मोदी एवं शाह की कूटनीति से अब हुआ ‘कश्मीर से कन्याकुमारी’ तक भारत एक

punjabkesari.in Sunday, Aug 11, 2019 - 02:03 AM (IST)

भारत हमारी मातृभूमि है, देव भूमि है। कश्मीर धरती का स्वर्ग कहा जाता है। आदि शंकराचार्य की तप: स्थली है, बाबा अमरनाथ की भूमि है। कश्मीर का निर्माण महर्षि कश्यप ने किया था। इसी कश्मीर को बचाने के लिए नवम् पातशाही श्री गुरु तेग बहादुर जी ने अपना बलिदान दिया था। महाराजा रणजीत सिंह जी ने इसी कश्मीर को बचाने के लिए विदेशी हमलावरों के शासन को सैन्य कार्रवाई करके समाप्त किया था और हिन्दू डोगरा राजाओं को शासन दिलाया था। इसी कश्मीर को बचाने के लिए डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने नारा दिया था कि ‘देश में दो निशान, दो विधान, दो प्रधान नहीं चलेंगे’ और अपना बलिदान दिया था। आज वही कश्मीर आतंकवाद एवं अलगाववाद की आग में झुलस रहा है।

कुछ ऐतिहासिक तथ्य 
कश्मीर विलय में संघ का बहुत बड़ा योगदान था। सन् 1947 में जब देश का विभाजन हुआ, उस समय कश्मीर ने विलय पत्र पर हस्ताक्षर नहीं किए। लगभग 529 रियासतों ने विलय पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए थे। महाराजा हरि सिंह कश्मीर को स्वतंत्र रखना चाहते थे। इसी बीच संघ का एक स्वयंसेवक मुसलमान के छद्मवेष में श्रीनगर स्थित मुस्लिम अधिकारियों के शिविर में घुस गया और उसने पाकिस्तानी आक्रमण की जानकारी प्राप्त कर ली। कश्मीर के संघ के एक प्रमुख कार्यकत्र्ता ने सेना के कमांडर को इस बारे अवगत करा दिया। उधर महाराजा से विलय पत्र पर हस्ताक्षर कराने के प्रयास हो रहे थे, वह अभी मान नहीं रहे थे। 

तत्कालीन गृह मंत्री सरदार पटेल महाराजा के मन की बात जानते थे। अत: उन्होंने गोलवलकर जी (गुरु जी) को उनसे वार्ता करने के लिए भेजा। पटेल को पता था कि महाराजा केवल संघ के तत्कालीन सरसंघचालक गोलवलकर जी की बात को ही मानेंगे। गुरु 17 अक्तूबर 1947 को विमान द्वारा श्रीनगर पहुंचे और महाराजा से बातचीत की और समझाया कि कश्मीर को स्वतंत्र रखना ठीक नहीं है। इसको भारत में शामिल कर देना चाहिए। महाराजा अंतत: विलय पत्र पर हस्ताक्षर करने के लिए मान गए और गुरु जी ने 19 अक्तूबर को वापस आकर इस विलय बारे पटेल को सूचित किया। 

26 अक्तूबर 1947 को महाराजा हरि सिंह ने कश्मीर के भारत में पूर्ण विलय के लिए विलय पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए। भारत के तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड माऊंटबैटन ने 27 अक्तूबर 1947 को उसे स्वीकार करते हुए अपने हस्ताक्षर भी विलय पत्र पर कर दिए। 22 अक्तूबर 1947 को पाकिस्तान ने कश्मीर पर आक्रमण कर दिया। पाकिस्तानी सेना ने 83000 वर्ग किलोमीटर पर कब्जा कर लिया। लगभग 50,000 हिन्दू-सिख मारे गए। इस हमले की पूर्व सूचना संघ के दो प्रचारकों ने महाराजा हरि सिंह को दी थी। कश्मीर का भारत में विलय होने के बाद भारत की सेना कश्मीर घाटी में पहुंची। संघ के कार्यकत्र्ताओं ने सेना की हर प्रकार से सहायता की। एयरपोर्ट पर सड़कें ठीक करने का काम, जल-पान की व्यवस्था। यहां तक कि बारूद पहुंचाने का काम भी संघ के कार्यकत्र्ताओं ने किया। 

