जनता मौके की नजाकत को समझे

punjabkesari.in Monday, Apr 29, 2024 - 03:02 AM (IST)

भारतीय  समाज में सामाजिक उत्पीडऩ का मुद्दा सदियों पुराना है। ऐतिहासिक विकास के विभिन्न चरणों में जहां शासक जनता को अंधाधुंध लूटते रहे, वहीं समाज का एक बड़ा भाग सामाजिक दृष्टि से अनेक अमानवीय अत्याचारों का शिकार होता रहा। इन अत्याचारों की सूची में जातिगत भेदभाव एक प्रमुख मुद्दा है। दुष्ट लोगों ने अपने स्वार्थ के लिए समाज को जातियों में बांट दिया और ऐसी व्यवस्था बना दी, जहां व्यक्ति का मूल्यांकन गुण के आधार पर नहीं, बल्कि उस जाति के आधार पर किया जाता है, जिसमें वह पैदा हुआ है । 

पूजा स्थलों, जल स्रोतों, श्मशान घाटों, आवासीय क्षेत्रों को अलग कर दिया गया और उन्हें लंबे समय तक संपत्ति खरीदने और शिक्षा प्राप्त करने के अधिकार से भी वंचित रखा गया। वर्तमान वैज्ञानिक युग में भी भारतीय समाज में जाति व्यवस्था किसी न किसी रूप में न केवल कायम है, बल्कि कई मायनों में गहरी हो चुकी है।भारत की कम्युनिस्ट लहर की एक यह कमजोरी रही है कि इसने सामूहिक रूप में समाज में फैले छुआछूत और सामाजिक असमानता को एक ठोस मुद्दे के रूप में नहीं माना। यद्यपि भारी बहुमत वाले कम्युनिस्टों ने जात-पात व्यवस्था का निजी तौर पर काफी हद तक विरोध किया।  

इसके विरुद्ध न तो कोई सतत संघर्ष हुआ और न ही इस वर्ग के लोगों द्वारा कोई सामाजिक दबाव बनाया गया। एक छोटे वर्ग में जातिगत मानसिकता की जड़ें आज भी मौजूद हैं, जिनमें से कई निर्णायक हैं। कई मौकों पर बहुत ही अभद्र अभिव्यक्ति होती है। कम्युनिस्टों ने देश में एक वर्ग द्वारा की जा रही लूट को खत्म करके समानता का माहौल बनाया। दलित समाज में कई साहसी और विवेकशील लोगों ने दलित उत्पीडऩ, जाति व्यवस्था और छुआ-छूत के खिलाफ आवाज उठाई है और बड़े आंदोलन खड़ा करने का प्रयास भी किया है।

यहां यह उल्लेख करना अप्रासंगिक नहीं होगा कि अपने संस्थापक अधिवेशन में आर.एम.पी.आई.ने जाति-पाति विहीन समाज के निर्माण और नारी मुक्ति के लक्ष्य को पार्टी कार्यक्रम में शामिल किया था। तमाम घोटालों के बावजूद यह कहना गलत होगा कि समाज का यह सबसे पिछड़ा तबका अब सामाजिक गुलामी और अपने साथ होने वाले भेदभाव की स्थिति से पूरी तरह वाकिफ हो चुका है और इस त्रासदी के लिए जिम्मेदार दलों की स्पष्ट रूप से पहचान कर राजनीतिक और वैचारिक कार्रवाई कर रहा है।श्री गुरु नानक देव जी और भक्ति लहर के महान नेताओं ने अपने कार्यों से लोगों को जन्म के आधार पर बांटने वाली पिछड़ी मानवतावादी विचारधारा पर करारा प्रहार किया है।

इन समाज सुधारकों और अन्य प्रगतिशील लोगों द्वारा शुरू किए गए इस मानवतावादी आंदोलन को गदर आंदोलन कहा गया।  शहीद-ए-आजम भगत सिंह और उनके साथियों, बाबा साहेब डा. भीमराव अंबेडकर जी जैसे महान विद्वानों और संघर्षशील नेताओं का युवा आंदोलन और कम्युनिस्ट आंदोलन आगे बढ़ा है। एक समय बाबू कांशीराम जी ने अपने तरीके से बसपा की स्थापना कर दलित आंदोलन को नई ऊर्जा दी थी। हालांकि, उनके इस महान योगदान को किसी भी कीमत पर नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है, लेकिन यह भी सच है कि उन्होंने बसपा के अनुयायियों को पूंजीपति और सामंती वर्गों द्वारा दलित समुदाय सहित पूरे श्रमिक वर्ग के अनियंत्रित शोषण से भी अवगत कराया।

