मोदी सरकार ने अब बढ़ाए ‘मंडल-2’ की ओर कदम

punjabkesari.in Thursday, Oct 05, 2017 - 02:39 AM (IST)

मंडल कमीशन के लागू होने के अढ़ाई दशक बाद मोदी सरकार ने मंडल-2 की तरफ कदम बढ़ा दिए हैं। देश की अन्य पिछड़ा वर्ग यानी ओ.बी.सी. की राजनीति में क्रांतिकारी परिवर्तन आने वाला है।

साथ ही ओ.बी.सी. के भीतर की जातियों में ही आपसी संघर्ष की आशंका भी सिर उठाने लगी है। कुल मिलाकर मोदी सरकार का यह कदम भाजपा को उत्तर भारत में नई दिशा-दशा दे सकता है। मोदी सरकार ने नैशनल कमीशन फॉर सोशल एंड एजुकेशनली बैकवर्ड क्लासिस (एन.सी.एस.ई.बी.सी.) का गठन कर दिया है। 

5 सदस्यीय आयोग 4 हफ्तों में अपनी रिपोर्ट देगा यानी रिपोर्ट नवम्बर के पहले हफ्ते तक आएगी। रिपोर्ट को अगले कुछ दिनों में मोदी सरकार स्वीकार कर लागू करने की हालत में होगी। ये वही दिन होंगे जब चुनाव आयोग गुजरात और हिमाचल प्रदेश में विधानसभा चुनावों की तारीखों की घोषणा कर चुका होगा। गुजरात में पटेल खुद को ओ.बी.सी. में शामिल करने की मांग कर रहे हैं। मोदी सरकार उम्मीद कर रही है कि रिपोर्ट के बाद पाटीदार समाज उसके साथ वापस आ जाएगा जो गुजरात की आबादी का 20 प्रतिशत है, जो वहां की 182 में से 73 सीटों पर असर रखता है, जिसके वोट से भाजपा पिछले 20 सालों से गुजरात में जीत का परचम लहराती रही है।

आप सोच रहे होंगे कि आखिर क्या है ओ.बी.सी. के नए कमीशन में। यह कमीशन तय करेगा कि ओ.बी.सी. में शामिल जातियों को क्या अनुपातिक आधार पर प्रतिनिधित्व दिया जा सकता है? यह कमीशन तय करेगा कि ऐसी कौन-सी जातियां हैं जिन्हें ओ.बी.सी. में शामिल होने के बाद भी आरक्षण का पूरा लाभ नहीं मिला और ऐसी कौन-सी जातियां हैं जो आरक्षण की मलाई खा रही हैं। कुल मिलाकर कोटा में कोटा की व्यवस्था की जा रही है जिसके परिणाम ओ.बी.सी. आरक्षण को बदल कर रख देंगे। अभी देश में ओ.बी.सी. को 27 प्रतिशत आरक्षण हासिल है। इसमें सभी ओ.बी.सी. जातियां आती हैं। पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लागू किया था। 

मंडल कमीशन का कहना था कि देश की 52 प्रतिशत आबादी ओ.बी.सी. के तहत आती है और जनसंख्या के इस अनुपात के हिसाब से उसे 27 प्रतिशत आरक्षण दिया जाना चाहिए। इस प्रकार हमारे देश में ओ.बी.सी., अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को कुल मिलाकर अधिकतम 49.5 प्रतिशत आरक्षण देने की व्यवस्था लागू हो गई। अब सवाल उठता है कि मोदी सरकार को इतना बड़ा राजनीतिक दाव लगाने की जरूरत क्यों पड़ी? सरकार ने 1993 के नैशनल कमीशन फॉर बैकवर्ड क्लास एक्ट, 1993 को रद्द कर दिया। इसके साथ ही मौजूदा अन्य पिछड़ा वर्ग आयोग भी भंग हो गया। सरकार ने संविधान में संशोधन कर इसमें अनुच्छेद 338-बी भी जोड़ दिया। ऐसा होने पर नए कमीशन को संवैधानिक मान्यता भी प्रदान हो गई। 