भारत की सेना ने श्रीनगर का बहुत-सा भाग पाकिस्तानी सेना से मुक्त करा लिया। भारतीय सेना के कदम जब आगे बढ़ रहे थे तब देश के प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने एक बहुत बड़ी भूल कर दी। सेना के बढ़ते कदम रोक दिए और युद्ध विराम की एकतरफा घोषणा कर दी। सेना के अधिकारियों ने कुछ दिन और मांगे परन्तु उनके परामर्श को भी नहीं माना गया। कश्मीर समस्या को यू.एन.ओ. की सुरक्षा परिषद में भेज दिया। जम्मू-कश्मीर का भू-भाग, जो पाकिस्तान के कब्जे में चला गया है, जिसको पाक अधिकृत कश्मीर कहते हैं, वह अब तक भी पाक के कब्जे में है। उसको मुक्त नहीं करा सके हैं। आज उसी पाक अधिकृत कश्मीर में सैंकड़ों आतंकवादी प्रशिक्षण शिविर चल रहे हैं। पाकिस्तान ने 1963 में एक संधि के अंतर्गत पाक अधिकृत कश्मीर की हजारों वर्ग मील जमीन चीन को भेंट कर दी थी। चीन लद्दाख को अपना हिस्सा मानता है और कश्मीर के शेष भाग को पाकिस्तान का। 22 फरवरी 1994 को हमारी संसद में सर्वसम्मति से प्रस्ताव पास हुआ कि पाक अधिकृत कश्मीर भारत में वापस लेगा। 

अनुच्छेद 370 तथा 35ए
जब जम्मू-कश्मीर का पूर्ण विलय हो गया तब नेहरू ने एक और भयंकर भूल कर डाली। शेख मोहम्मद अब्दुल्ला को सारी जिम्मेदारी सौंप दी और उसके ही कहने पर अनुच्छेद 370 संविधान में जोड़ कर कश्मीर को विशेष दर्जा दे डाला। इस अनुच्छेद के अंतर्गत जम्मू-कश्मीर को अपना अलग संविधान बनाने की अनुमति दे दी गई। अनुच्छेद 370 कश्मीर समस्या की मूल जड़ एवं मुस्लिम तुष्टीकरण का एक दहकता प्रतीक है। प्रारम्भ में तो यह कहा गया था कि यह एक अस्थायी अनुच्छेद है लेकिन हमारे नेता मुस्लिम वोटों के तुष्टीकरण के कारण इस टूटने वाले अनुच्छेद को हमेशा के लिए स्थायी रखना चाहते थे, जो अलगाववाद की जड़ है। डा. भीमराव अम्बेदकर ने पंडित नेहरू को अनुच्छेद 370 के प्रति चेताया था कि यह जम्मू-कश्मीर को, विशेषतया कश्मीर घाटी को भारत के साथ समरस करने में दिक्कतें खड़ी करेगा। आज डा. भीमराव अम्बेदकर की यह चेतावनी सही सिद्ध हो रही है। 

जब शेख मोहम्मद अब्दुल्ला को जम्मू-कश्मीर की सत्ता सौंपी गई, तब नेहरू जी की कृपा से कश्मीर के मुख्यमंत्री को प्रधानमंत्री एवं राज्यपाल को सदरे-रियासत कहा जाता था। भारतीयों को जम्मू-कश्मीर में प्रवेश करने के लिए परमिट (वीजा) बनवाना पड़ता था। शेख के अत्याचारों के विरुद्ध पंडित प्रेमनाथ डोगरा के नेतृत्व में प्रजा परिषद संगठन बना कर लगभग तीन वर्ष तक लड़ाई लड़ी गई। अंत में भारतीय जनसंघ के प्रथम  प्रधान डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने कहा-यदि जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है तो फिर जम्मू-कश्मीर जाने के लिए परमिट क्यों? उन्होंने परमिट व्यवस्था तोड़ कर गिरफ्तारी दी। उनका रहस्यमय  परिस्थितियों में बलिदान हुआ। भारत का शेर पिंजरे में ही शहीद हो गया। डा. मुखर्जी के बलिदान के कारण परमिट सिस्टम समाप्त हुआ। मुख्यमंत्री एवं राज्यपाल पद फिर से बहाल हुए। राष्ट्रपति का शासन वहां तक पहुंचा। 

