भारत जोड़ो यात्रा: कांग्रेस को जोड़ेगी या बुरी तरह तोड़ देगी

punjabkesari.in Friday, Sep 23, 2022 - 05:37 AM (IST)

तो अब तय है कि राहुल गांधी देश भर में गांव-गांव, पांव-पांव कांग्रेस की विचारधारा का प्रचार-प्रसार करेंगे। अशोक गहलोत कांग्रेस के नए अध्यक्ष होंगे! भारत जोड़ो यात्रा को मिल रहे समर्थन और मीडिया कवरेज से साफ संकेत मिल रहे हैं कि कांग्रेस की वापसी हो रही है। ममता बनर्जी प्रधानमंत्री मोदी के प्रति नर्म हो रही हैं और मायावती भाजपा को आंखें दिखा रही हैं। यानी यू.पी. में अखिलेश, मायावती और कांग्रेस के बीच 2024 में गठबंधन की छटांक भर गुंजाइश दिखने लगी है। नीतीश कुमार विपक्ष के बीच समन्वय करने की दिशा में बढ़ रहे हैं, जिनको कांग्रेस आला कमान हरी झंडी दिखा रहा है। शरद पवार और उद्धव ठाकरे के साथ महाराष्ट्र में कांग्रेस का गठबंधन टूटा नहीं है। तो क्या यह मान लिया जाए कि कांग्रेस के अच्छे दिन आने वाले हैं? 

कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि भारत जोड़ो यात्रा या तो कांग्रेस को जोड़ेगी या फिर इस कदर तोड़ कर रख देगी कि भविष्य में जनता से जुडऩे लायक नहीं बचेगी। राहुल गांधी इसे समझ रहे हैं, इसलिए अध्यक्ष पद की दौड़ से अलग हो गए हैं। जनता के बीच घूमना, कांग्रेस की विचारधारा को जन-जन तक पहुंचाना और देश में एक बेहतर धर्मनिरपेक्ष माहौल तैयार करना है। यानी राहुल गांधी राजनीति नहीं करना चाहते। राहुल गांधी चाह रहे हैं कि कांग्रेस का नया अध्यक्ष अपनी अध्यक्षता में राजनीति करे, जम कर करे लेकिन क्या गहलोत ऐसा कुछ कर रहे हैं या उनकी राजनीति अपनों को रेवड़ी बांटने की है? 

अशोक गहलोत साफ कर चुके हैं कि वह अध्यक्ष नहीं बनना चाहते, वह राजस्थान के मुख्यमंत्री बने रहना चाहते हैं। अलबत्ता अगर सोनिया गांधी ने उन्हें आदेश दिया तो वह अध्यक्ष पद के लिए चुनाव लड़ेंगे। यहां तक तो ठीक है, लेकिन आगे वह चाहते हैं कि मुख्यमंत्री भी बने रहें। यह साफ नहीं कि गहलोत की प्राथमिकता खुद मुख्यमंत्री बने रहने की है या फिर सचिन पायलट नहीं बनें, इसका पुख्ता इंतजाम करने की है।

कहा जा रहा है कि सचिन सरकार और पार्टी को संभाल नहीं पाएंगे, पार्टी में खेमेबाजी, धड़ेबाजी बढ़ जाएगी, गुजरात और हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव से पहले राजस्थान की कांग्रेस सरकार का भाजपा ‘आप्रेशन लोटस’ कर देगी आदि-आदि। अब क्या भाजपा सच में राजस्थान में तख्तापलट के लिए तैयार है, इस पर कुछ नहीं कहा जा सकता, लेकिन साफ है कि कांग्रेस और निर्दलीय कुल मिलाकर करीब 120 विधायकों में से आज भी करीब 100 गहलोत के साथ हैं और इस बात को आला कमान भी समझता है और सचिन पायलट भी। 

