भारत-चीन लम्बे समय तक आपसी तनाव में नहीं रह सकते

punjabkesari.in Wednesday, Jul 26, 2017 - 12:22 AM (IST)

पिछले हफ्ते जब मैं चीनी विश्वविद्यालयों के लैक्चर टूर पर था, तो उस दौरान सीमा अतिक्रमण को लेकर भारत और चीन के बीच जबरदस्त तनाव बना हुआ था। चीनी छात्रों में भारत को लेकर उत्सुकता थी। उन्होंने मुझसे शाक्यमुनि बुद्धा से लेकर आमिर खान तक के बारे में सवाल किए लेकिन आश्चर्यजनक रूप से सीमा का सवाल कहीं नहीं आया। भारत और चीन के रिश्ते सिर्फ ताजा इतिहास, युद्ध और सीमा अतिक्रमण से निर्देशित नहीं होते, बल्कि इतिहास के पुराने किस्सों में भी इनकी जड़ें हैं। 

यह कभी एक शांत सीमा नहीं थी: साल 1841 में सिख साम्राज्य के जनरल जोरावर सिंह कहलूरिया ने 5000 जवानों की सेना के साथ लद्दाख के रास्ते तिब्बत में प्रवेश किया और मानसरोवर झील पार कर लद्दाख से नेपाल का अद्र्धचंद्र बनाते हुए गारटोक और तकलाकोट पहुंचे। सर्दियों की शुरूआत में 1841 में तोयो के संग्राम में भारी नुक्सान उठाने के बाद सेना वापस लौटने लगी तो किंग साम्राज्य की सेना ने पीछा शुरू किया और लद्दाख की तरफ  बढ़ते हुए लेह पर घेरा डाल दिया लेकिन सिख सेना को जम्मू से मदद आ जाने के बाद चीनी सेना को खदेड़ दिया गया और चुलशुल के संग्राम (1842) में उन्हें हरा दिया। सीमा पर ऐसी झड़पें यदा-कदा होती ही रहती थीं। सम्राट तांग ताइजोंगाप्पारेंटली ने 648 ईस्वी में मगध को दंडित करने के लिए वांग जुआंस के नेतृत्व में करीब 8,000 सैनिक भेजे थे। हिमालय के दोनों तरफ बसे दोनों देशों का एकांत वास्तव में एक ऐतिहासिक विसंगतिहै। 

चीन के अपना प्रभाव बढ़ाने और भारत की सहनशीलता की क्षमता परखने के चलते बीते कुछ वर्षों में सीमा अतिक्रमण की घटनाएं काफी बढ़ गई हैं। भारत की प्रतिक्रिया परखी गई और आत्मसात कर ली गई। भारत ने दिखा दिया है कि वह अपनी बात पर अडिग रहता है और जरूरत पडऩे पर नरमी भी दिखा सकता है। इस समय जबकि दोनों देश उन्माद बढ़ा रहे मीडिया के उकसावे में आमने-सामने तन कर खड़े हैं, तनाव बढऩा लाजमी है। दोनों देशों के बीच मुद्दों में तिब्बत भी हमेशा शामिल रहेगा। अगर ऐसे ही झड़पें चलती रहीं तो सीमा विवाद को हल करने में दशकों लग जाएंगे। 

गतिरोध खत्म करने के लिए आमने-सामने बैठ कर बात करनी ही होगी, जिसमें सीमा विवाद को कूटनीतिक सिद्धांतों पर आधारित उचित और तर्कसंगत तरीके से हल किया जा सके। इस प्रक्रिया, जो हालांकि जटिल है, में जहां हमारे हित सांझा  हैं, हमें अर्थपूर्ण सहयोग से पीछे नहीं हटना चाहिए। जलवायु परिवर्तन का सामना करने और पश्चिमी बाजारों में, खासकर सर्विस सैक्टर में हिस्सेदारी बढ़ाने में हमारा लक्ष्य एक समान है। ऐसा सहयोग भी आश्चर्यजनक मोड़ ला सकता है। शंघाई कोऑप्रेशन ऑर्गेनाइजेशन (एस.सी.ओ.) की सदस्यता का मतलब होगा कि चीन, भारत और पाकिस्तान एक साथ सैन्य अभ्यास तक कर सकते हैं। 

व्यापार में अपना फायदा बढ़ाएं: वर्ष 1403 में चीन में मिंग राजवंश के यांगले सम्राट जू दी ने जहाजों के एक बेड़े के निर्माण का आदेश दिया, जो एडमिरल जेंग ही के नेतृत्व में 7 समुद्री यात्राओं पर गया। 1405 में पहली यात्रा में जहाजी बेड़ा चंपा,  जावा, मलक्का, अरू, सिलोन, क्विलोन और कालीकट पहुंचा। इनमें से एक जहाज अलग होकर अंडमान-निकोबार द्वीप समूह भी गया। साल 1407 में दूसरी यात्रा में जहाजी बेड़े ने कोचीन और कालीकट में लंगर डाला और कालीकट के शासक पद पर माना विकरान के राज्याभिषेक में शामिल होता हुआ फिर इन्हीं बंदरगाहों से गुजरा। इसी यात्रा में समुद्री बेड़े की मदद से पश्चिमी जावा के राजा को दंडित किया जाना भी हुआ। 