जम्मू-कश्मीर में अलग संविधान से अनेकों समस्याएं सामने आई थीं। भारत के संविधान में सभी भारतवासियों के लिए एक समान नागरिकता का प्रावधान है परन्तु जम्मू-कश्मीर में दोहरी नागरिकता लोगों को प्राप्त थी, एक भारत की और दूसरी प्रदेश की। भारत सरकार का कोई कानून जम्मू-कश्मीर विधानसभा की अनुमति के बिना लागू नहीं हो सकता था। भारत का नागरिक जम्मू-कश्मीर का नागरिक नहीं  हो सकता था। यहां तक कि राष्ट्रपति भी नहीं। जम्मू-कश्मीर का राज्यपाल यहां का नागरिक नहीं कहलाता था, बाहर का अर्थात विदेशी कहलाता था। भारत में जम्मू-कश्मीर एक ऐसा राज्य है जहां प्रदेश का अलग ध्वज था। जम्मू-कश्मीर की सरकारी गाडिय़ों एवं कार्यालयों पर दो झंडे लहराते थे-एक जम्मू-कश्मीर का, दूसरा भारत का तिरंगा। अनुच्छेद 370 तथा 35ए के अंतर्गत जम्मू-कश्मीर के लाखों लोगों को दूसरे दर्जे का नागरिक बना कर रखा गया था। इन्हें न तो वोट देने का अधिकार था, न ही अपने मकान बनाने का। सरकारी नौकरियां मिलने का सवाल ही पैदा नहीं होता था। ये लोग नर्क का जीवन व्यतीत कर रहे थे। 


कश्मीर समस्या मजहबी कट्टरवाद की है, राजनीतिक नहीं। एक विशेष समुदाय द्वारा अपने बहुमत के आधार पर आजादी मांगी जा रही थी। नैशनल कांफ्रैंस एवं पी.डी.पी. स्वायत्तता एवं स्वशासन जैसे पृथकतावादी मुद्दे उठाती रही थीं। हुर्रियत कांफ्रेंस एवं तहरीक-ए-हुर्रियत तथा अन्य उग्रवादी संगठन सीधे आजादी के लिए सक्रिय हैं। इनके पीछे पाकिस्तान की आई.एस.आई. का हाथ है। सन् 1986 में अढ़ाई से 3 लाख कश्मीरी पंडितों को कश्मीर घाटी से जबरन पलायन करना पड़ा।

फिर कश्मीर घाटी में रह रहे 60-70 हजार सिखों को निकाले जाने का जेहादी फरमान जारी कर दिया गया था। जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले अनुच्छेद को एक झटके में बदल दिया और 35ए, जो नागरिकता बचाने वाला अनुच्छेद था, उसको भी समाप्त कर दिया गया। जम्मू-कश्मीर और लद्दाख अलग-अलग केन्द्र शासित प्रदेश घोषित कर दिए गए। देश में एक निशान, एक विधान, एक प्रधान लागू हो गया। भाजपा ने अपना वायदा पूरा कर दिया और अब कश्मीर से कन्याकुमारी तक केवल तिरंगा ही फहराएगा। आने वाले लोग सदियों तक मोदी और शाह को नहीं भूलेंगे। लोग कहते हैं जो जीता वही सिकंदर आज के बाद लोग कहेंगे जो जीता वही नरेन्द्र-डा. बलदेव राज चावला(पूर्व स्वास्थ्य मंत्री, पंजाब)


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