गुजरात चुनाव घोषणा में विलम्ब समझ से बाहर

punjabkesari.in Tuesday, Oct 17, 2017 - 01:56 AM (IST)

राजनीतिक विरोधी या जानी दुश्मन! आज राजनीतिक विरोधियों और जानी दुश्मनों के बीच रेखा धुंधली हो गई है। विकास के मुद्दे पर भाजपा और कांग्रेस के बीच चल रही तू-तू, मैं-मैं इस तथ्य को बखूबी बखान करती है और यह तू-तू, मैं-मैं दोनों दल राजनीतिक तृप्ति प्राप्त करने की आशा में कर रहे हैं। किंतु इस जटिल मुद्दे में चुनाव आयोग भी फंस गया है। 

आयोग ने परम्परा से हटकर एक विवादास्पद निर्णय लिया और हिमाचल तथा गुजरात चुनावों की घोषणा एक साथ नहीं की जबकि दोनों विधानसभाओं के कार्यकाल को समाप्त होने में केवल दो सप्ताह का अंतर है। गुजरात विधानसभा का कार्यकाल 22 जनवरी को समाप्त हो रहा है और हिमाचल विधानसभा का 7 जनवरी को। हिमाचल में 9 नवम्बर को चुनाव होंगे तथा परिणाम 40 दिन बाद यानी 18 दिसम्बर को घोषित किए जाएंगे, इसलिए यह बात समझ से परे है कि चुनाव आयोग ने गुजरात चुनावों की घोषणा क्यों नहीं की, जबकि हिमाचल में भी चुनाव प्रक्रिया तभी पूरी होगी जब गुजरात में होगी। 

इससे एक प्रश्न उठता है कि क्या कांग्रेस का यह आरोप सही है कि गुजरात के मामले में चुनाव आयोग ने भेदभाव किया है और भगवा संघ का पक्ष ले रहा है? दोनों विधानसभाओं के कार्यकाल लगभग एक साथ समाप्त हो रहे हैं फिर गुजरात में चुनावों की घोषणा क्यों नहीं की गई? और यदि गुजरात में भी मतगणना हिमाचल के साथ-साथ की जानी है तो फिर वहां अभी से आदर्श आचार संहिता लागू क्यों नहीं की गई? इससे वास्तव में क्या प्राप्त होगा? हिमाचल प्रदेश में मतदान और मतगणना में 39 दिनों का अंतर क्यों रखा गया? क्या चुनाव आयोग ने अपनी निष्पक्षता और स्वतंत्रता के साथ समझौता किया है? क्या चुनाव आयोग अपने आप में एक कानून है? 

नि:संदेह इससे एक गलत संदेश गया है और एक गलत पूर्वोद्दाहरण स्थापित हुआ है। सामान्यतया निर्वाचन आयोग उन राज्यों में विधानसभा चुनाव एक साथ कराता है जहां पर विधानसभाओं का कार्यकाल 6 माह के भीतर समाप्त हो रहा हो और इन राज्यों के लिए चुनावों की घोषणा एक साथ की जाती है। उदाहरण के लिए इस वर्ष उत्तर प्रदेश, पंजाब, गोवा, मणिपुर और उत्तराखंड में एक साथ चुनाव हुए। इन राज्यों में 4 फरवरी से 8 मार्च तक चुनाव हुए और चुनावों की घोषणा एक साथ 4 जनवरी को की गई। वर्ष 2002-03 में गोधरा दंगों के बाद जब गुजरात विधानसभा को समय पूर्व भंग किया गया था तब चुनावों की घोषणा 28 अक्तूबर, 2002 को की गई थी, जबकि हिमाचल के लिए 11 जनवरी, 2003 को की गई थी अन्यथा 1998 से लेकर अब तक गुजरात और हिमाचल विधानसभाओं के चुनावों की घोषणा एक  साथ की जाती रही है। 

अब कांग्रेस शासित हिमाचल में आदर्श आचार संहिता लागू हो गई है, जबकि भाजपा शासित गुजरात में अभी लागू नहीं हुई है। इससे भाजपा को लाभ मिल सकता है और वह भी तब जब गुजरात में विधानसभा चुनाव 18 दिसम्बर से पूर्व सम्पन्न होना है। मुख्यमंत्री रूपाणी ने पहले ही राज्य में रोजगार के 1 लाख नए अवसर सृजित करने के लिए 16 नए औद्योगिक जोनों की स्थापना और 780 करोड़ रुपए के विकास कार्यों का उद्घाटन कर दिया है। इसीलिए कांग्रेस ने चुनाव आयोग पर आरोप लगाया है कि वह भगवा संघ के दबाव के समक्ष झुक रहा है ताकि प्रधानमंत्री मोदी राज्य में अपनी रैलियों में लोक लुभावने वायदों की घोषणा कर सकें। 

