जी.डी.पी. व जी.वी.ए. में गिरावट, केन्द्र सरकार अब ‘शेखियां बघारना’ छोड़े

punjabkesari.in Sunday, Sep 17, 2017 - 12:48 AM (IST)

शेखियां बघारने के दिन अब गुजर चुके हैं। भारत अब दुनिया की सबसे तेज गति से बढऩे वाली अर्थव्यवस्था नहीं रह गया। चीन से भी तेज रफ्तार अर्थव्यवस्था होने की हमारी हेकड़ी सात तिमाहियां पूर्व ही धराशायी हो गई। गत पांच तिमाहियों से लगातार जी.डी.पी. (सकल घरेलू उत्पाद) तथा जी.वी.ए. (सकल मूल्य संवद्र्धन) नीचे गिरा है।

हो सकता है जी.डी.पी. 5.7 प्रतिशत की दर पर ही स्थिर रहे। यह भी हो सकता है कि 2017-18 की अगली तिमाही यानी जुलाई-सितम्बर दौरान इसमें और भी गिरावट आ जाए। नोटबंदी के दुष्प्रभाव अभी भी पूरी तरह दूर नहीं हुए हैं। जी.एस.टी. एक बहुत बढिय़ा परिकल्पना है लेकिन इसे जिस कानून का जामा पहनाया गया है वह अनेक त्रुटियों से भरा हुआ और घटिया है तथा इसका कार्यान्वयन भी बहुत जल्दबाजी में हुआ जिसके फलस्वरूप कारखाना क्षेत्र के अनेक उद्योग बुरी तरह प्रभावित हुए हैं। ऊपर से गत कई सप्ताहों से बाढ़ की विभीषिका ने भारत के कई भागों में सामान्य जन-जीवन अस्त-व्यस्त कर रखा है।

खाली दमगजे
2016 में चीन की अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर 6.7 प्रतिशत थी जबकि भारत की अर्थव्यवस्था 2016-17 में 7.1 प्रतिशत की दर से बढ़ी थी। लेकिन चीन की अर्थव्यवस्था का आकार 11,200 अरब डालर था जबकि भारत काअर्थव्यवस्था मात्र 2300 अरब डालर तक पहुंच पाई थी।

यदि 1 वर्ष के लिए चीन की अर्थव्यवस्था भारत की तुलना में कम गति से भी बढ़ी थी तो भी इस वर्ष दौरान चीन के सकल घरेलू उत्पाद का मूल्य भारत की तुलना में कई गुणा अधिक था। यही कारण है कि चीन सहित किसी भी देश ने हमारी हेकड़ी को गंभीरता से नहीं लिया। इसलिए समझदारी यही होगी कि हम विनम्रता भरा रुख अपनाए रखें।

हर अर्थशास्त्री इस बात से सहमत है कि भारत की अर्थव्यवस्था की गति मंद पड़ गई है। मुख्य आॢथक सलाहकार ने स्पष्ट रूप में यह माना है लेकिन सरकार है कि मानती नहीं। यदि सरकार अर्थव्यवस्था की गति मंद पडऩे की बात मानने से इन्कारी है तो यह निष्कर्ष निकालना तर्कसंगत होगा कि गति मंद पडऩे के कारणों के बारे में भी इसे कुछ पता नहीं। अपने स्तंभ में आज मैं इन्हीं कारणों की तलाश करूंगा।

अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने वाली चार चालक शक्तियां होती हैं : सरकारी खर्च, निर्यात, प्राइवेट निवेश एवं प्राइवेट खपत। इन चारों चालक शक्तियों की वृद्धि दरें ही अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर को निर्धारित करेंगी। वर्ष 2016-17 तथा 2017-18 की प्रथम तिमाही में ये दरें क्या थीं?

