद्र मोदी अपने विदेशी दौरों के सहारे अपनी खोई इमेज को सहारा देने की कोशिश कर रहे थे और उनकी सरकार अपने पहले 100 दिन के कामकाज का शोर मचाने की तैयारी कर रही थी, विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने अपने विदेशी दौर, खासकर अमरीका के दौरे से जो संदेश दिया, वह उनकी और कांग्रेस की आगे बढऩे के रफ्तार को कम कर दे तो हैरानी नहीं होगी। 

राहुल ने अमरीका में कई ऐसी बातें कहीं, जिनका असली मंच भारत है। और भारत सिर्फ कहने या दावा करने का मंच नहीं है, विपक्ष के नेता के लिए कर्मभूमि भी है। अगर उनको गंभीरता से लगता है कि लोकसभा चुनाव में धांधली हुई थी, तो इस सवाल को अमरीका की जगह भारत में और चुनाव के समय या उसके ठीक बाद उठाना था और फिर इसके पक्ष में राजनीतिक और कानूनी लड़ाई भी लडऩी थी। फिर उन्होंने अल्पसंख्यकों की तकलीफ का सवाल भी अमरीका में उठाया। कांग्रेस लगातार और बिना डगमगाए मुसलमानों का या धर्मनिरपेक्षता का सवाल उठाती रही है और इस बात को मुसलमान स्वीकारते हैं। 

राहुल और उनकी कांग्रेस ने मुसलमानों को जुबानी समर्थन दिया लेकिन सी.ए.ए. विरोधी मजबूत और अहिंसक आंदोलन को भी अपना शक्ति भर समर्थन देने का काम कांग्रेस ने नहीं किया। उलटे खुद राहुल साफ्ट हिन्दुत्व की राजनीति करते दिखे। उनको यह भी याद नहीं रहा कि गांधी और कांग्रेस के ज्यादातर हिंदू नेताओं ने अपने हिन्दुत्व को चलाते हुए किस तरह धर्मनिरपेक्षता और सर्वधर्म समभाव की राजनीति को आगे बढ़ाया। पर अमरीका जाकर उन्होंने जो सबसे अजीबो-गरीब बयान दिया, वह सिखों के संदर्भ में था। सिखों द्वारा अपनी धार्मिक पहचान के साथ जीवन जीने, प्रार्थना-अरदास करने में कोई दिक्कत हो रही हो, यह कहना कुछ ज्यादा ही ‘सैकुलर’ बनना है। कहीं कोई एकाध मामला होगा भी तो उसका आम सिखों के लिए ज्यादा मतलब नहीं है। यह कहते हुए राहुल कुछ बड़े उदाहरण देते या कांग्रेस द्वारा इस सवाल पर देश के अंदर किए गए किसी आंदोलन का हवाला देते, तब जाकर बात समझ आती। 

लेकिन राहुल का यह दावा करना सबसे अटपटा लगा कि आज विपक्ष अर्थात वे शासन का एजैंडा तय करते हैं। सरकार उनके द्वारा उठाए मुद्दों को ध्यान में रखकर फैसले लेती और बदलती है। विपक्ष के दबाव या चुनावी धक्का खाने के बाद भाजपा की अगुवाई वाली यह सरकार जरूर फूंक-फूंक कर फैसले ले रही है और कई विवादास्पद फैसले ताक पर डाल दे रही है। पुरानी पैंशन योजना, वक्फ बोर्ड संबंधी विधेयक पर ही नहीं, जातिवार जनगणना पर सरकार का घिरना उनके गिनवाने के मुद्दे हैं। पर इसमें जितना योगदान उत्साह में आए विपक्ष का है, उससे ज्यादा एन.डी.ए. के घटक दलों का है। शुरू में तो तेलुगु देशम और जनता दल-यू का ही मामला था, अब तो चिराग पासवान, अनुप्रिया पटेल, ओमप्रकाश राजभर और संजय निषाद जैसे लोग भी दबाव की राजनीति खेलने लगे हैं और सरकार उनके दबाव से भी फैसले बदल रही है या ले रही है। उसे के.सी. त्यागी को प्रवक्ता पद से हटवाना और चिराग से अलग से बात करनी पड़ती है। यह एक व्यक्ति के राज की जगह गठबंधन की राजनीति का परिणाम ज्यादा है, राहुल गांधी के उत्साह और आक्रमण का कम। अगर उनकी वजह से ऐसा हो रहा होता, तब भी यह दावा कुछ बड़बोलापन लगता है। 

दूसरी तरफ इतने कम समय में ही राहुल की खुद की कमजोरियां भी ज्यादा उजागर हुई हैं। अपनी यात्रा से जम्मू-कश्मीर के माहौल को गरमाने वाले राहुल वहां हो रहे चुनाव में उस तरह उपस्थित नहीं रहे, जिससे कांग्रेसी उम्मीदवारों को बल मिलता। यह बात हरियाणा चुनाव पर भी लागू होती है। इतना ही नहीं, महाराष्ट्र और झारखंड के आगामी चुनाव के मामले में भी उनकी उपस्थिति सामान्य से कम दिखती है जबकि ये चार राज्य देश की आगे की राजनीति की दिशा तय करेंगे। और खास बात यह है कि इनमें से हर जगह भाजपा बैकफुट पर है और कांग्रेस मजबूत स्थिति में नजर आने लगी है। राहुल को इन चुनाव परिणामों से बल मिलेगा तो हार से मोदी कमजोर होंगे। 

कांग्रेस की संगठनात्मक कमजोरी अधिकांश राज्यों में दिखती है। लोकसभा चुनाव परिणाम के मद्देनजर कांग्रेस में बदलाव, पुरस्कार और सजा का दौर चलना चाहिए था और ‘इंडिया’ गठबंधन के साथियों के संग बेहतर तालमेल की कोशिश। सिर्फ जातिवार जनगणना की मांग के साथ उसको संगठनात्मक तैयारी करनी होगी। और जिस महंगाई, बेरोजगारी, किसान समस्या को आप बार-बार चुनाव में उठाते हैं, उसकी भी अपनी राजनीति होती है और इस मोर्चे पर काम करना तो कांग्रेसी भूल ही गए हैं। राहुल भी भूल जाएं तो काहे के नेता।-अरविन्द मोहन 
    


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