ऐसे में कांग्रेस का भविष्य संवरना मुश्किल

punjabkesari.in Thursday, Oct 21, 2021 - 03:32 AM (IST)

कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक जिस संतप्त माहौल में हुई, उस पर स्वाभाविक ही समर्थकों और विरोधियों दोनों की नजरें टिकी हुई थीं। कांग्रेस की हर ऐसी बैठक उसके वर्तमान एवं भविष्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण होती है। कार्यसमिति की बैठक के बाद अभी तक पार्टी के अंदर से किसी प्रकार का विरोधी वक्तव्य न आना वर्तमान नेतृत्व एवं उनके रणनीतिकारों के लिए राहत का विषय होगा लेकिन कोई यह नहीं मान सकता कि बैठक में कार्यकारी अध्यक्ष सोनिया गांधी सहित अन्य नेताओं के भाषण तथा लिए गए निर्णय से अंदरूनी ऊहापोह एवं भविष्य को लेकर ङ्क्षचता व उद्विग्नता पर विराम लग जाएगा। 

आखिर इस कार्यसमिति से निकला क्या? मूल रूप से 3 बातें साफ हुईं। एक, सोनिया गांधी ने स्पष्ट कर दिया कि वह कार्यकारी अध्यक्ष हैं और पूर्णकालिक अध्यक्ष भी। दूसरे, अगले अध्यक्ष का चुनाव 2022 के अगस्त- सितम्बर तक किया जाएगा और तीसरे, राहुल गांधी ने फिर से अध्यक्ष बनने पर विचार करना स्वीकार कर लिया है। इन तीनों के मायने क्या हैं? जी-23 नेताओं में से कपिल सिब्बल ने आवाज उठाई थी कि जब पार्टी का कोई अध्यक्ष नहीं है तो निर्णय कौन ले रहा है? कोई तो निर्णय कर रहा है। 

जाहिर है, यह अकेले उनकी आवाज नहीं थी। इन नेताओं के साथ देश भर में जो लोग चुनाव आयोजित करने की मांग कर रहे थे उनके सामने भी तस्वीर साफ कर दी गई है कि सोनिया गांधी के नेतृत्व में पार्टी संगठन चुनाव कराने की हड़बड़ी में नहीं है। कार्यसमिति की बैठक के बाद बताया गया कि सदस्यों ने राहुल गांधी से आग्रह किया कि वह अध्यक्ष पद संभालें और उन्होंने इस पर विचार करने का आश्वासन दिया है। इसके बाद किसी को संदेह नहीं होना चाहिए कि कांग्रेस की बागडोर किसके हाथों में जाएगी। 

राहुल गांधी अध्यक्ष पद के उम्मीदवार होंगे तो सामने कौन चुनौती के लिए खड़ा होगा? कोई नहीं। जाहिर है, 2019 में त्यागपत्र के बाद फिर 2022 में वह अध्यक्ष पद पर विराजमान होंगे। इस वर्ष के आरंभ में ही सोनिया गांधी ने असंतुष्ट नेताओं से मुलाकात में साफ कर दिया था कि कोई गलतफहमी न पाले कि पार्टी की बागडोर उनके परिवार के हाथों ही रहेगी। कार्यसमिति की बैठक के बाद सोनिया गांधी और उनके परिवार के समर्थक नेताओं की ओर से यह खबर फीड भी की गई कि जी-23 के नेताओं में फूट पड़ गई है और अब वे पहले की तरह एकजुट होकर कोई बयान नहीं देंगे। संभव है कि इनमें से कुछ लोगों से सोनिया गांधी और उनके लोगों ने व्यक्तिगत बातचीत की हो। यह भी संभव है उनको कुछ आश्वासन दिया गया हो। 

कांग्रेस या किसी भी राजनीतिक पार्टी में ऐसे लोग कम ही बचे हैं जो विचारधारा के लिए या पार्टी हित में अपना पद और कद त्यागने या नजरअंदाज करने को तैयार हो जाएं। कांग्रेस के अंदर मूल ङ्क्षचता इसी बात की है कि अगर पार्टी केंद्र की सत्ता में नहीं आई, किसी तरह सत्ता में भागीदारी नहीं हुई तो उनका क्या होगा। प्रश्न यहां कुछ असंतुष्ट नेताओं के संतुष्ट होने का नहीं है। मूल प्रश्न कांग्रेस के भविष्य का है। यह इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में भाजपा के समान अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जिस सशक्त विपक्ष की अपेक्षा की जाती है वहां कोई पार्टी दूर-दूर तक नहीं दिखती। राष्ट्रीय स्तर पर किसी बड़ी पार्टी के खड़े होने की भी संभावना नहीं है। दुर्बल होते हुए भी अगर किसी से उम्मीद की जा सकती है तो वह कांग्रेस ही है। दुर्भाग्य से कांग्रेस का वर्तमान नेतृत्व और उनके रणनीतिकार अपनी भूमिका को ही समझने को तैयार नहीं हैं। 

