कश्मीर में ‘आजादी’ का अर्थ भारत से अलग होना

punjabkesari.in Sunday, Aug 28, 2016 - 01:44 AM (IST)

(वीरेन्द्र कपूर): केन्द्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह कश्मीर में गए और वापस भी आ गए हैं। हिंसा थमने का कोई संकेत दिखाई नहीं दे रहा। अब यह चर्चा हो रही है कि केन्द्र कश्मीर के मामले में नई जमीन तलाश करने के लिए प्रासंगिकता रखने वाले सभी वार्ताकारों को किसी न किसी रूप में शामिल करेगा। 

 
सरकार का यह दाव भी निश्चय ही जल्दी फुस्स हो जाएगा। यह सोचना कि खुद को कश्मीर के ‘सच्चे प्रतिनिधि’ बताने वाले लोगों के साथ अनगिनत वार्ताओं के दौर के फलस्वरूप 70 वर्षों से चली आ रही समस्या हल हो जाएगी, खुद को धोखा देने के अलावा कुछ नहीं। जब तक पाकिस्तान की शरारतों पर अंकुश नहीं लगाया जाता तब तक भारत को कश्मीर समस्या के साथ जीना ही पड़ेगा। यदि इस्लामाबाद द्वारा मनोवैज्ञानिक एवं पदार्थक समर्थन वापस ले लिया जाता है तो श्रीनगर में ‘आजादी’ के नारे लगाने वाले लोगों की भी जुबान बंद हो जाएगी। कश्मीर समस्या की हकीकत यही है।
 
कुछ भी हो, जो लोग यह वकालत करते हैं कि पाकिस्तानी झंडे उठा कर ‘आजादी’ के नारे लगाने वालों के प्रति नरम पहुंच अपनाई जानी चाहिए, उन्हें यह भी बताना चाहिए कि कश्मीरियों के लिए इसका क्या अर्थ होगा? इसका यह अर्थ कदापि नहीं हो सकता कि ‘आजादी’ के नारे लगाने वाले केवल यही चाहते हों कि विदेश मामले, करंसी और रक्षा के प्रबंधन को छोड़कर भारतीय सत्तातंत्र अन्य सभी जिम्मेदारियां उन्हें स्वयं पूरी करने दे। 
 
न तो कश्मीरी और न ही पाकिस्तान में बैठे उनके आकाओं ने गत 70 वर्षों दौरान कश्मीर के लिए उस तरह का कोई बलिदान दिया या पीड़ा झेली है जैसे कि भारत ने कश्मीर में तिरंगा फहराए रखने के लिए झेली है। मणिशंकर अय्यर बेशक हमें ‘आजादी’ के कितने भी अलग-अलग तरह के अर्थ निकालकर बताएं, कश्मीर में ‘आजादी’ का अर्थ भारत से अलग होना ही है। कश्मीरी अलगाववादी भारत से अलग होने के अपने वास्तविक इरादों को छुपाने के लिए ही स्वायत्तता का ढोंग रचते हैं।
 
खुद को धोखा देने वाली इस प्रकार की राजनीति ने ही मूल रूप में कश्मीर समस्या को जन्म दिया था। यदि इसी राजनीति को जारी रखा जाता है तो इससे समस्या और भी बदतर होगी। धारा 370 के विशेष संवैधानिक प्रावधान के अंतर्गत कश्मीर वाले पहले ही ढेर सारी स्वायत्तता का सुख भोग रहे हैं। वहां भारत की पकड़ को ढीला करना देश के दुश्मनों को कश्मीर हड़प करने का खुला आमंत्रण होगा। रक्षा, करंसी और विदेश मामलों को छोड़कर नीति निर्धारण के अन्य सभी क्षेत्रों में से भारत के बाहर निकलने का जो सुझाव दिया जा रहा है वह आत्मविनाश का नुस्खा सिद्ध होगा। इससे बेहतर तो यही होगा कि हम खुद ही थाली में परोस कर कश्मीर पाकिस्तान को भेंट कर दें।
 
70 वर्षों तक अलगाववादियों और जेहादियों से लाड़-लड़ाने के बाद अब जरूरत इस बात की है कि भारत के साथ कश्मीर की पहले से भी अधिक एकजुटता को और भी मजबूत किया जाए न कि इसको कम किया जाए। अंतर्राष्ट्रीय समुदाय अब कश्मीर विवाद तक के मामले में भी पाकिस्तान का पक्ष नहीं लेता। वास्तव में अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को कश्मीर में कोई दिलचस्पी नहीं। 
 
जहां तक पाकिस्तान का सवाल है, वह स्वयं गंभीर नस्लीय एवं आतंकी चुनौतियों से घिरा हुआ है। किसी जमाने में इसका मुख्य समर्थक रह चुका अमरीका उसकी गद्दारी और दोगलेपन का अफगानिस्तान और अन्य स्थानों पर भारी मोल अदा कर रहा है। यहां तक कि पाकिस्तान के सदाबहार दोस्त चीन ने भी अपने भू-राजनीतिक हितों के लिए यह संकेत दे दिया है कि वह भारत-पाक झगड़े में नहीं फंसना चाहता।
 
इसके अलावा सभी देशों द्वारा अपनी क्षेत्रीय एकजुटता की आक्रामक ढंग से रक्षा करना एक स्वीकार्य परिपाटी बन चुकी है। भारत को यह दोष नहीं दिया जा सकता कि वह इसकी एकता भंग करने वाले तत्वों के साथ अत्यधिक कठोरता क्यों प्रयुक्त करता है। किसी को भी इस भ्रम में नहीं रहना चाहिए कि हमारे सैकुलरवाद के सपनों का महल अटल रूप में भारतीय सत्तातंत्र में कश्मीर की सदस्यता से स्थायी रूप में जुड़ा हुआ है। 
 
