पत्रकारों के विरुद्ध होने वाली ङ्क्षहसा पर भी अपनी जुबान खोलें मोदी

punjabkesari.in Thursday, Sep 14, 2017 - 01:19 AM (IST)

चरमपंथी साम्प्रदायिकवाद की घोर आलोचक के रूप में विख्यात बेंगलुरू की रहने वाली पत्रकार गौरी लंकेश की जघन्य हत्या ने एक बार फिर इस बात पर फोकस बना दिया है कि विभाजन और असहिष्णुता की राजनीति के विरुद्ध आवाज उठाने वालों को लक्ष्य बनाकर हमले किए जाते हैं। 

नरेन्द्र दाभोलकर, गोबिन्द पनसारे तथा एम.एम. कालबुर्गी और अब गौरी लंकेश सहित पत्रकारों, विचारिकों तथा एक्टिविस्टों की हत्याओं का जैसे हाल ही में सिलसिला चल निकला है वह एक निश्चित ढर्रे का हिस्सा है। उक्त सभी लोग तर्कवादी होने के साथ-साथ कट्टरवादी हिन्दुत्व के आलोचक थे और इन सभी की हत्याओं का तरीका एक जैसा है। महत्वपूर्ण बात है कि इनमें से किसी ने भी ऐसी बातें नहीं लिखी थीं जो संविधान द्वारा प्रदत्त अभिव्यक्ति के अधिकार के किसी भी प्रावधान का उल्लंघन करती हों। सितम की बात यह है कि बेशक सभी हत्याओं में हमले का तरीका एक जैसा है तो भी पुलिस किसी अपराधी को न तो काबू कर सकी है और न ही किसी संदिग्ध की पहचान कर सकी है। 

राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एन.सी.आर.डी.) के आंकड़ों के अनुसार 2015 से अब तक पत्रकारों पर 140 हमले हुए। इन हमलों के फलस्वरूप कम से कम 70 पत्रकारों की मौत हुई है। इन हमलों के शिकार होने वाले अधिकतर पत्रकार छोटे नगरों और कस्बों से संबंधित थे जिस कारण उनकी मौत का राष्ट्रीय स्तर पर किसी ने संज्ञान नहीं लिया। फिर भी सत्तारूढ़ गठबंधन ने इन हमलों पर जानबूझकर चुप्पी साधे रखी है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सहित राजग ने इन मौतों पर कोई टिप्पणी करने से परहेज किया। वास्तव में पार्टी नेता बहुत कम मौकों पर किसी ज्वलंत मुद्दे पर बात करते हैं और यह काम अपने कनिष्ठ नेताओं पर छोड़ देते हैं कि वे टैलीविजन स्टूडियो में होने वाली चर्चाओं में हिस्सा लेते रहें। 

यहां तक कि प्रधानमंत्री स्वयं एक तरफा संवाद पर विश्वास रखते हैं। यह संवाद सार्वजनिक बैठकों (जिनमें चुनावी अभियान की बैठकें भी शामिल हैं), ‘मन की बात’ अथवा रेडियो भाषण एवं विमुद्रीकरण जैसे मुद्दों की घोषणा जैसे विशेष मौकों पर राष्ट्र के नाम टैलीविजन उद्बोधन के माध्यम से रचा जाता है। प्रधानमंत्री महत्वपूर्ण मुद्दों पर सार्वजनिक तथा मीडिया आलोचना की अनदेखी करते आए हैं और कथित रूप में गौमांस भक्षण या इसके भंडारण के आरोप में मुस्लिमों को लक्ष्य बनाकर भीड़ द्वारा की गई शृंखलाबद्ध हत्याओं के संबंध में भी उन्होंने कोई खास टिप्पणी नहीं की और यदि कुछ कहा तो भी बहुत देर से। 

फिर भी जनता इस बात से बहुत सदमे में है कि प्रधानमंत्री ने ट्विटर जैसे सोशल मीडिया पर उन लोगों को ‘फॉलो’ करना लगातार जारी रखा हुआ है जो न केवल साम्प्रदायिकवादी एवं गाली-गलौच से भरी हुई भाषा प्रयुक्त करते हैं बल्कि यह भी दावा करते हैं कि उन्हें तो प्रधानमंत्री स्वयं ‘फॉलो’ करते हैं। ट्विटर पर ‘फॉलो’ किया जाना अलग बात है क्योंकि यह किसी व्यक्ति की मर्जी पर निर्भर नहीं करता कि उसे कौन ‘फॉलो’ करता है या कौन नहीं। लेकिन स्वयंं किसी को ‘फॉलो’ करना एक सचेत क्रिया होती है। आम तौर पर यह माना जाता है कि आप जिनको ‘फॉलो’ करते हैं यदि उनके विचारों का समर्थन न भी करते हों तो भी कम से कम उनके विचारों के प्रति सहिष्णु अवश्य हैं। आप द्वारा किसी को ‘फॉलो’ करने से उसके विचारों को किसी न किसी हद तक एक गरिमा या आभा हासिल हो जाती है। 