सरकार ‘डूबते को तिनके का सहारा’ जैसी दलील पकड़ कर अपने द्वारा किए गए खर्च को ही खुशहाली के प्रमाण के रूप में प्रस्तुत कर रही है। जुलाई 2017 समाप्त होने तक सरकार ने अपने वाॢषक वित्तीय घाटे के 92.4 प्रतिशत के बराबर खर्च कर लिया था। इसलिए इस खर्च में तब तक नई बढ़ौतरी नहीं हो सकती जब तक राजस्व वृद्धि के कोई अप्रत्याशित स्रोत हासिल न हो जाएं या फिर सरकार सीधे-सीधे वित्तीय विवेकशीलता को अलविदा न कह दे।

जहां पहली बात की कोई संभावना नहीं, वहीं दूसरी सलाह देने को कोई तैयार नहीं। केवल एक ही रास्ता रह जाएगा कि अब से लेकर मार्च 2018 के बीच सरकारी खर्च में नरमी लाई जाए। आर्थिक वृद्धि का यह इंजन केवल संतुलित गति से ही आगे बढ़ सकता है। 

अन्य तीनों इंजन चल नहीं पा रहे
निर्यात अब आर्थिक वृद्धि में कोई हिस्सा नहीं पा रहा। यू.पी.ए. के शासन के 10 वर्षों दौरान निर्यात बढ़ते-बढ़ते 2013-14 में 3.14 अरब अमरीकी डालर तक पहुंच गया था जोकि समूचे तौर पर औसत 17.3 प्रतिशत वार्षिक वृद्धि दर के बराबर था। तब से राजग सरकार के 3 वर्षों दौरान निर्यात कभी भी इस स्तर को नहीं छू सकता।
तालिका
                2016-17             2017-18
                             की प्रथम तिमाही
                             (प्रतिशत वृद्धि दरें)
सरकारी खर्च     20.76          17.17
निर्यात            4.51            1.21
प्राइवेट निवेश    2.38          1.61

गत 3 वर्षों दौरान निर्यात का आंकड़ा क्रमश: 310 अरब, 262 अरब और 276 अरब अमरीकी डालर तक ही जा सका। स्वामीनाथन अंकलेश्वरिया अय्यर ने  यह इंगित किया है कि किसी भी ऐसे देश की अर्थव्यवस्था ने 7 प्रतिशत वार्षिक जी.डी.पी. का आंकड़ा नहीं छुआ जिसके निर्यात में वार्षिक 15 प्रतिशत या इससे अधिक वृद्धि न हुई हो।

प्राइवेट निवेश भी अर्थव्यवस्था को आगे नहीं खींच रहा। गत 3 वर्षों दौरान जी.डी.पी. के प्रतिशत के रूप में सकल अचल पूंजी निर्माण (जी.एफ.सी.एफ.) क्रमश: 31.34, 30.92 तथा 29.55 प्रतिशत ही रहा है जोकि 2011-12 में हासिल किए गए 34.31 प्रतिशत की अधिकतम दर से काफी नीचे है।  प्राइवेट निवेश में वृद्धि का एक अनुसूचक है उद्योग को दिए जाने वाला ऋण। अक्तूबर 2016 से लेकर प्रत्येक माह में उद्योग को दिए जाने वाले ऋण ने नकारात्मक वृद्धि दर दर्ज की है।

इससे सबसे बुरी तरह मंझोले उद्यम प्रभावित हुए जोकि रोजगार का मुख्य गढ़ होते हैं। मंझोले उद्यमों को दिए गए ऋण का आंकड़ा जुलाई 2015 में 1,19,268 करोड़ रुपए के स्तर पर था लेकिन जुलाई 2017 तक यह 16 प्रतिशत सिकुड़ कर 1,00,542 करोड़ रुपए पर आ गया था। (इसके बावजूद सरकार चाहती है हम यह विश्वास करें कि औद्योगिक क्षेत्र में रोजगार सृजन हो रहा है।)