केवल अत्यधिक मूजी लोग ही यह स्वीकार करने से इंकारी होंगे कि सब बातों के बावजूद कश्मीर एक समस्या है, क्योंकि जो लोग ‘आजादी’ की मांग कर रहे हैं वे केवल मुस्लिम ही नहीं बल्कि मुख्य रूप में ‘सुन्नी मुस्लिम’ हैं जोकि सीमा पार अपने सहधर्मियों के साथ बहुत घनिष्ठ रूप में जुड़े हुए हैं। हां, यह सच्चाई है कि ऊपरी तामझाम को हटा दिया जाए तो कश्मीर समस्या मूल रूप में साम्प्रदायिक समस्या है।
 
देश भर में जो लोग एक विशिष्ट सामुदायिक या साम्प्रदायिक पहचान की राजनीति की ङ्क्षनदा करते हैं, जब भारत में सबसे विषैले रूप में इस नीति का प्रयोग कर रहे कश्मीर की बात चलती है तो यही लोग इस तथ्य से आंखें मूंद लेते हैं। गत कुछ समय से पाकिस्तान की ओर झुकाव रखने वाले आम तत्वों के अलावा मूलवादी इस्लामपरस्त भी कश्मीर में अपने पांव पसार रहे हैं।
 
नुक्ता यह है कि सरकार घिसे-पिटे ढर्रे पर चलते हुए कश्मीर में सभी मुद्दइयों से वार्ताओं के जाने-पहचाने दौर की कवायद कर सकती है, लेकिन इसका नतीजा पहले जैसा ही होगा। यानी कि अपेक्षाकृत शांति कुछ समय के लिए जारी रहेगी और फिर आई.एस.आई. की शह पर गड़बड़ी का एक नया दौर शुरू हो जाएगा। क्या हम ये सब कुछ पहले ही नहीं देख चुके हैं?
 
 इसी बीच पी. चिदम्बरम कश्मीर में 1947 वाली स्थिति बहाल करना चाहते हैं और मणिशंकर अय्यर ‘लड़कों’ के लिए ‘आजादी’ चाहते हैं। गृह मंत्री को चाहिए कि इन दोनों महानुभावों से उनके सही-सही प्रस्ताव लिखित रूप में मांगें ताकि हमें पता चल सके कि उनके सुझाव वास्तविक रूप में कार्यान्वित करने पर किस प्रकार का रूप धारण करेंगे। 
 
दोनों ही मामलों में हमें डर है कि कश्मीर भारत का अंग नहीं रहेगा। भारत द्वारा कश्मीरियों को सम्पूर्ण स्वायत्तता दिए जाने के कुछ ही घंटों के भीतर पाकिस्तानी जनरल इसकी बोटियां नोच कर यहां कब्जा कर लेंगे। वैसे हम चिदम्बरम को यह उलाहना नहीं देंगे कि जब वह नार्थ ब्लाक के सर्वेसर्वा थे तब उन्होंने 1947 वाली स्थिति बहाल क्यों नहीं की थी? बातें करने का कौन-सा कोई पैसा लगता है? ऊपर से सस्ती शोहरत भी हासिल होती है। ये दोनों महानुभाव बस यही काम कर रहे हैं।
 
मीडिया का कश्मीर के पक्ष में झुकाव
जिस भी समाचार पत्र को उठाओ उसमें कश्मीर में कफ्र्यू तोडऩे वालों और पत्थरबाजों की दुखद स्थिति के बारे में खूब रोना-धोना होता है लेकिन सुरक्षा बलों की दुर्दशा के बारे में मुश्किल से ही कभी संज्ञान लिया जाता है। क्यों? जहां लगभग 2 महीने से कश्मीर अधिकतर समाचार पत्रों के प्रथम पृष्ठ पर छाया हुआ है, वहीं एक भी ऐसी रिपोर्ट प्रकाशित नहीं हुई जिसमें बताया गया हो कि सुरक्षाकर्मियों को किस प्रकार की कठिन परिस्थितियों में काम करना पड़ता है। 
 
वे अपनी बैरकों में मुर्गों की तरह बंद रहते हैं। उनके बाहर जाने पर पाबंदी है क्योंकि किसी भी समय आतंकी ग्रेनेडों से या घात लगाकर हमला कर सकते हैं। सुरक्षा बलों को रोजमर्रा की रिहायशी सुविधाएं पूरी तरह उपलब्ध नहीं हैं। ड्यूटी देते समय उन्हें लगातार गंभीर चोट लगने अथवा प्रदर्शनकारियों द्वारा फैंके गए ग्रेनेडों व पत्थरों से मौत तक होने का खतरा बना रहता है।
 
क्या अंग्रेजी मीडिया की पूरी तरह एक तरफा रिपोॄटग का कारण यह है कि अधिकतर अंग्रेजी अखबार संवाददाताओं के रूप में स्थानीय कश्मीरियों की सेवाएं लेते हैं। यदि यही समाचार पत्र असम और उड़ीसा जैसे राज्यों में दिल्ली से संवाददाता तैनात कर सकते हैं तो कश्मीर के बारे में रिपोॄटग के मामले में वे केवल कश्मीरियों पर ही निर्भर क्यों हैं? क्या निष्पक्ष रिपोॄटग के लिए इस डर पर काबू नहीं पाया जा सकता?
 

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