आसान शब्दों में कहा जाए तो अब संसद तय करेगी कि किस जाति को ओ.बी.सी. में शामिल किया जाना चाहिए और किस जाति को ओ.बी.सी. से हटा दिया जाना चाहिए। (वैसे यह बिल राज्यसभा में विपक्ष के कुछ संशोधन पारित होने के कारण फिलहाल अधर में है और इस पर पक्ष-विपक्ष के बीच जमकर राजनीति हो रही है।) मोदी सरकार को इस बिल के लटक जाने पर गहरा झटका लगा है। उस दिन राज्यसभा में भाजपा के सभी सदस्य मौजूद नहीं थे और इसी का फायदा उठाकर विपक्ष ने अपने कुछ संशोधन पारित करवा लिए। इससे सरकार की किरकिरी भी हुई थी। प्रधानमंत्री मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने सांसदों की जमकर क्लास ली थी और उन्हें कारण बताने को कहा था। 

आमतौर पर कुछ संशोधनों के पारित होने पर सरकार और दल के सर्वोच्च नेता इस तरह आपा नहीं खोते हैं लेकिन चूंकि, यह बिल मोदी सरकार की 2019 में वापसी तय करने और भाजपा का विस्तार करने की अपार क्षमता रखता है, इसीलिए गैर-मौजूद सासंदों को लताड़ा गया। फिर वही सवाल, आखिर ऐसा क्या है इस नए कानून में जो देश की दलित राजनीति की दशा-दिशा बदल कर रख देगा, जो मोदी सरकार और भाजपा की दलित वोटों में पैठ बढ़ाएगा और जो दलित राजनीति करने वाले क्षेत्रीय दलों को हाशिए पर डाल देगा। 

इस समय हरियाणा में जाट, राजस्थान में गुर्जर और राजपूत, महाराष्ट्र में मराठे, गुजरात में पटेल और आन्ध्र प्रदेश में कापू जैसी जातियां खुद को ओ.बी.सी. में शामिल करने के लिए संघर्षरत हैं। इनमें से राजस्थान के गुर्जरों को छोड़कर बाकी सारी जातियां सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से प्रभावशाली रही हैं। गुर्जर राजस्थान में भाजपा को वोट देते रहे हैं। इन जातियों को साधना जरूरी है क्योंकि ये सभी ओ.बी.सी. में शामिल किए जाने के लिए मरने-मारने पर उतारू हैं। 

हरियाणा में तो पिछले साल जाट आरक्षण में 30 जानें गई थीं। महाराष्ट्र में मराठों को नाराज करके भाजपा की सत्ता में वापसी मुश्किल है। यही बात गुजरात के पटेलों पर लागू होती है जहां 2 महीने बाद चुनाव होने हैं। पिछले चुनावों में 70 प्रतिशत से ज्यादा ने भाजपा को वोट दिया था लेकिन इस बार हार्दिक पटेल जैसे नौजवान पटेल नेता कांग्रेस को समर्थन देने की बात कर रहे हैं। राजस्थान में अगले साल चुनाव हैं और वहां राजपूतों और गुर्जरों की नाराजगी भाजपा को भारी पड़ सकती है।

ऐसा नहीं है कि इन जातियों को खुश करने के लिए वहां की भाजपा सरकारों ने कुछ नहीं किया हो। राज्य ओ.बी.सी. आयोग से सिफारिश करवाई, विधानसभा में प्रस्ताव पारित किया और ओ.बी.सी. में आरक्षण देने के आदेश भी जारी कर दिए लेकिन हर जगह हाईकोर्ट में स्टे लग गया। इसकी वजह यह रही कि आरक्षण तय सीमा से ज्यादा हो गया। राज्यों ने संविधान की नई अनुसूची में इन जातियों को डालने के प्रस्ताव केन्द्र सरकार को भेजे लेकिन बात बनी नहीं। 

