‘मोदी में सुधारक बनने की क्षमता नहीं है’

punjabkesari.in Saturday, Jun 24, 2017 - 11:29 PM (IST)

नरेन्द्र मोदी एक सप्ताह के लिए अमरीका यात्रा पर जा रहे हैं। इस उपलक्ष्य में विश्व प्रसिद्ध ‘द इकोनोमिस्ट’ ने एक नकारात्मक आवरण कथा प्रकाशित की है जो भारतीय प्रधानमंत्री को किसी भी तरह प्रसन्न नहीं करेगी। इस साप्ताहिक पत्रिका का दृष्टिकोण इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह यथास्थितिवादी है और कारोबार के प्रति मित्रभावी रवैया रखने वाले इस प्रकाशन को दुनिया भर के नेताओं द्वारा अर्थव्यवस्था के विषय में सबसे प्रमाणिक माना जाता है। इसके बारे में यह भी खास बात है कि अपना निर्णय लेने में यह हड़बड़ी से काम नहीं लेती। यही कारण है कि मोदी के बारे में इसका दृष्टिकोण विशेष रूप में आहत करने वाला है। 

मेरा मानना है कि पत्रिका का आवरण कुछ हद तक अन्यायपूर्ण है और मोदी तथा भारत के मामले में कुछ अधिक ही कड़ा रुख अपनाता है लेकिन शायद मैं ऐसा इसलिए सोचता हूं कि मैं उस संस्कृति में पला-बढ़ा हूं जहां प्रतीकवाद बहुत महत्वपूर्ण चीज है। आवरण पृष्ठ पर मोदी को कागज के बने हुए शेर पर सवारी करते दिखाया गया है और इस आलेख को नाम दिया गया है: ‘‘मोदी का भारत: सुधार की मृगतृष्णा’’। इस आलेख में जो आरोप लगाए गए हैं उनकी संख्या काफी है।

सबसे अधिक आहत करने वाली बात तो यह है कि पत्रिका इस बात पर कटिबद्ध है कि मोदी में सुधारक बनने की क्षमता नहीं है। पत्रिका महसूस करती है कि मोदी के रिकार्ड से यह पता चलता है कि ‘‘वह उन मूलभूत समस्याओं को हल करने में कोई खास दक्षता नहीं रखते जो अर्थव्यवस्था के रास्ते में बाधा बनी हुई हैं।’’ इसकी बजाय ‘‘उनकी छवि कारोबारियों के प्रति मित्रभाव रखने वाले एक ऐसे व्यक्ति की है जो उन्हें समस्याओं से निकालने के लिए जोरदार प्रयास करता है जैसे कि किसी खास फैक्टरी के लिए भूमि की तलाश करना या किसी बिजली घर के निर्माण में गति लाना’’। 

अपने दावों को प्रमाणित करने के लिए पत्रिका लिखती है कि अपने शासन के चालू यानी चौथे वर्ष में मोदी जिन विचारों को अमली जामा पहना रहे हैं (जैसे कि जी.एस.टी.) वे काफी हद तक उनके पूर्ववर्ती शासन की पैदावार हैं न कि उनकी अपनी। पत्रिका यह मानती है कि मोदी ऊर्जावान हैं लेकिन वह शौचालय निर्माण से लेकर कारखाना गतिविधियों तक हर बात पर चमक-दमक वाली पहल लांच करने में ही व्यस्त रहते हैं। पत्रिका के अनुसार मोदी दिलेर तो हैं लेकिन दिशाहीन भी हैं। नोटबंदी बहुत ‘दिलेरी भरा’ कदम था लेकिन नीति की दृष्टि से यह कोई पायदार बात नहीं थी और इसमें योजनाबंदी तथा स्पष्ट लक्ष्यों की इतनी भारी कमी थी कि इस कवायद ने अर्थव्यवस्था को नुक्सान पहुंचाया। 

पत्रिका ने आशंका व्यक्त की है कि सरकार केवल यह दिखाने के लिए कि वह ‘कुछ कर रही है’ इसी तरह के और भी गलत निर्णय ले सकती है। एकाग्र फोकस और रणनीति की कमी का परिणाम यह हुआ है कि भारत की अर्थव्यवस्था 3 वर्ष पूर्व की तुलना में आज काफी कम रफ्तार से आगे बढ़ रही है। पैट्रोलियम पदार्थों की कम कीमतों और देश में विशाल युवा आबादी  के दोनों लाभ भाड़ में चले गए हैं क्योंकि मोदी ने इस सुनहरी अवसर को मुफ्त में गंवा दिया। पत्रिका लिखती है कि मोदी और उनकी सरकार के रिकार्ड पर दृष्टिपात किया जाए तो उम्मीद की बहुत ही कम किरणें दिखाई देती हैं। मोदी ‘‘आॢथक सुधारक के पर्दे में एक हिन्दू जुनूनी हैं या हिन्दू जुनूनी के रूप में एक आर्थिक सुधारक’’ इस बारे में ‘द इकोनोमिस्ट’ ने दावा किया है कि उसने उत्तर ढूंढ लिया है। पत्रिका का मानना है कि ‘‘अर्थवेत्ता की तुलना में वह अंधराष्ट्रवादी अधिक हैं।’’ 

