संविधान की रक्षा : ‘दीदी बनाम मोदी’

punjabkesari.in Saturday, Feb 09, 2019 - 04:52 AM (IST)

सन् 2014 के मई माह से पहले ही लगभग यह तय हो गया था कि देश में निजाम बदलेगा और नरेन्द्र मोदी नए प्रधानमंत्री होंगे। मतगणना से ठीक एक हफ्ते पहले यानी 9 मई को सुप्रीम कोर्ट हजारों करोड़ रुपए के घोटाले वाले शारदा चिटफंड मामले की जांच राज्य की एस.आई.टी. से लेकर केन्द्रीय जांच एजैंसी (सी.बी.आई.) को देने का आदेश देती है। पूरे पश्चिम बंगाल के शासन-तंत्र में भूकम्प-सा आ जाता है। मोदी 13 साल तक एकछत्र राज करने वाले मुख्यमंत्री रहे थे और प्रतिकार व विरोधियों को राजनीतिक श्मशान तक ले जाने में सूबे की ‘हवाई चप्पलधारी’ मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को अपने से बड़ा प्रतिद्वंद्वी मिला था। 

जाहिर है अगर सी.बी.आई. सुप्रीम कोर्ट की नजरों में सन् 2013 में ‘पिंजरे में बंद तोता’ थी तो साल भर में ही गीता का स्थितप्रज्ञ नहीं हो गई होगी। यहां तक कि यह आदेश देते हुए भी अदालत ने कहा था यह सच है कि इस प्रमुख जांच एजैंसी (सी.बी.आई.) की स्वतंत्रता के बारे में भी बहुत कुछ कहा जा सकता है लेकिन जब तक इसकी विश्वसनीयता को प्रभावित करने के लिए इसके खिलाफ  कोई ठोस सबूत नहीं मिलते, यह प्रमुख जांच संस्था रहेगी। अदालत ने यह भी कहा कि वह इस मामले की जांच का अनुश्रवण नहीं करेगी। 

बहरहाल ममता सरकार और उसके तमाम मंत्री उस शिद्दत से लीपापोती में लगे हैं कि कलकत्ता हाईकोर्ट के प्रतिमाह अनुश्रवण किए जाने के बावजूद स्थानीय एस.आई.टी. द्वारा महत्वपूर्ण प्रारम्भिक, मूल और आधारभूत साक्ष्य जैसे लैपटॉप और मोबाइल फोन भी आरोपियों को वापस कर दिए गए थे। इसी पुलिस अधिकारी राजीव कुमार के अधीन एस.आई.टी. उस समय भी काम कर रही थी। लिहाजा सी.बी.आई. को केस हाथ में लेने से पहले ही मालूम था कि राज्य पुलिस से सहयोग की अपेक्षा करना बालू से तेल निकालने जैसा होगा। और हुआ भी यही। 

पश्चिम बंगाल पुलिस के हथकंडे
हालांकि सन् 2014 में यह केस सी.बी.आई. को सौंप दिया गया था राजीव कुमार ने हीला-हवाला करते हुए 4 साल बाद मात्र कुछ काल डिटेल रिकॉर्ड (सी.डी.आर.) सी.बी.आई. को दिए लेकिन जो सी.डी.आर. दिए भी, उनमें किसने किसको काल किया, गायब था। लेकिन देश की सबसे मकबूल जांच एजैंसी को राज्य पुलिस के ये सब हथकंडे पहले से पता थे लिहाजा इसने पैंतरा बदला और सीधे मोबाइल सेवा देने वाली कम्पनियों पर शिकंजा कसा। जाहिर है देश भर में सेवा देने वाली ये कम्पनियां सी.बी.आई. से पंगा नहीं ले सकती थीं, लिहाजा तमाम सत्ताधारी नेताओं के मोबाइल के मूल सी.डी.आर. सी.बी.आई. के हाथ आ गए। इस मूल सी.डी.आर. में पश्चिम बंगाल और बगल के असम सहित कई राज्यों के अनेक नेताओं द्वारा या उनको कम से कम 3 चिटफंड या संदिग्ध कम्पनियों के लोगों द्वारा किए गए काल रिकॉर्ड थे।

इस बीच गवाहों के बयान से पता चला कि स्थानीय पुलिस और राज्य की एस.आई.टी. पुलिस अधिकारी राजीव कुमार और राजनीतिक आकाओं के इशारे पर पूरे साक्ष्यों को मिटाने का काम कर रही हैं। इसी दौरान यह भी पता चला कि एक और ऐसी ही फर्जी कम्पनी (रोज वैली) ने जनता के हजारों करोड़ रुपए मार लिए हैं और सत्ताधारी दल के लोगों को ही नहीं, दूसरे राज्य में भी नेताओं को महीना देकर बचने की कोशिश कर रही है। सी.बी.आई. से एस.आई.टी. ने यह बात भी छुपाई कि रोज वैली के खिलाफ  कोलकाता के दुर्गापुर थाने में एक मुकद्दमा दर्ज है। इस तथ्य की जानकारी न होने के कारण सी.बी.आई. को मजबूरन इस कम्पनी के खिलाफ एक मुकद्दमा ओडिशा में लिखवाना पड़ा। 

