कितना लाभकारी होगा दल बदलना

punjabkesari.in Tuesday, May 07, 2024 - 04:00 AM (IST)

भारतीय  लोकतंत्र के महापर्व की चरणबद्ध शुरूआत हो चुकी है। स्वतंत्रता के वर्षोंपरांत भी बेरोजगारी, महंगाई जैसी समस्याओं का समाधान न होने से जन्मती हताशा का असर कहें अथवा दलबदल की उठापटक से उपजती ऊहापोह की स्थिति का प्रभाव; मतदान के प्रारम्भिक दौर में वोटिंग की रफ्तार अपेक्षाकृत धीमी आंकी गई। चुनाव प्रचार में भी 2019 के आम चुनावों वाली रंगत नदारद जान पड़ती है।लुभावने वायदे, बोल-कुबोल, आरोप-प्रत्यारोप तो बेशक शामिल हैं लेकिन प्रचार अभियान जनकल्याण विषयों पर केन्द्रित होने की बजाय, अनर्गल बातों को तूल देने एवं विरोधी धड़ों को पटखनी देने के उपाय विचारने में अधिक मशगूल नजर आ रहा है।

लिहाजा मतदाताओं में भी चुनावी चर्चा के तौर पर कोई मुद्दा मुख्य रूप से सरगर्म है तो वह है, राजनीतिज्ञों में पैठ बनाता थाली के बैंगन सरीखा रवैया। ‘अमुक दल का नेता अमुक दल में शामिल हो गया’ समाचारपत्रों के अधिकतर पृष्ठ प्रतिदिन इन्हीं खबरों से सराबोर दिखाई पड़ते हैं। भारतीय राजनीतिक इतिहास पर दृष्टि डालें तो दलबदल का प्रचलन वर्षों पुराना है। प्रसिद्ध जुमले, ‘आया राम गया राम’ का प्रतिपादन चौथे आम चुनावों के पश्चात हुआ माना गया। अक्तूबर, 1967 को हरियाणा के एक विधायक ने 15 दिनों के भीतर 3 बार दल बदलकर इस मुद्दे को राजनीतिक मुख्यधारा में ला खड़ा किया था। 1960-70 के दशक में दलबदलुओं की संख्या इतनी तीव्र गति से बढ़ी कि राजनीतिक दलों द्वारा सामूहिक जनादेश की खुलेआम अनदेखी की जाने लगी।

अवसरवादी प्रवृत्ति न केवल जनकल्याणकारी योजनाओं के मद्देनजर प्रतिकूल साबित हुई बल्कि अनियमित चुनाव होने से राष्ट्र पर व्यय का अतिरिक्त बोझ भी बढ़ गया; बारम्बार सरकारों का पतन होने से व्यापक राजनीतिक अस्थिरता पैदा हुई सो अलग। संक्षेप में, सत्तालोलुप राजनेताओं ने स्वतंत्र भारत के समक्ष प्रमुख समस्याओं से इतर अन्यान्य समस्याएं उत्पन्न कर डालीं। स्थिति की गंभीरता को भांपते हुए, वर्ष 1985 में 52वें संविधान संशोधन के माध्यम से देश में ‘दल-बदल विरोधी कानून’ पारित किया गया। इससे तत्कालीन सरकारों को स्थायित्व तो अवश्य मिला किन्तु कानून में दल-बदल के मूल कारणों, जैसे-दल के भीतर लोकतंत्र का अभाव, भ्रष्टाचार, चुनावी कदाचार आदि संबोधित न किए जाने के कारण दलबदल संस्कृति पर पूर्णविराम न लग पाया। 

स्पष्ट शब्दों में, कानून होने के बावजूद अवसरवादी एवं अनैतिक रवैया एक प्रकार से नेताओं की खरीद-फरोख्त या ‘हॉर्स-ट्रेडिंग’ को बढ़ावा दे रहा है। राजनीतिक लाभ के लिए साम-दाम-दंड-भेद, सभी हथकंडे आजमाए जाते हैं। देर रात चुनावी मुद्दों पर चर्चा करते नेता, भोर होने तक विरोधी धड़े से हाथ मिलाते दिखाई पड़ते हैं। ‘तू नहीं तो और सही, और नहीं तो कोई और सही’ वाले मामले इस कदर बढ़ गए हैं कि भौंचक्की जनता यह तक नहीं समझ पाती कि कल तक खार बनकर खटकने वाला व्यक्ति  अचानक से आंखों का तारा कैसे हो गया, वो भी इतना  करीबी कि दल के वफादार सदस्यों को पछाड़ते हुए तुरत-फुरत टिकट का दावेदार बन बैठे। 

पार्टी बदलने के चलन में एक बात तो स्पष्ट है कि क्षेत्रीय विकास की अपेक्षा इन लोगों की रुचि राजनीति में अपना अस्तित्व बनाए रखने में अधिक है। जिन दलों के पास बड़े चेहरों की कमी है, वे भले ही अन्य पार्टी के नेताओं को अपने प्रभावाधीन लाने के गुर आजमा रहे हैं लेकिन मतदाता जागरूकता के संदर्भ में तथ्य बताते हैं कि दलबदलू नेताओं के जीतने का औसत लगातार घटता जा रहा है। एक रिपोर्ट के मुताबिक, 1967 के चुनाव में 50 प्रतिशत रहा दलबदलुओं की जीत का स्ट्राइक रेट, विगत लोकसभा चुनाव में 15 प्रतिशत पर आ पहुंचा। 

वास्तव में, जिस उम्मीदवार पर भरोसा करके मत दिया जाए, वही स्वार्थवश दल पर दल बदलता रहे तो ऐसे में उससे मोहभंग होना स्वाभाविक ही है। दलबदलुओं पर जनता भरोसा करे भी तो कैसे? जो मात्र कुर्सी की लालसा में दल को मंझधार में छोड़ दें, वे लोकहित के प्रति कितने निष्ठावान होंगे? हालांकि सजग मतदाता के तौर पर परित्यक्त दल की नेतृत्व क्षमता का आकलन करना भी आवश्यक है। कहीं न कहीं यह दलबदलू प्रवृत्ति मतदान के प्रति उदासीनता उत्पन्न करने का एक बड़ा कारण बन रही है, जो निश्चय ही लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी है। इसके दृष्टिगत संबद्ध कानून के नियमन पर पुनॢवचार अवश्य होना चाहिए। 

दलबदलुओं के लाभांश का स्तर इस बार क्या रहता है, यह तो आने वाला समय ही बताएगा। बहरहाल, मतदाताओं के लिए यह समझना आवश्यक है कि परिस्थितियां कैसी भी हों, अधिकार व कत्र्तव्य, दोनों के दृष्टिगत मतदान से विमुख होना कदापि उचित नहीं। हमारे एक वोट की चूक अक्षम प्रतिनिधियों के विजयी होने का कारण बन सकती है; जो न तो लोकहित में होगा, न ही लोकतांत्रिक सशक्तता के दृष्टिकोण से श्रेयस्कर।  -दीपिका अरोड़ा


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