‘आत्मचिंतन’ करे अब भाजपा

punjabkesari.in Sunday, Dec 29, 2019 - 01:45 AM (IST)

भाजपा के कार्यकत्र्ताओं और समर्थकों के साथ विरोधियों के अंदर भी यह भाव गहरा हो रहा है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और अमित शाह दबाव में आ गए हैं। प्रधानमंत्री द्वारा रामलीला मैदान से एन.आर.सी. पर लंबा स्पष्टीकरण देना तथा शाह द्वारा एक साक्षात्कार में कहना कि अभी एन.आर.सी. पर काम नहीं हो रहा है तो उस पर चर्चा करने की क्या जरूरत है, इसका प्रमाण माना जा रहा है। प्रधानमंत्री का वक्तव्य झारखंड चुनाव परिणाम के पूर्व का है तो गृहमंत्री का चुनाव परिणाम के बाद का। नागरिकता संशोधन कानून का विपक्षी पार्टियों के विरोध से तो सरकार पर शायद ही कोई असर होता लेकिन हिंसा और उपद्रव ने लगता है असर डाला। 

हिंसा सुनियोजित तथा कुछ प्रायोजित थी
यह साफ  हो गया है कि हिंसा कुछ सुनियोजित थी, कुछ झूठ और गलतफहमी पैदा करके उकसाने के कारण तो कुछ प्रायोजित। सरकार इससे निपटते हुए विपक्षी पार्टियों का राजनीतिक रूप से सामना कर रही थी। झारखंड पराजय ने उसे नि:संदेह आघात पहुंचाया है। हालांकि केन्द्रीय नेतृृत्व को इसका एहसास था कि झारखंड की सत्ता जा रही है। इसीलिए जितना संभव था केन्द्र की ओर से क्षति कम करने की कोशिश हुई। जो भी हो, झारखंड चुनाव परिणाम को नरेन्द्र मोदी सरकार के उन कार्यों से जोड़कर देखना बिल्कुल गलत है जो उसकी विचारधारा से जुड़े हैं। ऐसे अतिवादी विश्लेषण का यथार्थ से कोई लेना-देना नहीं है कि भाजपा के कदमों से उसके खिलाफ जनाक्रोश पैदा हो चुका है और उसका भविष्य में केन्द्र की सत्ता से भी जाना तय है। 

नि:संदेह, भाजपा के लिए चिंता की बात है कि लोकसभा चुनाव के बाद 3 राज्यों के चुनावों में किसी तरह एक राज्य हरियाणा में वह गठबंधन की सरकार बना सकी। हालांकि महाराष्ट्र में पहले से उसे कम सीटें अवश्य मिलीं, लेकिन शिवसेना गठबंधन के साथ उसे बहुमत प्राप्त हुआ था। हरियाणा में भी वह 40 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी थी तथा उसके विद्रोही 6 निर्दलीय जीते जो बाद में साथ आ गए। झारखंड में भी उसे अकेले सबसे ज्यादा करीब 34 प्रतिशत वोट मिले हैं। उसकी सदस्य संख्या 34 लाख 77हजार है जबकि उसे 50 लाख के आसपास वोट मिले हैं। इसलिए जिसे भाजपा के अवसान का गीत लिखने से संतोष मिल रहा हो वे लिखें। धरातली सच वह नहीं है। 

हां, भाजपा के लिए गंभीर आत्मचिंतन तथा सांगठनिक सुधारात्मक कदमों की आवश्यकता निश्चित रूप से पैदा हुई है। आत्मचिंतन भी उस मायने में नहीं जैसे विरोध जता रहे हैं। आत्मचिंतन इस मायने में कि यदि आप इतिहास का नया अध्याय लिखने के दृढ़ इरादे से आगे निकल चुके हैं तो फिर यह मत मानिए कि आसानी से ऐसा हो जाएगा। आपको अनेक झंझावात, तूफान, बाधाओं के साथ ऐसे-ऐसे आघात लग सकते हैं जो कि निराशा के चरम तक ले जाएं। अपने निर्णय पर अडिग रहते हुए इन सबसे जूझते हुए आगे बढऩे की कोशिश करते रहना होगा। 

भाजपा के खिलाफ हुआ जनमत
कोई यह कह दे कि भाजपा के खिलाफ जनमत इसलिए हो रहा है कि उसने एक साथ तीन तलाक के विरुद्ध कानून बना दिया, फिर आतंकवाद विरोधी कानून को पहले से ज्यादा सख्त किया, सबसे बढ़कर उसने कश्मीर से अनुच्छेद 370 का खात्मा कर उसका पूरा भूगोल और विधान बदल दिया व अब नागरिकता कानून तथा फिर भविष्य में एन.आर.सी. की ओर जाने की घोषणा तो उस पर केवल हंसा जा सकता है। कुछ लोग तो यह भी कह रहे हैं कि अयोध्या मामले की तेजी से सुनवाई कर जिस तरह उच्चतम न्यायालय ने फैसला मंदिर के पक्ष में दे दिया उसके भी नेपथ्य में सरकार की भूमिका थी और इससे अंदर ही अंदर एक समुदाय में आशंकाएं पैदा हुईं। इनसे पूछा जाना चाहिए कि भाजपा के मायने क्या हैं? ये सारे कदम तो भाजपा की मूल विचारधारा से जुड़े हैं। इनको हटा दें तो फिर भाजपा नामक पार्टी की आवश्यकता ही नहीं है। भाजपा और इसका पूर्वज जनसंघ बना ही इन्हीं कार्यों के लिए था। 