राजनीतिक शतरंज की बिसात
अब राजनीतिक शतरंज की बिसात बिछ चुकी थी। केन्द्र में शासन कर रहे लोगों को भी पता चल गया था कि विपक्ष और ममता के कौन से करीबी नेता फंसने जा रहे हैं। पश्चिम बंगाल और असम में अपना विस्तार कर रहे इस राष्ट्रीय दल के रणनीतिकारों ने करीब डेढ़ साल की मेहनत के बाद असम के एक कद्दावर नेता को तोड़ लिया। इस नेता का नाम भी उस लाल डायरी में था जिसका जिक्र अपने बयान में कम्पनी के मालिकों ने किया था। ममता के दाहिने हाथ माने जाने वाले एक व्यक्ति भी नाम हटाने की शर्त पर इस राष्ट्रीय दल के साथ हो गए। असम में सरकार बन गई। उधर ममता को यह नागवार गुजरा लेकिन मूल सी.डी.आर. सी.बी.आई. के हाथ लग चुकी है, यह जानकारी ममता को बेचैन कर रही थी। 

बहरहाल आज सी.बी.आई.के किसी भी रिकॉर्ड में इन दोनों नेताओं, जो इस राष्ट्रीय दल के साथ हो गए हैं, के नाम नहीं हैं। यानी रिवॉर्ड मिला। जाहिर है ममता का क्रोध सातवें आसमान पर था। मोदी वह नहीं थे जो मनमोहन सिंह या सोनिया गांधी थीं। खिलाफ उठने वाले हर हाथ को यह समझना पड़ेगा, का संदेश देना मोदी को ममता से ज्यादा आता था। तभी तो सी.बी.आई. के निदेशक आलोक वर्मा को न केवल पद गंवाना पड़ा बल्कि अपनी पैंशन गंवाने की हालत नजर आने लगी। कारण था उनकी हिमाकत, जिसके अंतर्गत प्रधानमंत्री, मुख्य न्यायाधीश और नेता विपक्ष की समिति द्वारा पद से हटाए जाने के बाद उन्होंने अपेक्षाकृत गैर-महत्वपूर्ण पद (डी.जी., अग्निशमन) पर मात्र 3 दिन के लिए (तीन दिन बाद पद से रिटायर होना था) ज्वाइन न करने की हिमाकत की। गृह मंत्रालय ने उन्हें पत्र लिख कर आदेश दिया कि उनका न ज्वाइन करना अनुशासनहीनता माना जा सकता है। 

संविधान की रक्षा की लड़ाई 
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ये सब जानती थीं। लिहाजा ममता भी संविधान की रक्षा के लिए लड़ रही हैं और अंतिम सांस तक लडती रहेंगी। सारा विपक्ष भी इसी संविधान की रक्षा में लगा हुआ है और मोदी सरकार ने भी अपने अटॉर्नी जनरल के मार्फत सुप्रीम कोर्ट को बताया कि ममता बनर्जी संविधान की धज्जियां उड़ा रही हैं और केन्द्र सरकार संविधान की रक्षा हर कीमत पर करेगी। उधर सुप्रीम कोर्ट भी हाल के अपने दो फैसलों में संवैधानिक नैतिकता के सिद्धांत से बंधी होने की बात कह चुकी है। 

पश्चिम बंगाल और असम सहित कई राज्यों के ठगे गए एक करोड़ भोले लोग किस पर भरोसा करें जो करीब 8 साल से अपना पैसा मांग रहे हैं, उसी संविधान की दुहाई देकर। हमारा जन-प्रतिनिधि सरकार बनाता है हमारे भरोसे को जीत कर (भरोसा क्योंकि सब पर है तो उन्हीं में से एक को चुनना होता है)। उस ठगे हुए भोले व्यक्ति को नहीं मालूम होता कि उसी के ठगे गए पैसे को इस्तेमाल करके राजनीतिक वर्ग द्वारा भरोसा पैदा किया जाता है। फिर वह वर्ग सत्ता में आने के बाद किसी चिटफंड के मालिक को पकड़ता है और फिर उसे बचाने के लिए सौदा करता है या पकड़वाने के लिए ब्लैकमेल करता है। यह नाभि-नाल बद्धता संविधान की रक्षा के नाम पर पिछले 70 साल से चल रही है। 

लेकिन इतिहासकार के.पी. जायसवाल ने साबित किया था कि भारतीय राजनीतिक चेतना में ‘गणतंत्रों’ के मार्फत सामुदायिक रूप से शासन करने के प्रमाण मिलते हैं, मगध के राजतंत्र के उदय-पूर्व के काल खंड में। मुझे लगता है कि इस समस्या का सही उत्तर आधुनिक भाव-बोध की भारतीयता की राजनीतिक चेतना के साथ एडजस्टमैंट न हो पाने में ढूढा जा सकता है। हीगल ने फिलॉसफी ऑफ हिस्ट्री में भारत को एक ऐसा प्राच्य समाज बताया है जो यथार्थ की जगह फैंटेसी की दुनिया में रहना पसंद करता है। यही वजह है कि फिजिक्स का विद्यार्थी यहां ज्यादा नंबर लाने के लिए  पन्ने की अंगूठी पहनता है। यह सोच का फैंटेसी कारण है जिसे धर्म और मिथकों के अकाट्य घाल-मेल से बनाया गया है। यह घाल-मेल न बौद्धिक राजनीति को पैदा होने देता है और न ताॢकक संचेतना को। हर विचार की नियति एक दल-दल में फंस जाना है।-एन.के. सिंह


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