2007 और 2012 में गुजरात और हिमाचल प्रदेश में आदर्श आचार संहिता 83 दिन और इस वर्ष पंजाब और गोवा में 64 दिन तक लागू रही। साथ ही आयोग ने यह भी कहा कि यह विलम्ब गुजरात के मुख्य सचिव के इस आग्रह पर भी किया गया कि चुनावों की घोषणा से आदर्श आचार संहिता लागू हो जाएगी और इससे राज्य में बाढ़ राहत और पुनर्वास कार्यों में बाधा पड़ेगी। किंतु यह तर्क भी दमदार नहीं है। सच यह है कि पार्टियां आदर्श आचार संहिता की बात करती हैं किंतु यह चुनाव आयोग और पार्टियों के बीच एक स्वैच्छिक समझौता है। आदर्श आचार संहिता की वैधानिक बाध्यता नहीं है और पाॢटयां आए दिन इसका उल्लंघन करती रहती हैं और निर्वाचन आयोग नि:सहाय बना रहता है। इसका तात्पर्य है कि व्यक्ति आदर्श आचार संहिता का उल्लंघन करते हुए भी लोकसभा या विधानसभाओं के लिए चुना जाता है। 

नि:संदेह वर्तमान राजनीतिक प्रणाली और राजनीतिक मूल्यों में बदलाव के लिए लम्बा संघर्ष करना पड़ेगा। गुजरात में भाजपा और नमो की साख दाव पर लगी है। मुद्दा यह नहीं है कि राज्य में संख्या खेल में कांग्रेस भाजपा को मात देती है या भाजपा कांग्रेस को, किंतु जैसा कि पूर्व निर्वाचन आयुक्त कुरैशी ने कहा है, ‘‘चुनाव की घोषणा टालने से गंभीर प्रश्न खड़े होते हैं। यदि सरकार लोकप्रिय योजनाओं और वायदों की घोषणा करती है तो इससे आयोग की साख दाव पर लगेगी। आयोग पर आरोप लगेगा कि उसने आदर्श आचार संहिता लागू करने से पहले गुजरात सरकार को कुछ अतिरिक्त दिन दिए हैं। 

बड़ी कठिन मेहनत से आयोग की प्रतिष्ठा स्थापित की गई है और यह प्रतिष्ठा धूमिल हो सकती है जोकि हमारे लोकतंत्र के लिए घातक होगा। राजनेताओं को यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि उनकी वैधता चुनाव आयोग द्वारा कराए गए स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों से प्राप्त होती है और आयोग की वैधता चुनावों की विश्वसनीयता की गारंटी देती है।’’ कुल मिलाकर लोकतंत्र में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराना एक मूल अधिकार है और इसके लिए भारत के संविधान में अनुच्छेद 324 के अंतर्गत निर्वाचन आयोग को परम शक्तियां दी गई हैं। नि:संदेह टी.एन. शेषन, गोपालस्वामी, लिंगदोह और गिल जैसे मुख्य निर्वाचन आयुक्तों ने देश को यह बताया कि निर्वाचन आयोग क्या कर सकता है? 

शेषन द्वारा आदर्श आचार संहिता का कड़ाई से पालन करवाने से नेता और सरकारें आयोग से डरने लगी थीं। इससे निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित हुआ। गोपालस्वामी ने इस प्रणाली को और सुचारू बनाया और लिंगदोह ने यहां तक सुनिश्चित कराया कि जम्मू-कश्मीर में भी चुनाव ईमानदारी से हों जहां पर लम्बे समय से चुनावों में हेराफेरी हो रही थी। इन सब लोगों ने लोकतंत्र को मजबूत किया। साथ ही भावी चुनावों की दिशा भी तय की। निर्वाचन आयोग को भी सतर्क रहना होगा और यह सुनिश्चित करना होगा कि कोई पार्टी या उम्मीदवार उस पर पक्षपात करने का आरोप न लगाए। साथ ही चुनावों में हेराफेरी और अन्य अनियमितताओं की शिकायतें न आएं और आदर्श आचार संहिता का कड़ाई से पालन हो। आयोग द्वारा आकर्षक विज्ञापन देने से उत्तरोत्तर चुनावों में मतदान प्रतिशत बढ़ा है। 

अब सबकी निगाहें नमो के गृह राज्य गुजरात पर लगी हैं कि वहां चुनाव कौन जीतता है। किंतु हमारी पार्टियों को यह समझना होगा कि यदि हमारी संवैधानिक संस्थाएं दृढ़ता से कार्य नहीं करतीं तो हमारे देश में अराजकता जैसी स्थिति पैदा हो जाती। कुल मिलाकर यह महत्वपूर्ण नहीं है कि कौन चुनाव जीतता है या कौन हारता है क्योंकि इस खेल में अंतत: जनता हारती है।     


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