सच यह है कि नरेन्द्र मोदी सरकार 1 में 2017 के उत्तराद्र्ध से कार्यकत्र्ता और नेता तक निराश होने लगे थे। जम्मू-कश्मीर में जब उसने पी.डी.पी. सरकार से अपने को अलग कर एक से एक कठोर कदम उठाना आरंभ किया तो फिर कार्यकत्र्ताओं-नेताओं में सरकार और पार्टी को लेकर उत्साह पैदा हुआ जो बालाकोट और फिर उपग्रहरोधी मिसाइल परीक्षण से सशक्त हुआ। अमित शाह के सरकार में आने के बाद से आम कार्यकत्र्ता, नेता और समर्थक की यही प्रतिक्रिया थी कि अब लग रहा है कि यह भाजपा की सरकार है। जिस तरह तीन तलाक विरोधी विधेयक पारित हुआ तथा 370 पर अमित शाह ने जैसे संसद का सामना कर पारित कराया, उसने पूरे संघ परिवार को उनका एवं सरकार का कायल बना दिया। 

दबाव में आने की बजाय मुकाबला करने की आवश्यकता है
मोदी और शाह को समझना होगा कि आप इस तरह के ऐतिहासिक विधान बनाते और कदम उठाते जाएंगे तथा आपका बहुआयामी विरोध नहीं होगा, विरोधी पाॢटयों से लेकर वैचारिक रूप से नफरत पालने वाले लैफ्ट लिबरल एक्टिविस्ट, एन.जी.ओ., विधिवेत्ता, जन समूह, संगठन, बुद्धिजीवी, पत्रकार, कट्टरपंथी साम्प्रदायिक मुस्लिम नेता सब एकदम आसानी से आपको काम करने देंगे, यह संभव नहीं। बहुत सारे नामधन्यों का तो अस्तित्व ही खत्म होने के कगार पर आ गया है। उसमें बहुतों के लिए करो या मरो की स्थिति है। तो अलग-अलग तरीकों से नागरिकता कानून और एन.आर.सी. का हथियार लेकर ये कूद पड़े हैं जिससे मोदी और शाह की जोड़ी को रोका जा सके। देश-विदेश में बदनाम करने से लेकर हर तरह से रोकने की कोशिश हो रही है। ऐसी स्थिति में दबाव में आने की जगह इसका मुकाबला करने की आवश्यकता है और देश भर में समर्थक सड़कों पर भारी संख्या में उतरकर जवाब दे रहे हैं। सच यह है कि जिस तरह की हिंसा, विरोध और बयानबाजी सरकार के खिलाफ हो रही है उससे उसका समर्थन ज्यादा बढ़ रहा है। विधानसभा चुनावों मेंपराजय के कारण अलग थे। या आगे भी भाजपा विधानसभा चुनाव में अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाती तो उसे इससे जोड़कर देखा ही नहीं जा सकता। 

सेना का एक हिस्सा आपस में लड़ता जाए तो विजय नहीं मिलती
किसी युद्ध में सेनापति आगे बढ़ जाए और सेना का एक हिस्सा पीछे आपस में ही लड़ता रह जाए तो फिर विजय नहीं मिल सकती। ऐसी ही स्थिति भाजपा की हो गई है। सेनापति यानी मोदी और शाह तो इतिहास निर्माण और विचारधारा पर काम करते हुए अंतिम लक्ष्य तक जाने के लिए दौड़ लगा चुके हैं लेकिन पार्टी के अंदर एक बड़े वर्ग को लगता है कि उसके लिए यह सब मायने तभी रखता है जब उसे पद मिले, चुनाव में टिकट मिले या वह जिसे चाहता है उसे पद और टिकट मिलेे। ऐसी सेना से आप इतिहास के नए अध्याय लिखने वाले युद्ध में विजय नहीं पा सकते। 

भाजपा पार्टी के रूप में वाजपेयी जी के शासनकाल में क्षरित, दिग्भ्रमित और कमजोर हो चुकी थी। नरेन्द्र मोदी के आने से पूरे संगठन परिवार में उत्साह अवश्य पैदा हुआ और चुनावों में विजय मिलती गई पर पार्टी की सांगठनिक और वैचारिक पुनर्रचना का काम नहीं हो सका है। ऐसे समर्पित कार्यकत्र्ता और नेता फिर से तैयार करने की जरूरत है जिनके लिए राष्ट्र वाकई प्रथम हो, दल और सरकार का लक्ष्य प्राथमिकता में हो और निजी महत्वाकांक्षा गौण। पार्टी में इसकी क्षमता बनी हुई है।-अवधेश कुमार


सबसे ज्यादा पढ़े गए

Recommended News

Related News