अब 2019 की ऊबड़-खाबड़ राह पर भारत अतीत में की गई गलतियां नहीं दोहरा सकता

punjabkesari.in Saturday, Dec 15, 2018 - 04:45 AM (IST)

11 दिसम्बर के ऐतिहासिक फैसले से परे देखते हुए मेरा मुख्य ध्यान अब लम्बे इंतजार वाले मई-2019 के लोकसभा के चुनावों पर केन्द्रित होगा। इतिहास में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के मूल्यांकन का मापदंड इन बातों से होगा कि क्या उन्होंने अपने द्वारा किए गए वायदों को जमीनी स्तर पर निभाया। मैं इस कारण प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तथा भाजपा पर अपनी कोई निजी टिप्पणी नहीं करना चाहता। इन बातों को मैं इतिहास पर छोडऩे वाला हूं। दशकों से राष्ट्रीय मुद्दों के आकलन को निष्पक्ष देखते हुए मेरा कार्य हमारे महान राष्ट्र के उत्थान के लिए साढ़े चार सालों की उपलब्धियों को देखना होगा।  मैं यह प्रश्र  उठाना चाहता हूं और इसे निष्पक्ष तौर पर देखना चाहता हूं कि गरीबों, आदिवासियों, वंचित लोगों तथा जनसंख्या के एक कमजोर वर्ग व अल्पसंख्यकों के लिए मोदी ने क्या काम किया है?  

सशक्त केन्द्र
भारतीय हालातों में एक सशक्त केन्द्र आपसी भरोसे तथा विश्वास पर आधारित होता है और संघीय  इकाइयों के कमजोर होते हुए एक  मजबूत केन्द्र की कल्पना भी नहीं की जा सकती। यह एक ऐसे सिस्टम को बनाने जैसा है जिसमें मजबूत केन्द्र तथा राज्यों में लोगों की एक-सी भागीदारी रहे। यह राजनीतिक खींचातान का मामला नहीं। जरूरत आपसी मेलजोल वाले संघवाद की है जिसका जिक्र प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने किया था। आज, मोदी सरकार की मुख्य चुनौतियों में आॢथक मोर्चे पर ईंधन की कीमतें, रुपए का गिरता स्तर, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक, आर.बी.आई. का चालू खाता घाटा, वित्तीय घाटा तथा कृषि क्षेत्र की अर्थव्यवस्था में एक बड़ी दरार शामिल है। कोई भी व्यक्ति दिल्ली में हाल ही में आयोजित किसानों की विशाल रैली को नकार नहीं सकता। संसद मार्ग की ओर 200 किसान समूहों का प्रतिनिधित्व 50,000 से ज्यादा किसानों ने किया। 

अगर हम पीछे की ओर देखें तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी मई-2014 में ज्यादा रोजगार तथा अर्थव्यवस्था में सुधार के वायदे के साथ सत्ता में आए थे। मसला यह है कि प्रत्येक वर्ष काम ढूंढने के लिए निकलने वाले 50 लाख युवाओं का ध्यान कौन करेगा? एक निष्पक्ष ङ्क्षथक टैंक के अनुसार 2017 में सरकार ने मात्र 1.43 मिलियन रोजगार जुटाए थे। क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी 2019 के चुनावों से कुछ ही माह की दूरी पर  खड़े हैं इसलिए यह उनके ऊपर निर्भर है कि वह अपने प्रमुखता वाले राम मंदिर या अधूरे विकास एजैंडों को पार्टी के घोषणापत्र में कैसे शामिल करें? 

भारत बदलो मुहिम और मोदी
प्रधानमंत्री के सत्ता में शुरूआती महीनों के दौरान मैं मोदी की भारत बदलो मुहिम से बेहद प्रभावित हुआ। अभी भी मैं यह देखने के लिए बैठा हूं कि भारत के चेहरे में बदलाव की दिशा किस ओर जा रही है? मैं ऐसे  किसी भी राजनीतिक संगठन के खिलाफ हीन भावना नहीं रखता जो संविधान के मापदंडों के भीतर रह कर कार्य करते हैं और बिना किसी भेदभाव के लोगों के सभी वर्गों के लिए तथा देश के बेहतर भविष्य के लिए ईमानदारी से कार्य करते हैं जिनके बारे में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सार्वजनिक रूप से बातें करते थे। हालांकि प्रधानमंत्री का ध्यान कहीं  हट गया। इसी तरह उनकी प्राथमिकताएं भी भटक गईं। नरेन्द्र मोदी अटल बिहारी वाजपेयी का अनुसरण करते आए हैं और मैं इसका जिक्र अपनी लेखनी में भी करता आया हूं। मैं उम्मीद करता हूं कि मोदी ने वाजपेयी के पदचिन्हों का अनुसरण किया। ग्रामीण-शहरी स्तर की सच्चाइयों पर अपनी पकड़ मजबूत बनाई। हमने देखा है कि 5 राज्यों के नतीजों के बाद भी मोदी की प्रसिद्धि का ग्राफ कम नहीं हुआ। भारत जैसे गरीब विकासशील देश में नरेन्द्र मोदी ने अमीरों का साथ देने वाला व्यक्ति कहलाने से गुरेज किया। 

राम मंदिर का मुद्दा
आम चुनावों के मौके पर अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण को याद करने वाले लोगों को अंतर्रात्मा टटोलनी चाहिए। अब यह संघ परिवार, प्रधानमंत्री  मोदी तथा उनके सलाहकारों पर निर्भर है कि वे राम मंदिर के निर्माण के लिए आपसी मेलजोल की अनुपस्थिति में देश की सर्वोच्च अदालत की राह पर चलने हेतु संसदीय कानून की डगर पकड़ते हैैं  या नहीं। यदि संघ परिवार तथा प्रधानमंत्री मोदी बड़े उद्धार ढंग से देश के संवेदनशील मुद्दों की ओर देखते हैं तो फिर अयोध्या-राम मंदिर का मुद्दा भी मैत्रीपूर्ण तरीके से सुलझाया जा सकता है। इस संदर्भ में वह 1993 की नरसिम्हा राव सरकार की योजना को आम सहमति से अपनाए गए मार्ग से देखें। ऐतिहासिक सचेत लोगों के बीच इतिहास शायद ही कभी-कभार अपने आपको दोहराता है। एक उदार जीवंत लोकतंत्र होते हुए भारत पूर्व में की गई गलतियों को दोहरा नहीं सकता।-हरि जयसिंह


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Pardeep

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