आर् और सामाजिक समानता वाले समाज की स्थापना के लिए सबसे महत्वपूर्ण शर्त यह है कि उत्पादन के साधनों पर कब्जा करने के लिए राज्य की सत्ता श्रमिकों और किसानों के हाथों में आ जाए। इसे ही सामाजिक और राजनीतिक क्रांति कहते हैं, जिसके लिए मजदूरों और किसानों की एकता और खूनी संघर्ष, हर कुर्बानी देने का जज्बा, क्रांतिकारी संगठन और वैचारिक और राजनीतिक प्रतिबद्धता की बेहद जरूरत है। दलित समाज की भागीदारी के बिना न तो अकेले दलित समाज इस कार्य को अंजाम दे सकता है और न ही अन्य श्रमिक वर्ग सामाजिक परिवर्तन के इस महान कार्य को पूरा कर सकते हैं। कितना ही अच्छा होता अगर बाबू कांशीराम जी दलित मुक्ति की अपनी उच्च आशाओं को साकार करने के लिए स्पष्ट रूप से बसपा को वामपंथी और लोकतांत्रिक ताकतों के साथ जोड़कर एक संयुक्त आंदोलन को संगठित करने में योगदान देते। 

इस कमजोरी का दोष वामपंथी दलों पर भी लगता है, जिन्होंने डा. भीमराव अम्बेडकर जी और उनके बाद लगातार दलित आंदोलन को संगठित करने के प्रयासों और कोशिशों में पूरी ताकत से अपनी सार्थक भूमिका नहीं निभाई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तीसरी बार 2024 का लोकसभा चुनाव जीतने के बाद देश को धर्म आधारित देश (हिंदुत्ववादी देश) घोषित कर देंगे और इसे स्थापित करने के लिए ‘मनुवादी ढांचा’ लागू करने की घोषणा कर रहे हैं। ऐसे समय में बसपा राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा विरोधी राजनीतिक गठबंधन  

‘इंडिया’ के साथ मिल कर लोकसभा चुनाव में  भाजपा और उसके सहयोगियों को हराने के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं है। इसके विपरीत, यह राष्ट्रीय स्तर पर एक अलग तीसरे राजनीतिक दल के रूप में चुनावी मैदान में है। अगर देखा जाए तो यह ‘इंडिया’ और भाजपा के राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एन.डी.ए.) से 3 ही नजर आता है। लेकिन सभी राजनीतिक समझ रखने वाले लोग जानते और समझते हैं कि यही रणनीति वास्तव में भाजपा गठबंधन के पक्ष में नुकसान का कारण बनेगी। यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि बसपा ‘सुप्रीमो’ कुमारी मायावती अपने बयानों में जितना तीखा हमला ‘इंडिया’ गठबंधन पर कर रही हैं, उससे कहीं अधिक तीखा हमला उन्होंने भाजपा पर किया है, जो अंधराष्ट्रवादी व्यवस्था थोपने पर आमादा है। 

यह उन करोड़ों भूमि पुत्रों के साथ भी अन्याय है जो सामाजिक परिवर्तन के लिए प्रतिबद्ध हैं। बसपा का वर्तमान राजनीतिक रुख भाजपा के साथ बिल्कुल ठीक बैठ रहा है। यदि इस समय भी मनुवादी ढांचे को लागू करने वाली प्रमुख राजनीतिक पार्टी भाजपा के मुकाबले बसपा को चुनाव में नुकसान नहीं होगा तो फिर बसपा के अस्तित्व के पीछे और क्या तर्क रह जाता है? दलित समुदाय की वोट या सार्वजनिक जमीन और जाति-आधारित उत्पीडऩ से मुक्ति की लालसा किसी बैंक में सावधि जमा की तरह नहीं है, जिसका उपयोग वैचारिक ताकतों को हराने की बजाय किसी विशेष व्यक्ति के व्यक्तिगत लाभ के लिए किया जाता है। हो सकता है कि हमारी अपील बसपा सुप्रीमो कुमारी मायावती को रास न आए, लेकिन हम पूरे दलित समाज, खासकर समाज के जुझारु, नि:स्वार्थ, ईमानदार और प्रतिबद्ध कार्यकत्र्ताओं से दिल की गहराइयों से अपील करना उचित समझते हैं कि मौके की नजाकत समझें और लोकसभा चुनाव में किसी भी कीमत पर भाजपा गठबंधन या उसके छुपे-खुले सहयोगियों को वोट न दें। -मंगत राम पासला


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