अच्छी नीति ही ‘श्रेष्ठ शिक्षा’ का आधार

punjabkesari.in Wednesday, Feb 05, 2020 - 04:00 AM (IST)

भारत ‘‘जो मेहनत से पढ़ता है, उसका कद भी खूब बढ़ता है’’ 
को एक प्राचीनवादी देश कहा जा सकता है क्योंकि यहां पूर्वजों, पुरातन मूल्यों और पुराणों के प्रति अत्यधिक प्रेम है। इस देश के प्रत्येक शहरी, ग्रामीण नागरिक का मनोविज्ञान भी अद्भुत है। वह किसी भी रोग का इलाज बता डालता है जैसे वह कोई वैद्य, डॉक्टर या हकीम हो तथा वह किसी भी अवसर पर धर्म के नाम से, धर्म ग्रंथों के नाम से, अवतार, पैगम्बर के नाम से इस प्रकार उपदेश दे डालता  है जैसे धर्म उसके अनुभव का अध्यात्म हो और वह उसका विशेषज्ञ हो। 

भारत की वर्तमान शिक्षा प्रणाली ब्रिटिश शासन की देन 
भारत की वर्तमान शिक्षा प्रणाली परतंत्र काल की शिक्षा प्रणाली मानी जाती है। यह ब्रिटिश शासन की देन मानी जाती है। इस प्रणाली को लॉर्ड मैकाले ने जन्म दिया था। इसी प्रणाली की वजह के कारण  आज भी सफेद कॉलर वाले लिपिक और बाबू ही पैदा हो रहे हैं। इसी शिक्षा प्रणाली की वजह से विद्याॢथयों का शारीरिक और आत्मिक विकास नहीं हो पा रहा। प्राचीन काल में शिक्षा का बहुत महत्व था। सभ्यता, संस्कृति और शिक्षा का उदय सबसे पहले भारत में ही हुआ। किसी भी राष्ट्र व समाज में शिक्षा सामाजिक नियंत्रण, व्यक्तित्व निर्माण तथा सामाजिक व आर्थिक प्रगति का मापदंड होती है। भारत की वर्तमान शिक्षा प्रणाली ब्रिटिश शिक्षा प्रणाली पर आधारित है जिसे सन् 1835 में लागू किया गया। 

अंग्रेजी भाषा का मोह बढ़ गया
जिसे हम आधुनिक शिक्षा या शिक्षा प्रणाली कहते हैं उसका आरम्भ तो अंग्रेजों ने ईस्ट इंडिया कम्पनी के माध्यम से कर दिया था। उसी के बाद संस्कृत, अरबी-फारसी और अपनी भाषा में शिक्षा देने के विरुद्ध अंग्रेजी में शिक्षा देने का दौर शुरू हुआ। वह आज तक नहीं रुका बल्कि हम यह कह सकते हैं कि अंग्रेजी भाषा का मोह इस कदर बढ़ गया कि हर प्रकार के स्वदेशी बोलने वालों से हमें नफरत होने लगी। अंग्रेजी विषय, भाषा और माध्यम की शिक्षा न केवल शहर-कस्बों में बल्कि गांव-गांव में फैल गई और यह समझा जाने लगा कि अंग्रेजी ही ज्ञान की, रोजगार की और प्रतिष्ठा की भाषा है। जहां तक ङ्क्षहदी तथा पंजाबी का प्रश्न है उसे बुद्धिजीवियों और धर्मांधों ने सांप्रदायिक भाषा घोषित कर दिया हैै। शिक्षा मात्र जानकारी के लिए नहीं, आपकी सोच बदलने के लिए दी जाती है। 

शिक्षा का साधारण अर्थ कुछ सीखना, किसी समस्या के संबंध में जानना और ज्ञान प्राप्त करना है लेकिन शिक्षा का अर्थ यहीं तक सीमित नहीं है, शिक्षा व्यक्ति के अंदर के गुणों का विकास भी करती है तथा उसकी पशु प्रवृत्ति को भी नियंत्रण करती है। शिक्षा मानव के शरीर और आत्मा का विकास करती है। शिक्षा द्वारा मनुष्य के चरित्र का विकास भी होता है। शिक्षा के माध्यम से ही व्यक्ति जीवन संघर्ष के लिए तैयार होता है। महात्मा गांधी जी के अनुसार, ‘जो शिक्षा हमारा चरित्र निर्माण नहीं करती, वह अर्थहीन है।’ प्राचीन शिक्षा प्रणाली वास्तव में सुंदर-सफल शिक्षा प्रणाली है जिससे लोग अपने-अपने घरों में शिक्षा का विशेष प्रबंध करते थे। उस समय शिक्षा आश्रम और गुरुकुल में दी जाती थे। गुरुकुल में गुरु के चरणों में बैठकर शिक्षा ग्रहण की जाती थी। वहां पर शिक्षा का सबसे बड़ा उद्देश्य मानव को इंसान बनाना होता था। गुरुकुल में आरंभ में सबको एक जैसी शिक्षा दी जाती थी। सभी शिक्षकों का उद्देश्य शिष्यों को  धर्म, समाज व कत्र्तव्य से परिचित करवा कर उन्हें श्रेष्ठ मार्ग  पर चलने के लिए प्रेरित करना होता था।