1409 में तीसरी यात्रा के दौरान समुद्री बेड़े का 1411 में सिलोन के राजा अलकेश्वरा से सैन्य संघर्ष, कोट्टे पर हमला और राजा अलकेश्वरा को बंदी बनाकर बीजिंग ले जाने की घटनाएं हुईं। ‘‘वन बैल्ट वन रोड’’ (ओ.बी. ओ.आर.) अब हकीकत बन रहा है और हम वही घटनाएं फिर से दोहराई जाती देख रहे हैं, जिनमें चीनी जहाज हिंद महासागर के प्रमुख देशों से गुजर रहे हैं, निवेश झोंक रहे हैं और फायदेमंद व्यापारिक रिश्ते स्थापित कर रहे हैं। जिबूती और गवादर में नौसेना बेस बनाए जा रहे हैं। भारत ने अपने पैर जमा रहे देसी उद्योगों को चीनी फैक्टरियों के सामानों की भारी सप्लाई से बचाने के लिए कड़ाई बरत कर समझदारी दिखाई। भारत को बंगलादेश, चीन, भारत और म्यांमार (बी.सी.आई.एम.) कॉरिडोर का इस्तेमाल व्यापार बढ़ाने के साथ ही उत्तर-पूर्व में रोजगार और बुनियादी ढांचा बढ़ाने के लिए करना चाहिए। हमें पाकिस्तान द्वारा किए गए दुर्भाग्यपूर्ण चुनाव से सबक लेते हुए पूरी सावधानी से चीन के निवेश विकल्पों में से अपने लिए सही चुनाव करना चाहिए। 

हमें अपने दायरे में रहते हुए मैन्युफैक्चरिंग क्षमता को बढ़ाने और रोजगार को सहारा देने के लिए औद्योगिक अर्थव्यवस्था में फॉक्सकॉन और बी.वाई.डी. जैसी चीनी कम्पनियों के निवेश को बढ़ावा देना होगा। उनके लिए हमारे बाजारों में प्रवेश को खुला रखना होगा, वह चाहे इलैक्ट्रॉनिक्स हो या ऑटोमोटिव (इलैक्ट्रिक कार को बढ़ावा देने के लिए जरूरी होगा कि इलैक्ट्रिक कार निर्माता, जो कि अधिकांशत: चीनी हैं, भारत में कार बनाएं।) हमें अगले पांच सालों में बुनियादी ढांचे में करीब 455 अरब डॉलर निवेश की जरूरत होगी। चीनी बैंक यह मदद मुहैया करा सकते हैं बशर्ते उन्हें मनमाफिक मार्कीट रेट मिले। फिर भी, जैसा कि जेंग ही के जमाने में था, चीन को एशिया पर राज करने और अपने अधिक उत्पादन (जिसमें कैपिटल गुड्स से लेकर हाईस्पीड रेल, स्टील और सोलर पैनल शामिल हैं) को खपाने के लिए भारत की स्ट्रैटेजिक लोकेशन और बाजारों तक पहुंच बनाने की जरूरत होगी। देश के समग्र राष्ट्रीय सामथ्र्य निर्माण में चीनी फाइनैंस और विशेषज्ञता के इस्तेमाल से हमें भविष्य में अच्छी बढ़त मिलेगी। 

सांस्कृतिक आदान-प्रदान: 627 ईस्वी में एक युवा चीनी भिक्षु जुआनजेंग ने एक सपना देखा, जिससे प्रभावित होकर वह चीन से भारत की यात्रा पर निकल पड़ा। यही जुआनजेंग भारत में व्हेनसांग के नाम से मशहूर है। उसकी लिखी किताब ‘पश्चिम की यात्रा’ जोकि चीनी साहित्य के 4 महानतम क्लासिकल नॉवेलों में से एक है, में दर्ज ब्यौरे के अनुसार वह बामियान, पुरुषापुरा (अब पेशावर), तक्षशिला, जालंधर, मथुरा, नालंदा, अमरावती, कांची, अजंता और प्रगज्योतिशपुरा (अब गुवाहाटी) होता हुआ 630 ईस्वी में भारत पहुंचा और 645 ईस्वी में वापस चांगान पहुंचा। अपनी यात्रा के दौरान वह कई बौद्ध गुरुओं के सम्पर्क  में आया। वह अपने साथ 657 संस्कृत किताबें ले गया और फाक्सियांग बौद्ध स्कूल की स्थापना की। उसकी यात्रा भारत और चीन की दोस्ती का सबसे यादगार अध्याय है, जो दुश्मनी के बीच दोस्ती का हाथ बढ़ाने को प्रोत्साहित करता है। 

दो अलग राजनीतिक प्रणालियों वाले देश होने के बावजूद दोनों देशों ने ऐतिहासिक रूप से विचार और सामान का आदान-प्रदान किया है। इसके लिए भले ही रास्ता सिल्क रूट से लेकर बंदरगाह तक कुछ भी रहा। आसानी से यह कह देना कि भारत और चीन हाथ में हाथ डाले दोस्तों की तरह व्यवहार करेंगे, बहुत दूर की कौड़ी लगता है लेकिन हम एक-एक कदम बढ़ाते हुए रिश्तों को अधिक स्थायी और परस्पर फायदेमंद बना सकते हैं। हमें अपने रक्षा हितों के प्रति कठोर रहना चाहिए लेकिन इससे सांझीदारी की गुंजाइश तो खत्म नहीं हो जाती। भारत और चीन, दो प्राचीन सभ्यताओं वाले देश लंबे समय तक तनातनी के साथ नहीं रह सकते। 3.6 अरब लोगों के बीच का यह रिश्ता, एशिया और इससे भी आगे दुनिया का भाग्य तय करेगा।                


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