कांग्रेस विचार, व्यवहार एवं व्यक्तित्व तीनों स्तरों पर लंबे समय से दुर्दशा की शिकार है। इसकी वैचारिकता भ्रमित है। नीति-रणनीति के अस्तर पर अनिश्चय का माहौल है तथा व्यक्तित्व यानी नेतृत्व का चेहरा ऐसा नहीं है जो लोगों  का समर्थन पा सके। कहने की आवश्यकता नहीं कि यह संकट भी दूर हो सकता है, जब इन तीनों स्तरों पर दूरगामी योजना बनाकर व्यावहारिक बदलाव की शुरूआत हो। यह तभी संभव है जब पार्टी के रणनीतिकार, नेता कार्यकत्र्ता सब व्यक्ति मोह परिवार में आदि से परे हट कर पार्टी के भविष्य की दृष्टि से काम करें। 

दुर्भाग्य से कांग्रेस में पिछले लंबे समय से ऐसे नेताओं की बहुतायत हो गई है जो नेतृत्व यानी सोनिया गांधी परिवार की कृपा से राजनीति में बने हुए हैं। इस कारण ऐसे नेता, जिनका अपने क्षेत्र या राज्य में जनाधार है, उन्हें भी परिवार के प्रति निष्ठा साबित करनी पड़ती है। कैप्टन अमरेन्द्र सिंह इसका ताजा उदाहरण हैं। राजस्थान में अशोक गहलोत को परिवार का विश्वास प्राप्त है। इसी कारण सचिन पायलट और उनके समर्थकों के लगातार विरोध के बावजूद वहां बदलाव संभव नहीं हो पा रहा। अन्य राज्यों की भी यही स्थिति है। 

हालांकि कांग्र्रेस सशक्त व प्रभावी होगी तभी परिवार का भी हित सधेगा। 2014 का लोकसभा चुनाव सोनिया गांधी की अध्यक्षता में ही कांग्रेस ने लड़ा और इसके मुख्य रणनीतिकार राहुल गांधी थे। 2019 लोकसभा चुनाव तो राहुल गांधी की अध्यक्षता में लड़ा गया। प्रियंका गांधी कांग्रेस की महासचिव बन चुकी थीं और उत्तर प्रदेश की प्रभारी थीं। राहुल अपनी परंपरागत अमेठी लोकसभा सीट से चुनाव हार गए और दूसरी बार कांग्रेस लोकसभा में इतनी सीटें नहीं पा सकी जिससे उसे संवैधानिक रूप से विपक्ष के नेता का पद मिले। 

इस हालत में तो सोनिया गांधी, राहुल, प्रियंका और उनके रणनीतिकारों को ही आगे आकर पार्टी के पुनरुद्धार के लिए रास्ता बनाना चाहिए था। असंतुष्ट नेताओं सहित सबकी सहमति से पार्टी को व्यापक मंथन के लिए शिविर आयोजित करना चाहिए था। एक ऐसे व्यक्तित्व को पार्टी नेता के रूप में सामने लाने की कोशिश होनी चाहिए थी जो स्वयं भले सक्षम न हो लेकिन योग्य लोगों की टीम बनाकर वर्तमान राजनीति में मुकाबले के लिए कांग्रेस को वैचारिक एवं सांगठनिक स्तर पर खड़ा करने की ईमानदार कोशिश कर सके। साफ है ऐसा कुछ नहीं होने वाला। तो अगर परिवार और पार्टी यह समझने को तैयार नहीं कि उसे पुनर्जीवित कर फिर से राजनीति की केंद्रीय भूमिका में लाने के लिए व्यापक स्तर पर कठिन साधना और परिवर्तन की आवश्यकता है तो फिर पार्टी का भविष्य नहीं संवर सकता।-अवधेश कुमार
 


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