भ्रष्टाचार को लेकर कब तक शर्मिंदा होता रहेगा भारत

punjabkesari.in Saturday, Feb 11, 2017 - 12:19 AM (IST)

केन्द्र हो या राज्यों की सरकारें, सभी की मंशा भ्रष्टाचार के मामलों में एक जैसी नजर आती है। ट्रांसपेरैंसी इंटरनैशनल की ताजा रिपोर्ट सरकारों की मंशा पर सवाल उठाने के लिए काफी है। भ्रष्टाचार की नई वैश्विक रैंकिंग में भारत का स्थान 79वां है। देश और प्रदेशों में सत्ता किसी भी राजनीतिक दल की हो पर भ्रष्टाचार में सुधार के मामलों में सभी का रवैया एक जैसा नजर आता है। सभी राजनीतिक दल इस पर लगाम कसने का दावा खूब बढ़-चढ़ कर करते नजर आते हैं। हकीकत में इसका उलटा दिखाई देता है। 
ऐसा शायद ही कोई राजनीतिक दल हो जो भ्रष्टाचार मिटाने का चुनावी वायदा नहीं करता हो। विपक्ष में जो भी दल होता है, उसे केन्द्र या राज्यों के सत्तारूढ़ दलों में भारी भ्रष्टाचार दिखाई देता है। जैसे ही विपक्षी दल सत्ता में आता है, तो वही भ्रष्टाचार गायब हो जाता है। उसका जिक्र तक नहीं किया जाता।

सी.एच.आर.आई. और एन.सी.आर.बी. की एक संयुक्त रिपोर्ट के मुताबिक बीते डेढ़ दशक में भ्रष्टाचार के कुल 53 हजार मामले दर्ज किए गए। इनमें 70 प्रतिशत मामले सरकारी विभागों, 75 प्रतिशत पुलिस, 30 प्रतिशत निजी क्षेत्र और 12 प्रतिशत बीमा से जुड़े निजी क्षेत्र के रहे। सरकार की स्टार्ट अप नीति भी भ्रष्टाचार के कारण गति नहीं पकड़ पा रही है। सभी राजनीतिक दलों के भ्रष्टाचार पर दोहरे मानदंड हैं। मसलन जब विपक्ष में हो तो खूब हल्ला मचाओ और सत्ता में आते ही सब पाक साफ।

ऐसे में सत्तारूढ़ दल को पूर्ववर्ती सरकारों के कारनामे नजर नहीं आते। यह महामारी चुनाव में राजनीतिक दलों का प्रचार प्रमुख हथियार बन गया है। हर राजनीतिक दल इस मामले में खुद को उसी तरह साफ-सुथरा बताते हुए नहीं थकता, जैसे गंभीर अपराध के आरोपियों को टिकट देने के मामलों में। हर दल को दूसरे दल में अपराधी नजर आते हैं, अपने दल के अपराधियों की तुलना भी इस आधार पर की जाती है कि दूसरे दल में उससे कम हैं या फिर उन पर उतने संगीन अपराध नहीं हैं, जितने कि सामने वाले दल के उम्मीदवारों पर हैं। मानो ऐसे कुतर्क करने से उनकी करतूतें माफ हो जाएंगी। कोई उन पर उंगली नहीं उठाएगा।

इतना ही नहीं, चुनावी मौकों पर दूसरे राजनीतिक दलों से गठबंधन होने पर उनके कार्यकाल में भ्रष्टाचार के मामलों की पूरी तरह उपेक्षा की जाती रही है। यदि सीटों का तालमेल न बैठे तो फिर से भ्रष्टाचार का राग अलापा जाता है। जैसे इन दिनों उत्तर प्रदेश में देखने को मिल रहा है जिस कांग्रेस ने समाजवादी पार्टी के भ्रष्टाचार को लेकर सालों तक जंग जारी रखी, सीटों का समझौता होते ही उसके सुर बदल गए। उसी कांग्रेस को अब सपा पवित्र गाय नजर आने लगी। पंजाब में अकाली दल पर चुप्पी साधे रहना भाजपा की मजबूरी बन गई। इससे यही लगता है कि राजनीतिक दलों ने सत्ता हथियाने के लिए दुरभि संधि कर रखी है।