जहां तक मोदी का संबंध है वह काफी संख्या में ऐसे लोगों को ‘फॉलो’ करते हैं जो नंगे-चिट्टे साम्प्रदायिक और गाली-गलौच भरी तथा अमानवीय भाषा प्रयुक्त करते हैं। ऐसा ही एक व्यक्ति निखिल धधेजा है जिसने कत्ल हुई पत्रकार गौरी लंकेश को ‘कुतिया’ करार दिया और इतराते हुए कहा है कि अब ‘कुत्ते के पिल्ले’ उसकी मौत पर चीं-पों कर रहे हैं। निकुंज साहू, सुरेश नखुआ, आशीष मिश्र तथा तेजेन्द्र बग्गा जैसे कई अन्य हैं जिन्होंने दावा किया है कि खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी उन्हें ‘फॉलो’ करते हैं। ये वे लोग हैं जो हिन्दुत्व की राजनीति के आलोचकों के विरुद्ध सीधे-सीधे साम्प्रदायिक भाषा प्रयुक्त करते हैं और गाली-गलौच करते हैं। 

दूसरी ओर चरमपंथी हिन्दुत्व की आलोचना करने वाली गौरी लंकेश की हत्या पर घोर अपमानजनक और ङ्क्षनदा सूचक अपशब्दों का प्रयोग करने वाले ऐसे व्यक्तियों को आड़े हाथों लेने वाले केन्द्रीय सूचना टैक्नोलॉजी मंत्री रविशंकर प्रसाद प्रशंसा के हकदार हैं। उन्होंने ट्वीट किया था : ‘‘किसी भी हत्या पर प्रसन्नता व्यक्त करना शर्मनाक, खेदजनक होने के साथ-साथ भारतीय परम्पराओं के सर्वथा विपरीत है।’’ मंत्री महोदय की टिप्पणियों का व्यापक स्वागत हुआ हालांकि पार्टी ने सब कुछ समझते-बूझते हुए भी मौन साधे रखा। 

लेखकों, विचारकों तथा पत्रकारों पर बढ़ते हमले न केवल प्रोफैशनल्स के लिए बल्कि कार्यशील लोकतंत्र के लिए भी गंभीर ङ्क्षचता का विषय हैं। बेशक व्यापक रूप में जनता इस स्थिति पर कोई कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त न भी कर रही हो तो भी अंदर ही अंदर सुलग रहा असंतोष किसी की नजरों से छिपा हुआ नहीं। भाजपा इस असंतोष की अनदेखी कर सकती है लेकिन इसका खमियाजा भी उसे ही भुगतना होगा क्योंकि जब भारतीय मतदाताओं की उम्मीदें और आकांक्षाएं पूरी नहीं होतीं तो वे क्षमाशीलता का व्यवहार अपनाने से भी परहेज करते हैं। यही कारण है कि 1971 के भारत-पाक युद्ध में विजय हासिल करने के बाद जिस इंदिरा गांधी को ‘दुर्गा’ की उपमा दी गई थी उसे ही आपातकाल के बाद हुए चुनाव में शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा था।

जब जोड़-तोड़ करके बनाई नई ‘जनता सरकार’ (जिसमें भाजपा अपने पूर्व अवतार जनसंघ के रूप में शामिल थी) ने जनता के साथ किए वायदे पूरे नहीं किए तो जनता ने फिर से इंदिरा गांधी को सत्तासीन कर दिया। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हमदर्दी की लहर पर सवार होकर जिस कांग्रेस ने रिकार्ड मतों से जीत दर्ज करते हुए भाजपा को मात्र 2 लोकसभा सीटों तक सीमित कर रख दिया था, गत चुनाव में वह खुद 44 सांसदों तक सिमट कर रह गई। भाजपा को अवश्य ही  यह अनुभूति हो जानी चाहिए कि जीतों का सिलसिला हमेशा नहीं चलता रहता। वास्तव में 2015 में ही इसे आम आदमी पार्टी के हाथों दिल्ली में शर्मनाक पराजय झेलनी पड़ी। आज तो ऐसा लगता है कि भाजपा इतिहास को भुला बैठी है। 

अभी भी समय है कि मोदी जिस प्रकार गौमांस की ढुलाई और सेवन  तथा भंडारण के संदिग्ध आरोपियों की भीड़ के हाथों पीट-पीट कर हुई मौतों पर बेशक विलम्ब से ही बोले थे, उसी प्रकार पत्रकारों के विरुद्ध होने वाली ङ्क्षहसा पर भी अपनी जुबान खोलें। इस प्रकार के उल्लंघनों से निपटने के लिए कानून बने हुए हैं। यही कारण है कि भीड़ के हाथों हुई हत्याओं की जब मोदी ने ङ्क्षनदा की थी तो इसका सकारात्मक प्रभाव पड़ा था। आज भी उन्हें संकीर्ण राजनीति से ऊपर उठना होगा और यदि वह चाहते हैं कि लोग उन्हें एक राजनेता तथा देश के सबसे महानतम प्रधानमंत्रियों में से एक के रूप में याद रखें तो आलोचना पर सार्थक प्रतिक्रिया व्यक्त करें।    
 


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