इस भरी दुनिया में हम तन्हा नजर आने लगे

punjabkesari.in Monday, Aug 15, 2022 - 04:29 AM (IST)

आजादी के बाद से पिछले 3 दशकों में हम में से कई लोगों पर पहचान का बोझ पड़ा है। हिंदू बहुसंख्यकवाद की ओर झुकाव ने इस भावना को चिंता के एक बिंदू तक बढ़ा दिया है। मुझे पता है कि लोग 24/7 इसकी चपेट में हैं। बहुसंख्यकवाद को भड़का कर आप पर टिकी पहचान एक तरह का अकेलापन पैदा करती है।‘‘

इस भरी दुनिया में हम तन्हा नजर आने लगे।’’ इस मनोदशा को रेंगने वाले निराशावाद के लिए गलत किया जा सकता है। यह एक भूल होगी जिसे समझाना मुश्किल है। अपनी खिड़की से कभी जोश मलीहाबादी देखते हैं कि अंधेरा धीरे-धीरे ब्रह्मांड के बर्तन को भरता जाता है। क्या दिन के रात में परिवर्तन से प्रेरित मनोदशा को उदासी के रूप में वर्णित किया जा सकता है? नहीं। मलीहाबादी कहते हैं, नहीं। यह एक ‘सूक्ष्म’ अकथनीय मनोदशा का अनुभव है। 

‘‘जिस तरह कोहरे पे हो जाता है बारिश का गुमान’’(कभी-कभी धुंध बारिश का एक प्रकाशीय भ्रम पैदा करती है।) पीड़ित होने की कहानियों को अलग रखा जाना चाहिए क्योंकि एक बड़ी त्रासदी हमारे चेहरे के सामने है। संविधान खतरे में है। लेकिन मुझे काले घने बादलों से अपनी आंखें हटाने के लिए क्षमा किया जाना चाहिए क्योंकि मैं कभी-कभी कहने योग्य स्तरों पर उस मंत्र से विचलित हो जाता हूं। 

‘‘मुसलमान के दो स्थान
कब्रिस्तान या पाकिस्तान’’ या फिर बुल्डोजर 

इस उदासी से कोई एक बच निकलता है। यह 15 अगस्त 1949 की बात है। रायबरेली में मेरे चाचा के घर का बरामदा कांग्रेस के रईसों से भरा पड़ा है। यह सब सफेद चादर से ढके फर्श पर बैठे हुए हैं। यह मुझे डराने वाले दर्शक हैं। मैं 9 साल का हूं। मेरी घबराहट की कल्पना कीजिए। जब मुझे मेरे चाचा राय बरेली के पहले कांग्रेस विधायक ने कैफी आजमी को आजादी पर कविता सुनाने के लिए आमंत्रित किया : 

‘नए हिंदुस्तान में हम नई जन्नत बसाएंगे,
हम अब की गुंचे-गुंचे को चमनबंदी सिखाएंगे।’ (स्वतंत्र भारत में हम स्वर्ग का निर्माण करेंगे। हम हर नवोदित फूल को बगीचे के तरीके सिखाएंगे) 

रायबरेली ने मेरी कल्पना को 1857 तक पंख लगा दिए। जब मेरे पूर्वज मीर बक्कर और उनके 12 साथियों को कोलैक्टोरेट के बाहर एक ईमली के पेड़ से अंग्रेजों ने फांसी पर लटका दिया था। मीर बक्कर राणा बेनी माधव को आदमियों और सामग्री को नियमित तौर पर आपूर्ति कर रहे थे। राणा बेनी माधव ने अंग्रेजों के साथ बेगम हजरत महल को लडऩे और उसके बाद नेपाल भागने में मदद की थी। मीर बक्कर के पोते मीर वाजिद अली मेरे परदादा थे। 

प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के प्रति महात्मा गांधी का दृष्टिकोण क्या रहा होगा? खैर, उन्होंने 1922 में चौरी-चौरा आंदोलन को वापस ले लिया क्योंकि असहयोग के समर्थन में प्रदर्शनकारी पुलिस से भिड़ गए। 

1946 में ब्रिटिश भारतीय नौसेना के खिलाफ ‘निजी’ और नाविकों द्वारा विद्रोह ने लंदन में ऐसी दहशत फैलाई कि प्रधानमंत्री एटली ने कैबिनेट मिशन को भेज दिया। लेकिन महात्मा गांधी और स. पटेल विद्रोहियों के खिलाफ थे। इस मौके पर नेहरू भी पिं्रस हैमलेट की तरह दिखे। पंडित नेहरू पर हमारे बड़ों ने कैसे हमें लाइन में रखा। अब मैं उनके उपनाम से उनका उल्लेख करने के लिए स्वतंत्र हूं। मेरे बचपन के दिनों में यह अपवित्रता थी। उनका उल्लेख ‘पंडित जी’ या ‘पंडित नेहरू’ के रूप में किया जाना था। यदि मैं मुस्तफाबाद से लेकर लखनऊ तक के सीमित अनुभव में एक्स्ट्रापोलेट करूं तो 1964 में उनकी मृत्यु तक भारतीय मुसलमानों के नेहरू निर्विवाद नेता थे। 

मेरे दादा ने निर्विवाद विश्वास के साथ घोषित किया कि पंडित नेहरू कभी भी देश का बंटवारा नहीं होने देंगे। 3 जून 1947 के बाद भी विभाजन योजना की घोषणा की गई। मुस्तफाबाद की जनता पंडित जी में विश्वास कर उनके साथ चिपकी हुई थी। उन्हें लगा कि इस मुसीबत से कुछ उपाय ढूंढ लेंगे। जश्र में मौलाना आजाद और खान अब्दुल गफ्फार खान को गले लगाएंगे। 

घटनाओं ने एक विपरीत मार्ग का अनुसरण किया। कांग्रेस वर्किंग कमेटी की महत्वपूर्ण बैठक में मौलाना आजाद ने घबरा कर सिगरेट से भरी कैन पी ली। सीमांत गांधी खान अब्दुल गफ्फार खान ने रोते हुए कहा, ‘‘आपने हमें भेडिय़ों के लिए छोड़ दिया है लेकिन मुस्तफाबाद के सज्जन लोगों ने तब तक हार नहीं मानी जब तक कि अपरिहार्य नहीं हो गया। विभाजन की काली छाया ने अपना सिर उठा लिया था।’’ क्या शाहला पाकिस्तान जा रही है? ‘‘नहीं, दादा की बात को सही किया गया। वह तो पाकिस्तान नहीं कराची जा रही है।’’ भारत के नक्शे पर मापने वाला टेप लगा हुआ था। मुस्तफाबाद और बाम्बे (जहां शाहला की शादी हुई थी) और मुस्तफाबाद और कराची के बीच की दूरियों की तुलना की गई। विभाजन हो गया मगर पंडित नेहरू पर इसका आरोप नहीं मढ़ा गया। 

मौलाना आजाद की किताब ‘इंडिया विन्ज फ्रीडम’ के 30 पन्ने तब अभिलेखागार में थे। इन पन्नों को केवल 1988 में खोला गया। आजाद ने अपने दोस्त जवाहर लाल नेहरू को चोट न पहुंचानी चाही। उन पन्नों में मौलाना आजाद ने कोई कसर न छोड़ी। उन्होंने विभाजन का दोष मोहम्मद अली जिन्ना के साथ-साथ बेशक नेहरू, स. पटेल और यहां तक कि महात्मा गांधी पर भी मढ़ दिया कि वे दबाव में फंस गए।-सईद नकवी


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