खाली ‘दमगजे’ मारने से देश की रक्षा नहीं होगी

punjabkesari.in Saturday, Sep 24, 2016 - 01:58 AM (IST)

(हरि जय सिंह): सेना के 12वें ब्रिगेड के मुख्यालय पर पाकिस्तान प्रायोजित आतंकी हमलों की शृंखला के उड़ी प्रकरण ने एक बार फिर इस बात का स्मरण करा दिया है कि नियंत्रण रेखा (एल.ओ.सी.) पर हमारे सबसे संवेदनशील क्षेत्र के सुरक्षा कवच में कितनी गंभीर खामियां हैं। श्रीनगर से 100 कि.मी.दूर स्थित उड़ी तीन ओर से एल.ओ.सी. से घिरा हुआ है। 

एक अर्थ में तो उड़ी हमला पठानकोट एयरबेस पर 2 जून को हुए फिदायीन हमले से भी बदतर था। देश के रक्षा तंत्र ने स्पष्ट तौर पर यह सिद्ध कर दिया है कि उन्होंने 14 मई 2002 को कालूचक्क नरसंहार से लेकर आज तक हुए जेहादी हमलों में रही गंभीर त्रुटियों से कोई सबक नहीं सीखा है। 

केवल दमगजे मारने से कोई देश सुरक्षा की दृष्टि से अभेद्य नहीं बन जाता और न ही जज्बातों से भरी हुई लफ्फाजी और नारेबाजी ही सुरक्षा खामियों को पूरा कर सकती है अथवा न ही 6वीं बिहार तथा 10वीं डोगरा रैजीमैंट के 19 जवानों के परिवारों के आंसू पोंछ सकती है, जो 18 सितम्बर को उस समय शहादत का जाम पी गए, जब बड़े तड़के ‘चेंज आफ कमांड’ के दौरान वे अपने टैंटों में आराम कर रहे थे। 

उड़ी का कायराना हमला स्पष्ट रूप में यह सिद्ध करता है कि ‘पाकिस्तान आतंक का आधारभूत ढांचा’ खुले रूप में हमारे देश के विरुद्ध प्रयुक्त किया जा रहा है। सेना की जवाबी कार्रवाई में मारे गए चारों आतंकी ‘जैश-ए-मोहम्मद’ के ‘अफजल गुरु स्क्वायड’ से संबंधित थे। उनके पास पाकिस्तान के मार्का वाले भारी हथियार और गोला-बारूद थे। कड़वी सच्चाई यह है कि हमारा देश और खास तौर पर इसका जम्मू-कश्मीर प्रदेश ऐसी कायराना कार्रवाइयों से 1990 के वर्षों से तब से घायल हो रहा है, जब जनरल जिया-उल-हक ने ‘आप्रेशन टोपाक’ के नाम तले बहुत कम खर्च पर छद्म आतंकी युद्ध छेड़ा था। 

इतिहास सफलताओं और विफलताओं के मामले में कोई लिहाजदारी नहीं बरतता। यह मनुष्यों, मुद्दों और समस्याओं को आंकने के लिए बहुत कठोर और वस्तुनिष्ठ परीक्षण लागू करता है। खेद की बात तो यह है कि हमारे वर्तमान नेताओं, खास तौर पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और रक्षा मंत्री तथा उनके गिर्द मंडराने वाले सुरक्षा कर्मियों ने अपने पूर्ववर्ती शासकों की बेवकूफियों से कोई सबक नहीं सीखा है। इससे भी बुरी बात यह है कि उन्होंने अढ़ाई वर्ष के भाजपा नीत राजग के शासन में रही सुरक्षा चूकों से कोई सबक नहीं लिया। मोदी सरकार का खामियों का रिकार्ड उनकी खोखली धमकियों से कहीं अधिक शोरीला है। 

मैं ऐसा प्रस्ताव नहीं दे रहा कि उड़ी पर जेहादी हमले की प्रतिक्रिया के रूप में बिना सोचे-समझे जवाबी हल्ला बोल दिया जाए। इस प्रकार की प्रतिक्रिया उड़ी पर फिदायीन हमले के 24 घंटे के अंदर-अंदर अपनाई जानी चाहिए थी और पाकिस्तान द्वारा चलाए जा रहे आतंकियों के प्रशिक्षण शिविरों तथा जैश-ए-मोहम्मद के आप्रेशनल बेस को तबाह कर देना चाहिए था। यदि सेना को इस प्रकार की स्थिति से निपटने और जवाबी हल्ला बोलने के मामले में खुली छूट  दी गई होती तो ऐसा करना संभव था। वैसे अंतिम फैसला राजनीतिक नेतृत्व के हाथों में ही होना चाहिए था लेकिन कुछ भी हो, सेना को राजनीतिक अनिर्णयशीलता एवं तदर्थवाद की बंधक नहीं बनाया जाना चाहिए। सांत्वना की बात यह है कि इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री मोदी के दृष्टिकोण में अब बदलाव आ रहा है। 

