कांग्रेस की तुलना में भाजपा हमेशा ही अधिक अनुशासित पार्टी रही है

punjabkesari.in Monday, Jun 04, 2018 - 03:35 AM (IST)

देशभर में हुए ताजा उपचुनावों ने भारतीय जनता पार्टी की पराजय में 2019 की घटनाओं को लेकर अटकलें पैदा कर दी हैं। हम इस मुद्दे पर राज्यवार दृष्टिपात पहले ही कर चुके हैं और मैं इस कवायद को दोहराना नहीं चाहता। यह मानना काफी तर्कसंगत प्रतीत होता है कि यदि विपक्ष के बड़े भाग एकजुट रहते हैं तो लोकसभा चुनावों में भाजपा के लिए 210 से अधिक सीटों पर जीत पाना मुश्किल होगा। 

ऐसा हुआ तो भाजपा भी उस आकार तक पहुंच जाएगी जो यू.पी.ए. गठबंधन सरकार में कांग्रेस को नसीब हुआ था। मैं ऐसा नहीं सोचता कि वर्तमान परिस्थितियों में ऐसी कोई संभावना है कि भाजपा सबसे बड़ी पार्टी होने की अपनी हैसियत का परित्याग करेगी। यह दृढ़ता से इस हैसियत को बनाए रखेगी जिससे पार्टी नेतृत्व को एक तरह के नए राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का निर्माण करने के लिए विकल्प ढूंढने की गुंजाइश मिल जाएगी। 

दो क्षेत्रीय पार्टियां फिलहाल राजग में शामिल नहीं परन्तु कभी इसका अंग रह चुकी हैं-जैसे कि कुछ तमिल पाॢटयां-वे शायद फिर से शामिल हो जाएंगी। कुछ अन्य पार्टियां जो कभी राजग के साथ रह चुकी हैं लेकिन अब इसकी विरोधी बन गई हैं, फिर से इसमें शामिल हो सकती हैं या निष्पक्ष  रह सकती हैं। चंद्र बाबू नायडू की तेलगूदेशम और नवीन पटनायक का बीजू जनता दल-इस तरह के दो उदाहरण हैं। वैसे इस तरह की अन्य पार्टियां भी हैं। 

यदि आगामी लोकसभा चुनाव में भाजपा की सीट संख्या में 70 या 80 की कमी आती है तो भी भाजपा के लिए सत्ता में वापसी करना न केवल संभव बल्कि शायद आसान भी होगा। दो बातें बहुत दिलचस्प रहेंगी। पहली-भाजपा सीटों की क्षति और बहुमत छिन जाने के प्रति आंतरिक रूप में यानी संगठन के अंदर किस तरह की प्रक्रिया करती है; और दूसरी बात यह है कि नेतृत्व अपने उन गठबंधन सहयोगियों से किस तरह पेश आता है जो किसी भी फैसले को वीटो करने की क्षमता रखते हैं। पहली स्थिति नरेन्द्र मोदी के लिए पूरी तरह नई होगी। पाठकों को याद होगा कि वह एक भी चुनाव लड़े बिना गुजरात के मुख्यमंत्री बन गए थे। उन्होंने सदैव बहुमत का नेतृत्व किया है। 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा को ऐसा महसूस हुआ था कि गुजरात भाजपा में गुटबंदी के कारण पैदा हुई फूट को दुरुस्त करने की जरूरत है और इसी काम के लिए मोदी को एक तरह से ‘पैराशूट’  की शैली में यानी कि राष्ट्रीय नेतृत्व द्वारा ‘ऊपर से’ भेजा गया था। अभी उन्हें सरकार की बागडोर संभाले कुछ ही महीने हुए थे कि गुजरात धधक उठा था। उसके बाद मोदी ने एक के बाद एक चुनावी जीतें दिलाईं और मुख्यमंत्री केरूप में उनका केवल इतना ही अनुभव है कि उन्होंने ऐसी सरकारों का नेतृत्व किया जिनमें उनके हाथों में सम्पूर्ण बहुमत और अक्सर दो-तिहाई बहुमत था। 

चुनावी जीतों के कारण उनका जो दबदबा बना उसे उन्होंने गुजरात-भाजपा पर सम्पूर्ण वर्चस्व बनाने के लिए प्रयुक्त किया। केशुभाई पटेल तथा लगातार 6 बार लोकसभा चुनाव जीतने वाले काशीराम राणा जैसे पुराने और पार्टी का निर्माण करने वाले नेताओं को हाशिए पर धकेल दिया गया। नए चेहरे प्रविष्ट कराए गए जो कि सभी के सभी मोदी के वफादार थे। मोदी ने अपने मंत्रिमंडल के एक-एक सदस्य का चयन अपनी मर्जी से किया और सभी कुंजीवत विभाग अपने पास रखे। इस तरह वे मंत्रिमंडल पर छाए रहे। अमित शाह को आज देश के दूसरे सबसे सशक्त नेता के रूप में देखा जाता है और सचमुच वे हैं भी। फिर भी यह स्मरण रखना बहुत सबककारी होगा कि एक दशक तक मोदी के  अंतर्गत गुजरात की सेवा करने वाले  शाह को मोदी ने कैबिनेट रैंक तक नहीं दिया बल्कि उन्हें राज्य मंत्री ही बनाए रखा था। 

