भारत तथा चीन की आपसी धारणाएं सदियों से बदली हैं

punjabkesari.in Sunday, Jun 20, 2021 - 06:03 AM (IST)

शायद मैं एक साधारण बुद्धि वाला व्यक्ति हूं। मगर मैं आकलन को तरजीह देता हूं जो स्पष्ट भी हो और जिस पर लक्ष्य भी भेदा गया हो। ज्यादातर बुद्धिजीवी अपने तर्कों को इस तरह गोलमोल बात से संवारते हैं कि आप कभी भी निश्चित नहीं होते कि वह क्या कह रहे हैं। कुछ लोग तो ऐसी भाषा का सहारा लेते हैं जो फुदकने वाली भाषा हो।

अभिव्यक्त करने से ज्यादा वे लोग इसका इस्तेमाल प्रभावित करने के लिए करते हैं। एक किताब जिसका मैं आज जिक्र करना चाहता हूं ऐसी असफलताओं से ऊपर उठती है। यही कारण है कि उसे पढऩा आसान है तथा उसे समझना आज भी ज्यादा आसान है। आप इससे सहमत हों या न हों यह अलग बात है। 

मैं कांति वाजपेयी की किताब ‘इंडिया वर्सेज चाइना : वाई दे आर नॉट फ्रैंड्ज’ के संदर्भ में बात कर रहा हूं। इसके पहले पन्ने पर यह किताब कहती है ‘‘ज्यादातर पर्यवेक्षकों की सराहना या इसकी मान्यता के विपरीत भारत-चीन संबंध ज्यादा गहरे और जटिल हैं।’’ अगले पन्ने पर यह अपनी बात जोड़ते हुए कहती है कि ‘‘भारत तथा चीन चार महत्वपूर्ण कारणों से दोस्त नहीं हैं।’’ 

किताब के बाकी पन्ने चारों की व्या या करते हैं। यहां पर दोनों देशों के बीच गहरे मतभेद एक-दूसरे की धारणाओं, उनके प्रादेशिक पैरामीटर, उनकी कूटनीतिक सांझेदारियों तथा सबसे महत्वपूर्ण शक्ति की विषमता को लेकर है। वाजपेयी के विचार से आपसी धारणाएं तथा शक्ति विषमता सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है। मैंने उनसे संबंधित अध्यायों को खोजा जो आकर्षक तथा आंखों को खोल देने वाले हैं। 

भारत तथा चीन की आपसी धारणाएं सदियों से महत्वपूर्ण ढंग से बदली हैं। चीन ने हमारे देश को बौद्ध धर्म वाले भारत के तौर पर देखा है। एक सहस्राब्दी के बाद भारत ने शाही चीन को बहुत सम्मान के साथ देखा है। 19वीं शताब्दी से परिस्थितियां बदल गईं। भारत के लिए चीन का स मान कम हो गया। दूर नहीं तो भारत ने चीन की ओर ब्रिटिश के आइने से देखा। वाजपेयी लिखते हैं कि स्पष्ट तौर पर आज चीन भारत को एक सहयोगी महान शक्ति के तौर पर नहीं देखता और यही कारण है मजबूती की स्थिति से चीन भारत को समायोजित करने की जरूरत ही नहीं समझता। इन सब बातों के विपरीत बातें भारत पर लागू होती हैं कमजोरी की एक स्थिति से भारत मानता है कि प्रतिष्ठा तथा कूटनीतिक स्वायत्तता की कमी के बिना यह चीन को समायोजित करना बर्दाश्त नहीं करता। 

इस संदर्भ में वाजपेयी शक्ति विषमता का आकलन करते हैं। कई लोगों को पढ़कर आश्चर्य होगा कि विचारों के विपरीत बतौर एक नर्म ताकत चीन भारत से बेहतर है। मगर ऐसा नहीं है। वाजपेयी यह भी मानते हैं कि चीन के नेता एक अच्छे ल बे समय तक के लिए दृढ़ रहना चाहते हैं। यह जवाब हालांकि दुविधा में पड़ा हुआ दिखाई देता है। दोनों देशों में एक आॢथक फर्क भी है। आर्थिक मजबूती में विशाल असमानताओं की तुलना में हमने यह महसूस नहीं किया है कि भारत तथा चीन सैन्य शक्ति में दूर नहीं हैं। यह एक खुशनुमा आश्चर्य है। वाजपेयी आगे लिखते हैं कि हिमालय की रोकने की शक्ति और समुद्री दूरी को देखते हुए असंतुलन कम कठिन है। 

पहला यह कि असंतुलन कितना कठिन है। बेशक भारत के पास एक बड़ी सेना है और चीन के पास भारत की तुलना में तीन गुणा ज्यादा सेना है और भारत से आधे गुणा ज्यादा एयरक्राफ्ट हैं। चीन के पास तीन गुणा ज्यादा पनडुब्बियां और दो गुणा ज्यादा परमाणु हथियार हैं। मगर घरेलू रक्षा उत्पादन में फर्क है। चीन के पास नई तकनीकों को विकसित करने की क्षमता है जो पेइचिंग को भारत के ऊपर निर्णायक बनाती है। इससे ज्यादा वाजपेयी भौगोलिक तथा कूटनीतिक द्वारा आंके गए तर्क देते हैं। यही कारण है कि भारत को हराने तथा विवश करने की चीनी क्षमता सीमित महसूस होती है।

मगर यहां पर चार चेतावनियां हैं : पहली सैन्य तंत्र को लेकर है। भारत का सैन्य तंत्र बेहद पतला है क्योंकि यह विदेशी सप्लाई पर निर्भर करता है। दूसरा कारण यह है कि भारत विदेशी प्रणाली पर बहुत ज्यादा निर्भर है। हमारा देश कुछेक नौसैनिक बेड़ों के आंशिक निर्माण को छोड़ एक भी प्रमुख पार परिक हथियार नहीं बनाता। तीसरा परमाणु हथियार हैं। भारत का पाकिस्तान के ऊपर भी प्रभाव है और चीन का हमारे ऊपर। 

चौथा कृत्रिम बुद्धिमत्ता से संबंधित साइबर, स्वचालित तथा रिमोट से चलने वाले डिवाइस भी हैं। वाजपेयी लिखते हैं कि इन सभी बातों को लेकर चीनी सेना हमसे आगे है और यही मुझे निष्कर्ष निकालने के लिए कहते हैं। यहां पर और भी लद्दाख जैसी घटनाएं होंगी। अरुणाचल प्रदेश में भी समस्याओं का डर वाजपेयी को डराता है। यह क्षेत्र रणनीतिक तौर पर बेहद महत्वपूर्ण है क्योंकि यह स्रोतों से भरा पड़ा है। चीन की विस्तृत राष्ट्रीय ताकत भारत से करीब 7 गुणा ज्यादा है। भारत को स यतागत बदलाव की जरूरत है। वाजपेयी के पाठक ही निर्णय करेंगे कि क्या ऐसा होगा।-करण थापर


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