‘बचकाना रवैया’ छोड़कर आगे बढ़ें भारत और पाकिस्तान

punjabkesari.in Sunday, Mar 18, 2018 - 03:00 AM (IST)

कभी -कभी ऐसा समय भी आता है जब भारत और पाकिस्तान एक-दूसरे से लडऩे पर उतारू बच्चों जैसा व्यवहार करते लगते हैं। यह सिलसिला सबसे अधिक तब देखने में आता है जब दोनों देशों के कूटनयिक एक-दूसरे से बढ़-चढ़ कर तू-तू, मैं-मैं में उलझ जाते हैं। हम एक बार फिर इसी स्थिति में से गुजर रहे लगते हैं।

ईमानदारी से कहा जाए तो ऐसे मामलों में यह बात अप्रासंगिक हो जाती है कि पहले शुरूआत किसने की थी। यह निर्धारित करना केवल बाल की खाल उतारने जैसा है। जब वे जैसे को तैसा की नीति पर चलने पर आमादा होते हैं तो उन्हें ऐसे मामलों में भी अपमान और आघात दिखाई देता है जहां संभवत: इनका अस्तित्व तक नहीं होता। कमाल की बात तो यह है कि वे इस काम को बहुत लम्बा-चौड़ा गणित लगाकर भी तेज गति से अंजाम देते हैं और जवाबी हल्ला बोलते हैं लेकिन जो बात सचमुच उल्लेखनीय है वह है दोनों का ओछापन। इस मामले में कोई भी दूसरे से कम दोषी नहीं होता है। 

वर्तमान प्रकरण की जड़ में जो बेवकूफी भरी बेहूदगी मौजूद है उसका हम एक छोटा-सा उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। ऐसा लगता है कि पाकिस्तान भारतीय उच्चायुक्त अजय बिसारिया को इस्लामाबाद क्लब की सदस्यता प्रदान करने के मामले में विलम्ब कर रहा है। भारतीय मध्य वर्ग के लिए यह एक गंभीर मुद्दा है क्योंकि उन्हें लगता है कि एक सम्मानजनक व्यक्ति को इस क्लब की सदस्यता से इंकार कैसे किया जा सकता है? भाड़ में जाने दो उनकी इस सनक को। जहां तक पाकिस्तानियों का संबंध है, वे दावा करते हैं कि दिल्ली गोल्फ क्लब उनसे तीन वर्ष की सदस्यता के लिए 15,000 डालर वसूल करता है जबकि पाकिस्तान की इस्लामाबाद क्लब भारतीय कूटनयिकों को अपनी सेवाएं मात्र 1500 डालर में उपलब्ध करवाती है। 

उनका कहना है कि किसी गोल्फ कोर्स अथवा स्विमिंग पूल जैसी सुविधा के लिए इतनी शाहाना राशि जरूरत से कहीं अधिक है, बेशक यहां पर इस्लामाबाद के विपरीत बियर बार की सुविधा भी क्यों न उपलब्ध हो। वैसे समस्या इससे कहीं आगे तक जाती है। पाकिस्तानी अक्सर बिजली और पानी जैसी सुविधाओं के स्विच बंद कर देते हैं जिससे हमारे कूटनयिक अच्छी तरह शौच भी नहीं कर पाते और अंधेरे में रह जाते हैं। अपनी जगह हम पाकिस्तानी कूटनयिकों के बच्चों को स्कूल जाते समय रास्ते में रोक लेते हैं और उनके ड्राइवरों को परेशान करते हैं। जब इतने से भी मन नहीं भरता तो हम प्रात: 3 बजे ही एक-दूसरे के दरवाजों की घंटियां बजानी शुरू कर देते हैं। 

फिर भी दोनों देश एक-दूसरे के विरुद्ध यह खेल जारी रखे हुए हैं। हम दोनों ही नहीं बल्कि अन्य हर कोई भी इस खेल के बारे में जानता है।  दो दशक पूर्व भारत में बैल्जियम के पूर्व राजदूत ने यह भांप लिया था कि इस प्रकार की बेवकूफी की जड़ में कौन-सी बात काम करती है : ‘‘भारत और पाकिस्तान दो ऐसे देश हैं जिनके बीच का रिश्ता बहुत ही अभूतपूर्व है। एक-दूसरे को अन्य किसी की तुलना में आप बेहतर ढंग से समझते हैं। इसके बावजूद आप एक-दूसरे से प्यार और नफरत के रिश्ते में बंधे हुए हैं और एक-दूसरे को परेशान करके आपको प्रसन्नता का आभास होता है। दोनों के लिए कोई भी बात छोटी और बेवकूफी भरी नहीं है और जब आप इस काम पर उतारू हो जाते हैं तो पूरी तरह आप पर भूत सवार हो जाता है। इस्लामाबाद में सेवाएं दे चुके किसी भी भारतीय या दिल्ली में काम कर चुके किसी भी पाकिस्तानी के लिए शायद बैल्जियन कूटनयिक गाई त्रूवराय से असहमत होना वास्तव में संभव नहीं होगा।’’ 

फिर भी यदि आप किसी भी पाकिस्तानी या कूटनयिक से यही सवाल पूछते हैं तो वह दूसरे के व्यवहार को बचकाना, ओछा तथा अशोभनीय करार देने में एक पल भी नहीं लगाएगा लेकिन यदि यही सवाल उसके अपने व्यवहार के बारे में पूछा जाए तो सारा जोश गायब हो जाता है। तब उसके अंदर अचानक यह विश्वास जागृत हो जाता है कि उसे विशेष रूप में दुव्र्यवहार का निशाना बनाया गया है इसलिए दूसरे पक्ष के विरुद्ध बदले की कार्रवाई न्यायोचित है। क्या एक-दूसरे से रूठे हुए भाई-बहन इसी तरह का व्यवहार नहीं करते? क्या यह व्यवहार भी इस तथ्य का अटल परिणाम है कि किसी जमाने में हम एक ही राष्ट्र और एक ही देश हुआ करते थे? 

सम्भवत: यह कारण हो सकता है लेकिन मैं कहना चाहूंगा कि यह बहाना पर्याप्त नहीं है और न ही हमारे परस्पर खीझ भरे व्यवहार के लिए कोई संतोषजनक स्पष्टीकरण। काश! हम खुद को उसी तरीके से देख सकते जिस तरीके से शेष दुनिया हमें देखती है तो हमें यह महसूस हो जाता कि किस तरह हम दूसरों के उपहास और तमाशे के पात्र बनते हैं। अभी भी समय है कि हम बचकानेपन से आगे बढ़ें। सच्चाई यह है कि हम दोनों ही देशों के लिए चिंता योग्य मुद्दों की कोई कमी नहीं है। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि दोनों देश जानते हैं कि उनका व्यवहार सिवाय बेवकूफी के अन्य कुछ नहीं और इस बेवकूफी के कारण दोनों देशों के मध्य पैदा होने वाली समस्याएं व्यक्तिगत रूप ग्रहण कर लेती हैं और अधिक जटिल बन जाती हैं। 

यदि हमारी सरकारें आपस में वार्तालाप नहीं करतीं तो भी इसका अर्थ यह नहीं कि हमारे कूटनयिक तू-तू मैं-मैं पर उतर आएं। वास्तव में इन्हीं लोगों ने ही यदि और कुछ नहीं तो दोनों सरकारों के बीच संवाद के सूत्र बनाए रखने होते हैं, ताकि जब भी सरकारें बातचीत के लिए तैयार हों तो किसी तरह का विलम्ब न हो।-करण थापर


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