मोदी के सम्पूर्ण वर्चस्व का तात्पर्य था कि पार्टी में दूसरे लोगों के समक्ष कोई विकल्प नहीं थे। जिन लोगों को उन्होंने हाशिए पर धकेल दिया था, मोदी की जीतों के बाद उनके पास उन्हें पीछे धकेलने का कोई जरिया नहीं था। ऐसी अफवाहें भी उड़ी थीं कि मोदी ने जिस प्रकार सारी शक्ति अपने हाथों में केन्द्रित की हुई है उससे आर.एस.एस. प्रसन्न नहीं लेकिन इन अफवाहों में से कुछ नहीं निकला। वास्तव में तो गुजरात में मोदी ने आर.एस.एस. के कुछ नेताओं को भी पंगु बनाकर रख दिया है। 2014 में मोदी के प्रतिभाशाली अभियान ने फिर दिल्ली में भी ऐसी ही स्थिति पैदा कर दी और वह पार्टी के निर्विवाद नेता बन कर उभरे जबकि इससे पहले पार्टी में कुछ हद तक मतभेद थे लेकिन कांग्रेस की तुलना में भाजपा हमेशा ही अधिक अनुशासित रही है। 

अडवानी और मुरली मनोहर जोशी जैसे पुराने दिग्गज नेताओं को ‘खुड्डे-लाइन’ लगा दिया गया। सुषमा स्वराज जैसे अन्य नेताओं को आत्मसमर्पण करना पड़ा। आज पार्टी को एक विराटाकार वाले प्रसन्न परिवार के रूप में देखा जाता है लेकिन वास्तविकता ऐसी नहीं है। अन्य सभी पार्टियों की तरह इसमें भी ऐसे बहुत से लोग हैं जो यह मानते हैं कि  वे बहुत अधिक और बेहतर कारगुजारी दिखाने में सक्षम हैं लेकिन उन्हें जानबूझ कर पंगु बना कर रखा गया। यदि ऐसी स्थिति बन जाती है कि भाजपा के पास लोकसभा की केवल 210 सीटें रह जाती हैं तो इस तरह के नेता अपना वह जलवा दिखाने का प्रयास करेंगे जो अब नहीं दिखा पा रहे। इन नेताओं में मुख्यमंत्रियों जैसे क्षेत्रीय नेता, राष्ट्रीय नेता तथा कुछ छोटे गुट शामिल हैं जो एकजुट होकर गिरोहबंदी कर रहे हैं। ऐसी स्थिति में यह देखना बहुत दिलचस्प होगा कि अपने राजनीतिक जीवन में पहली बार बहुमत से वंचित होने के बाद मोदी महत्वाकांक्षाओं और टकरावों से किस तरह निपटते हैं। 

दूसरी समस्या होगी गठबंधन सहयोगियों से निपटना। पार्टी की झोली में केवल 210 सीटें देकर प्रधानमंत्री बनने वाले व्यक्ति की हैसियत बिल्कुल मनमोहन सिंह जैसी ही होगी। यू.पी.ए. के इस नेता को कमजोर मानने वाले गलत हैं। उनकी कमजोरियों को किसी न किसी तरह उनकी व्यक्तिगत त्रुटियों के रूप में देखा जाता है जबकि उन्हें ऐसे व्यक्ति के रूप में देखा जाना चाहिए जिसके हर काम में गठबंधन सहयोगी अडंग़ा लगाने की वीटो शक्ति रखते हैं। इस तरह के गठबंधन सहयोगियों से बचने का कोई रास्ता नहीं। बस एक ही रास्ता है-‘‘चढ़ जा बच्चा सूली, राम भली करेगा।’’ अपनी सरकार या अपनी हैसियत की बलि देकर आगे बढऩा होगा। लेकिन यदि कोई ऐसी सरकार का नेतृत्व करना चाहता है जिसके पास बहुमत नहीं, तो सहयोगियों का मिजाज तो ठीक रखना ही होगा। 

लेकिन यह एक ऐसा काम है जो मोदी को कभी भी करने की जरूरत नहीं पड़ी। अल्पसंख्यक सरकार चलाने के लिए लचकीलेरवैये की जरूरत होती है और अपमान का कड़वा घूंट पीने की योग्यता भी अर्जित करनी पड़ती है। गठबंधन सहयोगी निश्चय ही यह सुनिश्चित करना चाहेंगे कि उनका दबदबा सार्वजनिक रूप में दिखाई दे और ऐसा करने का तात्पर्य होगा कि वे कभी-कभार सरकार को घुटने टेकने के लिए मजबूर करते रहेंगे। मोदी ऐसी स्थिति से कैसे निपटेंगे -यह देखना हममें से खासतौर पर ऐसे लोगों के लिए बहुत दिलचस्प होगा जिन्होंने  उनके करियर के धूमकेतु जैसे अभ्युदय को अपनी आंखों से देखा है। मैं पहले भी लिख चुका हूं कि अल्पमत सरकारों और खिचड़ी गठबंधनों ने न तो भारत की आॢथक पंथी को रोका है और न ही इसके सामाजिक विकास में बाधा बनी हैं। जिन लोगों को अल्पमत सरकार  या  भाजपा की लाचार सरकार बनने की आशंका है उन्हें किसी भी तरह हताश नहीं होना चाहिए। गठबंधन कोई मनहूस चीज नहीं है। फिर भी शिक्षाप्रद बात तो यह होगी कि मोदी इस तरह के गठबंधन का प्रबंधन कैसे करते हैं?-आकार पटेल


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Pardeep

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