भगवान राम और कृष्ण ने भी गुरुकुल में ही शिक्षा प्राप्त की थी
प्राचीन भारतीय शिक्षा का आदर्श व्यक्ति के चरित्र का निर्माण करना था। इस शिक्षा प्रणाली में ऊंच-नीच, धनी-निर्धन का कोई भेदभाव नहीं था। राम और कृष्ण ने भी गुरुकुल में ही शिक्षा प्राप्त की थी या यूं कहें कि प्राचीन शिक्षा प्रणाली  मानव धर्म पर आधारित होती थी, चरित्र विकास पर अधिक बल दिया जाता था। राजा और रंक की शिक्षा एक समान रूप में होती थी लेकिन आज की शिक्षा प्रणाली अनेक बुराइयों से ग्रस्त है। इनमें अनेक कमियां देखी जा सकती हैं जिसकी सर्वप्रथम बात गांधी जी ने 1917 में गुजरात एजुकेशन सोसाइटी के सम्मेलन में की तथा शिक्षा में मातृभाषा को स्थान और ङ्क्षहदी के पक्ष को राष्ट्रीय स्तर पर ताॢकक ढंग से रखा क्योंकि हमें ऐसी शिक्षा चाहिए जिससे चरित्र का निर्माण हो, मन की शांति बढ़े, बुद्धि का विकास हो और मनुष्य अपने पैर पर खड़ा हो सके। 

40 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या अनपढ़ है
आज शिक्षा के महत्व को समझते हुए भारतीय संविधान में अनुसूचित जातियों व जनजातियों के लिए शिक्षण संस्था व विभिन्न सरकारी अनुष्ठानों आदि में आरक्षण की व्यवस्था की है। पिछड़ी जातियों को भी इन सुविधाओं के अंतर्गत लाने का प्रयास किया गया है। स्वतंत्रता के बाद हमारी साक्षरता दर तथा शिक्षा संस्थाओं की संख्या में बढ़ौतरी जरूर हुई है लेकिन अब भी एक अनुमान के अनुसार 40 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या अनपढ़ है। दुर्भाग्य की बात यह है कि स्वतंत्रता मिलने के इतने सालों बाद भी  विश्वविद्यालयों में उच्च शिक्षा का स्तर तो बढ़ा है परंतु प्राथमिक शिक्षा का आधार दुर्बल होता चला गया। शिक्षा का लक्ष्य राष्ट्रीयता, चरित्र-निर्माण व मानव संसाधन के विकास पर मशीनीकरण रहा जिससे डाक्टर, इंजीनियर तथा उच्च संस्थानों से उत्तीर्ण छात्रों में से लगभग 40 प्रतिशत से भी अधिक का देश से बाहर पलायन जारी रहा। अब प्रश्न है कि इतनी नीतियां, आयोग, सरकारें, बोर्ड्स आदि  होने के बावजूद शिक्षा का स्तर क्यों नहीं ऊंचा हुआ। 

निजी स्कूलों, कॉलेजों, विश्वविद्यालयों,मैडीकल, इंजीनियरिंग और अन्य संस्थाओं पर नीति का प्रभाव क्यों नहीं पड़ा। शैक्षिक संस्थाएं अपराधों का अड्डा क्यों बन रही हैं। रैगिंग के नाम पर हिंसा और अपराध क्यों बढ़ रहे हैं। शिक्षक अपने कत्र्तव्य के प्रति ईमानदार क्यों नहीं रहे। क्या लोकतंत्र के नाम पर धरना, प्रदर्शन, हड़ताल करना आदि का अधिकार लेकर कानून तोडऩा, कत्र्तव्य का पालन न करना और मनमानी करने की हमें आजादी दे दी गई। शिक्षा जनता की शक्ति और विवेक की प्रतीक होती है। शिक्षा किसी भी माध्यम से दी जाए, चाहे गुरुकुल, आश्रम या निजी और सरकारी कॉलेज, स्कूल हो, जब उनका लोकव्यापीकरण हो ही गया है तो उन्हें मिटाकर नई व्यवस्था पैदा करना लगभग असम्भव है। अब करना यह होगा कि नीति को उसी प्रकार व्यावहारिक और कठोर बनाना होगा। 

जिस प्रकार हाल ही में परिवहन नियम, प्लास्टिक मुक्ति तथा खुले में शौच न करना से मुक्ति के लिए नियम बनाकर उन्हें सख्ती से लागू किया गया है, इसके लिए प्रशासन में ईमानदार और कत्र्तव्यनिष्ठ लोगों की आवश्यकता है। वरना नीतियां वैसे ही बनती रहेंगी तथा धराशायी होती रहेंगी और शिक्षा केवल बेरोजगार पैदा करने का माध्यम बनकर रह जाएगी। जिससे देश का नैतिक, आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक और मानवीय स्तर भी ऊंचा नहीं उठ पाएगा क्योंकि शिक्षा ने हमें हर दिन कुछ नया सिखाया, शिक्षा ने हमें हर दिन एक नया ख्वाब दिखाया। शिक्षा ने हमें खुद से मिलवाया, पर क्या दूसरों को गिरा कर, उसका मजाक बनाकर क्या हमने सच में एक शिक्षित होने का फर्ज निभाया।-प्रि. डा. मोहन लाल शर्मा
 


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