केन्द्र सरकार राज्यों की मांग मान कर ऐसी नई परम्परा की शुरूआत नहीं करना चाहती थी कि कहीं ओ.बी.सी. के लिए नई अनुसूची में शामिल करवाने वालों की कतार ही न लग जाए और ओ.बी.सी. आरक्षण का मतलब ही खत्म हो जाए लेकिन हाईकोर्ट में स्टे के चलते गुजरात, राजस्थान, हरियाणा, महाराष्ट्र में इन प्रभावशाली जातियों को मनाना भी जरूरी था। इसके लिए ही नया रास्ता निकाला गया है। इसके दो फायदे होंगे। एक,  चूंकि नए आयोग को संवैधानिक दर्जा हासिल होगा, लिहाजा उसकी सिफारिश को किसी अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकेगी। दो, चूंकि ओ.बी.सी. में जातियों के शामिल होने का अंतिम फैसला संसद करेगी, लिहाजा राज्य सरकारों पर से आरक्षण का सिरदर्द खत्म हो जाएगा। 

लेकिन यह काम इतना आसान नहीं है। अभी तक जो प्रभावशाली जातियां ओ.बी.सी. में शामिल होकर आरक्षण की मलाई खा रही हैं वे किसी भी हाल में कोटा में कोटा की व्यवस्था स्वीकार नहीं करेंगी। इससे उनके लाभ का दायरा कम हो जाएगा लेकिन भाजपा को शायद इसकी परवाह नहीं है। उसकी नजर ओ.बी.सी. में शरीक सबसे पिछड़ी जातियों के वोट बैंक पर है। आसान शब्दों में कह सकते हैं कि बिहार में नीतीश कुमार ने जिस तरह महापिछड़ा, महादलित, पसमांदा मुस्लिम जैसा नया वोट बैंक तैयार किया, वैसा ही कुछ मोदी सरकार पूरे देश में करने जा रही है। एक नया वोट बैंक बनाने जा रही है।

जातीय संघर्ष की जिस आशंका की तरफ हम इशारा कर रहे हैं उसे राजस्थान की जनता भुगत चुकी है। वहां मीणा अनुसूचित जनजाति (एस.टी.) में शामिल हैं और गुर्जर ओ.बी.सी. में लेकिन प्रभावशाली जाटों को ओ.बी.सी. में शामिल करने पर गुर्जर नाराज हो गए। उनका कहना था कि पहले ही उन्हें ओ.बी.सी. का लाभ कुछ प्रभावशाली जातियों के कारण नहीं मिल रहा है और जाटों ने तो गुर्जरों को कहीं का नहीं छोड़ा, लिहाजा गुर्जरों को एस.टी. में शामिल किया जाए। उधर मीणा इस मांग के खिलाफ सड़क पर आ गए। उनका कहना था कि वे किसी भी कीमत पर गुर्जरों को एस.टी. में शामिल नहीं होने देंगे। भाजपा सरकार ने इस तरफ ज्यादा ध्यान नहीं दिया था। 

उधर गांव-गांव आंदोलन और प्रति आंदोलन की आग फैल गई। आमतौर पर जयपुर, दौसा, ङ्क्षहडौन, भरतपुर, करौली,सवाई माधोपुर जिलों में एक गांव गुर्जर का मिलता है और एक मीणा का। दोनों के बीच परम्परागत रूप से प्यार और भाईचारा भी था लेकिन एक मांग ने भाईचारे को बिगाड़ कर रख दिया। राज्य सरकार ने गुर्जरों की मांग नहीं मानी क्योंकि वह प्रभावशाली मीणा जाति को नाराज नहीं करना चाहती थी। गुर्जर धरने पर बैठ गए। दो बार की पुलिस फायरिंग में 70 गुर्जर मारे गए। इस सच्चाई को भी समझ लेना जरूरी है। आरक्षण का लाभ उठाने वाला इस लाभ से वंचित नहीं रहना चाहता और आरक्षण से वंचित लाभ उठाने के मौके को चूकना नहीं चाहता। ऐसे गर्म तवे पर राजनीति की रोटियां सेंकना उंगलियों को भी जला सकता है। 
 


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