चीन के कैंसर रोगियों को भारत की ‘संजीवनी’

punjabkesari.in Saturday, Jul 14, 2018 - 04:20 AM (IST)

चीन केवल सेना, सरहद और संकट की आहट नहीं है। चीन केवल धमकियां और शत्रुता नहीं है। चीन 4 हजार किलोमीटर लम्बी सीमा से बंधा पड़ोसी और 5 हजार वर्ष पुरानी सभ्यता वाली संस्कृति, लोग, उनके रहन-सहन, भाषा, साहित्य, असंतोष और दमन-घुटन का स्वर भी है। 

चीन को जाने-समझे बिना उसके साथ व्यवहार भी हम ठीक से तय नहीं कर पाएंगे, इसलिए बहुत जरूरी है कि अमरीका, इंगलैंड के दिवास्वप्न छोड़ भारत के युवा अधिक से अधिक चीन जाएं, वहां के हालात को समझें और जन-स्तर पर संबंध बढ़ाएं। चीन की सरकार और कम्युनिस्ट पार्टी से वहां की जनता के स्वरों को थोड़ा-सा अलग करके देखने से स्थिति बेहतर समझ आएगी। चीन में इन दिनों एक फिल्म ‘व पू श योशन’ की अखबारों की सुर्खियों में चर्चा है। इस शीर्षक का अर्थ है, ‘मैं औषधियों का ईश्वर नहीं।’ यह फिल्म चीन के गरीब कैंसर रोगियों को भारत से सस्ती दर पर दवा लाकर बिना मुनाफे के देने वाले समाजसेवी की संघर्ष कथा है। 

भारत की कैंसर दवाएं अच्छी और सस्ती हैं, जबकि ब्रिटेन और अमरीका से वही दवाएं 15 से 20 गुना महंगी होती हैं लेकिन भारत की दवाओं को चीन में बिकने की वैधानिक अनुमति नहीं है अत: भारत की दवाएं यहां लाकर बेचना गैर-कानूनी है इसलिए जब चीनी युवक लू योंग गरीब कैंसर रोगियों को भारत से चुपचाप दवाएं लाकर देने लगा तो पश्चिमी देशों की दवा कम्पनियों ने लू योंग के खिलाफ बौद्धिक सम्पदा की चोरी का मुकद्दमा दर्ज कर दिया। 

यह फिल्म बहुत रोचक, भावपूर्ण तथा चीन के समाज में एक भिन्न स्तर के संघर्ष का सशक्त चित्रण करती है। आशा करनी चाहिए कि भारत का सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय चीन सरकार के सहयोग से यह फिल्म भारत में दिखाने का आयोजन करेगा। फिल्म की कथा का निरुपण सत्य कथा पर आधारित है और करोड़ों चीनियों के हृदय को छूने वाला है। किस प्रकार चीन के कैंसर रोगी संगठित होकर लू योंग के पक्ष में अदालत में याचिका दायर करते हैं और अंतत: विदेशी दवा कंपनियों की शिकायत खारिज कर चीनी अदालत के न्यायाधीश लू योंग के पक्ष में निर्णय देते हैं। यह घटनाक्रम फिल्म के दर्शकों की आंखें नम कर देता है।

यह विडम्बना है कि हम पाकिस्तान जैसे क्रूर और बर्बर देश के नागरिकों की सहायता एवं वहां के संगठनों के साथ अमन की आशा जैसे पाखण्ड करना बहुत बड़ी उपलब्धि मानते हैं परन्तु चीन के साथ, वहां के नागरिकों से संबंध बढ़ाने को संदेह के घेरे में खारिज कर देते हैं। पिछले कुछ समय से, विशेषकर नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्रित्व में युवाओं तथा सामान्य नागरिक स्तर पर मिलने-जुलने और विचार विनिमय का दौर बढ़ा है, जिसका सकारात्मक असर भी पड़ा है। जिस समय शंघाई से मैं यह स्तम्भ भेज रहा हूं, पेइङ्क्षचग में भारत से 200 युवाओं का प्रतिनिधिमंडल एक सप्ताह की यात्रा पर आया हुआ है। सिचुआन विश्वविद्यालय के एक प्राध्यापक प्रो. लू ने बताया कि कुनमिंग के पास एक योग विश्वविद्यालय खुला है और पिछले वर्ष कोयम्बटूर (भारत) में ईशा योग केन्द्र में शिव-आराधना के निमित्त 500 चीनी युवक-युवतियां आए थे परन्तु प्राय: ऐसी सकारात्मक घटनाओं की भारत के मीडिया में भी अनदेखी हो जाती है। 

चीन में 20,000 से अधिक भारतीय छात्र हैं जो विभिन्न मैडीकल, इंजीनियरिंग कालेजों में पढ़ाई कर रहे हैं। 15 से अधिक विश्वविद्यालयों में ङ्क्षहदी विभाग हैं। बिहार से बड़ी संख्या में छात्र मैडीकल तथा इंजीनियरिंग के लिए आते हैं क्योंकि भारत में इन विषयों की पढ़ाई बहुत महंगी है तथा कालेजों में एक से दो करोड़ ‘डोनेशन’ का ‘पढ़ाई टैक्स’ अलग से देना पड़ जाता है। चीन में रहना, खाना, फीस सब मिलाकर 20 लाख रुपए के आसपास डाक्टरी, इंजीनियरिंग की डिग्री मिल जाती है। यह स्थिति भारत में कैसे सुधरे, इसकी हमें चिंता करनी होगी। 

चीन में भारतीयों को प्राय: सभी क्षेत्रों में बहुत ईमानदार तथा भरोसे योग्य ‘अति बुद्धिमान’ मानते हैं। उदाहरण के लिए शंघाई जैसे औद्योगिक नगर में जिसे चीन का ‘न्यूयॉर्क’ कहा जाता है, भारतीय एसोसिएशन के समाजसेवी कार्यों की खूब चर्चा है। इसमें महिन्द्रा टैक, टी.सी.एस., टाटा, एच.सी.एल. जैसी कंपनियों और सी.आई.आई., फिक्की जैसे भारतीय उद्योग संगठनों के वरिष्ठ अधिकारी सदस्य हैं तो अनेक विदेशी कंपनियों में शिखर स्थानों पर बैठे भारतीय भी हैं। भारत का वाणिज्य दूतावास यहां सर्वाधिक सक्रिय विदेशी राजनयिक केंद्र है और सिचुआन में 2 दिन पहले ही ‘इंडिया कार्नर’ की स्थापना हुई है जो इस बड़े व महत्वपूर्ण प्रदेश में भारतीय कला, संस्कृति, शिक्षा संबंधी गतिविधियां आयोजित करेगा। 

शंघाई में भारतीय एसोसिएशन के सदस्यों ने चीन के अस्पतालों को एक हजार यूनिट रक्तदान किया है जो चीन के सामाजिक इतिहास में अभूतपूर्व है। चीन में रक्तदान जैसी कोई कल्पना या व्यवस्था नहीं है। जब रक्त चाहिए तो उसे खरीदा जाता है। भारतीयों द्वारा चीन के रोगियों को एक हजार यूनिट रक्तदान उन्हें अभिभूत कर गया। वू हान में मोदी-शी अनौपचारिक शिखर वार्ता के बाद बदले माहौल में अनेक सकारात्मक कदम उठाए जा रहे हैं। भारत में इसकी अच्छी प्रतिध्वनि होनी चाहिए। सब कुछ खराब, विवादग्रस्त नहीं, बहुत कुछ अच्छा और आशादायक भी है।-तरुण विजय


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Pardeep

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