इस दावे को प्रमाणित करने के लिए पत्रिका लिखती है कि उनकी सरकार ने ‘‘गौमांस निर्यात के फलते-फूलते कारोबार को चौपट करके रख दिया है।’’ इस आरोप के बाद पत्रिका ने विशेष रूप में कठोर भाषा प्रयुक्त की है जो सरकार में बैठे हुए लोगों और इसका समर्थन करने वालों को विचलित करेगी। इसने लिखा है, ‘‘मोदी के शासन में सार्वजनिक नीतियों और खास तौर पर साम्प्रदायिक संबंधों पर चर्चा पंगु बनकर रह गई है। हिन्दू राष्ट्रवादी ठग उन लोगों को डराते-धमकाते हैं जो सरकार पर भारत की सैकुलर परम्पराओं से भटकने का आरोप लगाते हैं या फिर कश्मीर में प्रदर्शनकारियों के विरुद्ध नर्म रुख अपनाने की वकालत करते हैं।’’ 

पत्रिका के अनुसार यह सब कुछ ऐसे वातावरण में हुआ है जहां मोदी ‘‘स्वयं चापलूसी भरी व्यक्ति पूजा  का आदर्श बनकर रह गए हैं।’’ असहिष्णुता के संबंध में ऐसी ही कई अन्य बातें भी हैं जो हाल ही के विवादों के जानकार पाठकों को आश्चर्यजनक नहीं लगेंगी। ‘द इकोनोमिस्ट’ की रिपोर्ट से उन लोगों की अवश्य ही बांछें खिलेंगी जो मोदी और उनकी सरकार का विरोध करते हैं और वे यह कहेंगे कि उनके दावे की निष्पक्ष और प्रबुद्ध पर्यवेक्षक ने पुष्टि की है। फिर भी ‘द इकोनोमिस्ट’ की टिप्पणियां हर भारतीय के लिए ङ्क्षचता का विषय होनी चाहिएं- चाहे वे मोदी के पक्ष में हों या विरोध में। 

यदि यह सच है कि  हम ऐसे दौर में से गुजरे हैं जब मु_ी भर आर्थिक लाभों को भी भाड़ में गंवाया जा रहा है तो हमारा फोकस अवश्य ही इस बात पर होना चाहिए न कि उंगली उठाने वालों पर। और यदि सरकार अपनी कमियों (जिन्हें हम विफलताएं नहीं कह सकते) को स्वीकार करती है तो यह उसके लिए सहायी सिद्ध होगा। दुर्भाग्य की बात है कि जब हम मोदी के शासन के अंतिम दो वर्षों में प्रवेश कर रहे हैं तो मुझे आत्मचिंतन की प्रक्रिया कहीं दिखाई नहीं देती। 

और अंत में
कुछ सप्ताह पूर्व मैंने इसी स्तम्भ में लिखा था कि आज असहिष्णुता  के संबंध में हमें जितनी भी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है वे सभी कांग्रेस की देन हैं। मैंने यह भी कहा था कि अब ‘अफस्पा’  के संबंध में पी. चिदम्बरम जो बातें आज कर रहे हैं वह इन गलतियों को खुद सत्ता में रहते हुए ठीक कर सकते थे। इस पर टिप्पणी करते हुए चिदम्बरम ने मुझे संदेश भेज कर मेरे शब्दों पर निराशा व्यक्त की है। उन्होंने लिखा है: ‘‘मैं जब गृह मंत्री था तो मैंने यह राय दी थी कि अफस्पा को रद्द कर दिया जाए या कम से कम इसकी बहुत ही आक्रामक धाराओं में सुधार अवश्य किया जाए। यह मामला सुरक्षा के बारे में मंत्रिमंडलीय समिति में विचारा गया था। 

राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और मैंने मिलकर इन सुधारों का मसौदा तैयार किया था। प्रधानमंत्री का रुख काफी समर्थन भरा था लेकिन मैं रक्षा मंत्री को संतुष्ट नहीं करवा पाया था। इस बारे में मैं लिख और बोल चुका हूं। ‘‘कश्मीर के अनेक इलाकों में से अफस्पा हटा लेने के प्रस्ताव पर मैंने और उमर अब्दुल्ला ने कई बार सेना के साथ चर्चा की लेकिन रक्षा मंत्रालय और रक्षा बलों ने टस से मस होने से इंकार कर दिया था। उमर अब्दुल्ला ने हमारे इस प्रयास के बारे में लिखा और बोला है। यह सब कुछ सार्वजनिक रूप में उपलब्ध है लेकिन ऐसा आभास होता है कि आपके ध्यान में यह बात नहीं आई।’’


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