औद्योगिक उत्पादन का सूचकांक (आई.आई.पी.) हर महीने घडिय़ाल की तरह बजता है लेकिन न तो कोई इसका संज्ञान लेता है और न ही ऐसा आभास होता है कि किसी को इस संकेत की समझ लग रही है। अप्रैल-जुलाई 2017 में समूची आई.आई.पी. में केवल 1.7 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी। कारखाना उद्योग के आई.आई.पी. की वृद्धि दर 1.3 प्रतिशत थी लेकिन अकेले जुलाई माह के आंकड़े भयावह  हद तक नीचे आ गए थे। यानी कि समूचे आई.आई.पी. की वृद्धि दर 1.2 प्रतिशत और कारखाना उद्योग की मात्र 0.1 प्रतिशत थी।

और ऊंट की कमर तोड़ देने वाले आखिरी तिनके जैसा रंग दिखाते हुए प्राइवेट खपत की वृद्धि दर भी नीचे फिसलती गई। साल दर साल फिसलती हुई यह अप्रैल-जुलाई 2017 में 6.7 प्रतिशत तक आ गई। आर.बी.आई. के नवीनतम सर्वेक्षण के अनुसार चालू स्थिति का सूचकांक जो मई 2017 में 100 पर था, वही जून में घटकर 96.8 रह गया जोकि प्रत्येक लिहाज से एक निराशाजनक स्थिति का सूचक था। सर्वेक्षण में यह भी पाया गया कि शहरी खपतकार भी ’यादा ‘चढ़दीकला’ में नहीं लेकिन अब तक ग्रामीण क्षेत्रों में भी उपभोक्ता का मजा किरकिरा होने लगा है।

जानलेवा आघात
भारत में यह सब कुछ तब हो रहा है तब ग्लोबल अर्थव्यवस्था बहाली के रास्ते पर अग्रसर है; क"ो तेल की कीमतें अभी भी काफी निम्न स्तर पर बनी हुई हैं; विकसित देशों में ब्याज की नकारात्मक या अत्यंत नीची दरें अनेक देशों का पैसा भारत की ओर धकेल रही हैं; विनिमय दर स्थिर है और मुद्रास्फीति का आंकड़ा कोई खास नहीं। ऐसे में अवसर का लाभ उठाने की बजाय सरकार ने नोटबंदी और जल्दबाजी में निष्पादित जी.एस.टी. के माध्यम से अर्थव्यवस्था पर एक जानलेवा प्रहार किया है। यहीं रुकने की बजाय सरकार ने अपनी अक्षमता पर पर्दा डालने के लिए टैक्स अधिकारियों को निरंकुश शक्तियां प्रदान करते हुए एक प्रकार से ‘टैक्स टैरोरि’म’ की शक्तियां खुली छोड़ दीं।

इसके बावजूद प्रधानमंत्री, वित्त मंत्री या नए उद्योग मंत्री के चेहरों पर चिंता की कोई लकीरें दिखाई नहीं देतीं। पी.एम.ओ. तक पहुंच रखने वाले पत्रकार हमें बताते हैं कि वास्तव में पी.एम.ओ. ङ्क्षचतित है। वैसे इस  चिंता काकमात्र संकेत तब मिला जब रोजगार और श्रम से संबंधित एम.एस.एम.ई., श्रम व कौशल विकास जैसे मंत्रालयों से संबंधित 3 मंत्रियों की छुट्टी कर दी गई और उद्योग से संबंधित चौथे मंत्री का तबादला कर दिया गया।

जिस सरकार को कुछ सूझ ही नहीं रहा, वह अर्थव्यवस्था की गति के मंद पडऩे के कारणों का समाधान भी नहीं कर सकती। इसी बीच नोटबंदी, त्रुटिपूर्ण जी.एस.टी. तथा टैक्स टैरोरि’म जैसे दुर्भावनापूर्ण निर्णय अर्थव्यवस्था को भयभीत करते रहेंगे।


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