उड़ी की घटनाओं पर जनता की प्रतिक्रिया बहुत आक्रोशपूर्ण है और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सहित भाजपा नेताओं को सोशल मीडिया में आतंकवाद के विरुद्ध उनके पुराने वायदों की बहुत कड़वी याद दिलाई गई है। 

उतावलेपन में कोई कार्रवाई करने से पूर्व हमें एक आतंकी राष्ट्र का रूप धारण कर चुके पाकिस्तान के साथ निपटने के लिए अपनी नीतियों और रणनीतियों पर नए सिरे से समायोजित ढंग से चिन्तन-मनन करना होगा। अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय में पाकिस्तान को कूटनीतिक दृष्टि से अलग-थलग करने की भारत की रणनीति काफी कारगर सिद्ध हो रही है। लेकिन इस्लामाबाद के आतंकी ठिकानों के विरुद्ध सैन्यवार कार्रवाई का प्रयास करने से पहले हमें गंभीर बाहरी तत्वों के साथ-साथ अपने देश के अंदर सुरक्षा तंत्र को ठीक करने के विषय में अवश्य गंभीरता से सोचना चाहिए। 

पहली बात तो यह कि पाकिस्तान को चीन से सैन्य और आॢथक समर्थन मिल रहा है। चीन ने ही इसे बड़ी-बड़ी परमाणु मिसाइलें बनाने तथा मिसाइल हमला करने की क्षमता विकसित करने में सहायता दी है। क्या हम चीन द्वारा पाकिस्तान को दिए जा रहे समर्थन को निष्प्रभावी कर सकते हैं? इस मुद्दे पर ही भारत सरकार के कूटनीतिक कौशल की अग्रिपरीक्षा होगी। 

दूसरी बात पाकिस्तान को इस्लामिक एकजुटता के नाम पर पश्चिमी एशियाई देशों से करोड़ों पैट्रो डॉलर मिलते हैं। यहां तक कि सऊदी अरब और अन्य स्थानों की वहाबी संस्थाओं द्वारा इसकी आतंकवादी गतिविधियों को दिया जा रहा वित्त पोषण भी कोई कम नहीं है। क्या हम इन हवाला स्रोतों का गला घोंट सकते हैं? और नहीं तो कम से कम कश्मीर घाटी में पाक समर्थक अलगाववादियों को मिलने वाली हवाला राशि तो बंद होनी ही चाहिए। 

तीसरे नम्बर हम इस बात की अनदेखी नहीं कर सकते कि अमरीकी रक्षा विभाग द्वारा पाकिस्तान को एक रणनीतिक सहयोगी के रूप में देखा जाता है क्योंकि अफगानिस्तान-पाकिस्तान पट्टी और अन्य क्षेत्रों में उसे इसकी जरूरत है। राष्ट्रपति ओबामा से गलबहियां लेकर प्रधानमंत्री मोदी कोई ज्यादा इतरा नहीं सकते क्योंकि ओबामा कोई बहुत सशक्त राष्ट्रपति नहीं हैं। अंतिम तौर पर हमें घाटी में हो रही आंतरिक उथल-पुथल की किसी भी हालत में अनदेखी नहीं करनी चाहिए। क्योंकि वहां हुॢरयत जैसे आई.एस.आई. प्रायोजित संगठन बहुत सक्रियता से आजादी के नाम पर इस्लामाबाद की नीति लागू कर रहे हैं। 

यह बहुत जटिल परिदृश्य है क्योंकि आतंकवाद पर नुकेल लगाना जितना घाटी में गवर्नैंस की गुणवत्ता पर निर्भर है, उतना ही इस बात पर निर्भर है कि बहुत कठोरता से सीमापारीय आतंकी गुटों की गतिविधियों को समाप्त किया जाए। राष्ट्र को दरपेश समस्याओं के हल का कोई आसान और शार्टकट रास्ता नहीं है। इनका दृढ़ता और होशियारी से जमीनी और वैचारिक दोनों स्तर पर ही मुकाबला किए जाने की जरूरत है।  


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