गठबंधन दल आपस के मामले गिनाने के बजाय चुनावी मैदान में खड़े विपक्षी दलों के पुराने कार्यकाल में भ्रष्टाचार पर खूब विलाप करते हैं। इतना ही नहीं, सत्ता प्राप्त करते ही दूसरे दलों के पुराने कार्यकाल में जिन मामलों में भ्रष्टाचार के आरोप लगाए जाते हैं, उनकी जांच कराने से कतराते हैं। ज्यादा बड़ा प्रकरण हो तो जांच तो करवाई जाती है, पर उसकी रफ्तार इतनी सुस्त रहती है कि विपक्ष के खिलाफ  उसे हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जा सके। विपक्षी दल जैसे ही सत्तारूढ़ दल के खिलाफ  भ्रष्टाचार को लेकर मुंह खोलता है, वैसे ही पिछले मामलों में जांच की तलवार दिखा कर चुप करा दिया जाता है। यही वजह है कि केन्द्र की भाजपा सरकार ने अभी तक राहुल-सोनिया तथा राबर्ट वाड्रा के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की जबकि लोकसभा चुनाव के दौरान इन पर आरोपों की झड़ी लगा दी थी।

इस मामले में क्षेत्रीय सत्तारूढ़ दलों को तो मानो किसी का डर ही नहीं है। केन्द्र सरकार यदि कार्रवाई करने का प्रयास करती है तो इसे अनावश्यक दखलअंदाजी करार दिया जाता है। जैसे पश्चिमी बंगाल में चिटफंड के आरोपी सांसद-मंत्रियों की सी.बी.आई. धरपकड़ को लेकर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी हाय-तौबा मचा रही हैं। केन्द्र सरकार भी ज्यादातर मामलों में कार्रवाई करने से कन्नी काटती है। पता नहीं चुनाव में राजनीतिक ऊंट किस करवट बैठे। सत्ता में आने के लिए किस क्षेत्रीय दल से समझौता करना पड़ जाए। इतना ही नहीं, केन्द्र में चाहे कांग्रेस की सरकार रही हो या भाजपा गठबंधन की, क्षेत्रीय दलों के अलावा राज्यों में अपने ही दलों की सरकारों के काले कारनामों से मुंह चुराए रहती हैं।यही वजह है कि इन दोनों दलों ने भ्रष्टाचार के मामलों में अपने दल या गठबंधन दल के किसी मुख्यमंत्री के खिलाफ  कार्रवाई नहीं की, बल्कि बचाव की ढाल बनने का काम ही किया।
ऐसे हालात में राजनीतिक दलों का भ्रष्टाचार के खिलाफ हुंकार भरना हास्यास्पद ही ज्यादा लगता है।

इसकी सफाई जब तक अपने दल की सरकारों से शुरू नहीं की जाएगी तब तक भ्रष्टाचार को लेकर कोई भी कितना ही दावा क्यों न कर ले, यह गंदगी साफ नहीं होगी। इसके लिए जीरो टोलरैंस नीति बनाने की जरूरत है। वैसे भी केन्द्र सरकार ने नोटबंदी का प्रमुख कारण भ्रष्टाचार माना। यह भी पूरा नहीं हो सका। नोटबंदी के दौरान बैंकों में ही भ्रष्टाचार के सर्वाधिक मामले पकड़े गए। ऐसे मामलों की संख्या का अंदाजा लगाना मुश्किल है, जोकि एजैंसियों के सीमित संसाधनों की वजह से पकड़ में नहीं आ सके। 
देश के सहकारी बैंकों ने काले धन को सफेद करने में कोई कोर कसर बाकी नहीं रखी। सर्वाधिक मामले भी भाजपा शासित राज्यों राजस्थान, मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र में पकड़े गए। केन्द्र ने इन तीनों राज्यों की सरकारों के खिलाफ  कोई कार्रवाई नहीं की। यही मामला यदि कांग्रेस के राज्यों का  होता तो केन्द्र सरकार नाक  में  दम  किए बगैर नहीं रहती। 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों में इसे जम कर भुनाया जाता।

नोटबंदी और 3 साल का कार्यकाल पूरा होने के बाद भी केन्द्र सरकार यह दावा नहीं कर सकती कि एक भी केन्द्रीय विभाग पूरी तरह भ्रष्टाचार से मुक्त हो गया है। यही दावा भाजपा शासित राज्यों में भी नहीं किया गया। इसके विपरीत भ्रष्टाचार का जब भी कोई बड़ा मामला पकड़ में आता है तो केन्द्र और राज्यों की सरकारें यही दलील देती नजर आती है कि किसी को बख्शा नहीं जाएगा। जब तक दृढ़ इच्छा शक्ति, पारदॢशता और दलगत भावनाओं से ऊपर उठकर भ्रष्टाचार पर प्रहार नहीं किया जाएगा तब तक विश्व में भारत इसकी रैंकिंग को लेकर ऐसे ही शर्मिंदगी का सामना करता रहेगा।


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