अशोक गहलोत को एक व्यक्ति एक पद के चक्रव्यूह में घेरने की कोशिश भी हो रही है। दिग्विजय सिंह ने ही इस सवाल को उठाया है, लेकिन गहलोत ने भी साफ कर दिया कि नामांकित पर यह बात लागू होती है, निर्वाचित पर नहीं। गहलोत का कहना है कि अध्यक्ष पद के लिए 9000 वोटरों में से कोई भी लड़ सकता है। अब लडऩे वाला सांसद, विधायक, मंत्री आदि कुछ भी हो सकता है। अब चुनाव जीतने पर उसे अपने पद से इस्तीफा देने की जरूरत नहीं है। 

इसी तरह मुख्यमंत्री के नाते भी उन्हें इस्तीफा देने की जरूरत नहीं। जानकारों का कहना है कि तकनीति नजर में गहलोत सही हैं लेकिन नैतिकता की नजर में यह सही नहीं होगा। अब इस पर सोनिया गांधी ने हरी झंडी दे दी है, ऐसा कुछ सूत्रों का कहना है तो कुछ का कहना है कि राहुल गांधी अंतिम समय में अपना नजरिया पेश कर गहलोत को पशोपेश में डाल सकते हैं। राहुल ने कह ही दिया है कि एक व्यक्ति, एक पद की उदयपुर घोषणा का कमिटमैंट है तो है। 

राहुल गांधी ने 2019 के लोकसभा चुनावों के बाद अध्यक्ष पद छोड़ा था। तब भी गहलोत ने साफ कर दिया था कि उन्हें राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया तो साथ में वह मुख्यमंत्री बने रहना चाहेंगे। तब उनका तर्क था कि मुख्यमंत्री बने रहे तो प्रोटोकाल मिलेगा, सरकारी जहाज मिलेगा और देश भर में अपने हिसाब से घूमना-फिरना संभव हो सकेगा। इसके साथ ही कांग्रेस को फंड भी चाहिएं और इसकी व्यवस्था इस समय अशोक गहलोत और भूपेश बघेल ही करने की स्थिति में हैं। यही वजह है कि गहलोत को गुजरात और बघेल को हिमाचल के चुनाव की जिम्मेदारी दी गई है। यह बात भी सही है कि गहलोत नहीं होते तो राजस्थान में पायलट का विद्रोह कामयाब हो चुका होता या भाजपा सरकार पलट चुकी होती। 

गुलाम नबी आजाद कांग्रेस की 50 साल सेवा करने के बाद बाहर निकले हैं। अब गहलोत ही सबसे अनुभवी नेता हैं जो 40 सालों से कांग्रेस में हैं और इंदिरा गांधी से लेकर राजीव गांधी की सरकार में मंत्री रहने के साथ-साथ तीसरी बार राजस्थान के मुख्यमंत्री बने हैं। चालीस सालों में एक भी मौका याद नहीं आता, जब गहलोत ने आला कमान की शान में गुस्ताखी की हो।
इस सबके बदले गहलोत शायद पहली बार आला कमान पर दबाव डाल रहे हैं। 

वह कह रहे हैं कि मैं आपके हिसाब से चलने को तैयार हूं लेकिन मेरी सुनी भी और मानी भी जाए। कहा जा रहा है कि गहलोत बिना मंत्रालय के मुख्यमंत्री बने रहें, 2-2 उप मुख्यमंत्री नियुक्त कर दें और मानिटरिंग करें। ऐसा वह 1998 में कर चुके हैं, जब पहली बार मुख्यमंत्री बने थे। अगर यह संभव नहीं तो कम से कम दिसम्बर तक मुख्यमंत्री बने रहें ताकि गुजरात और हिमाचल का चुनाव निपट जाए। अगर यह भी संभव नहीं तो उनके हिसाब से उनके खेमे के किसी नेता को शपथ दिला दी जाए। जाहिर है कि इस सूची में सचिन का नाम नहीं ही होगा। 

सचिन के लिए दिक्कत यह है कि अगर वह अभी मुख्यमंत्री नहीं बने तो फिर नहीं बन पाएंगे (2023 के चुनाव तक)। अगर बन भी गए तो उनके चयन में अध्यक्ष के नाते गहलोत की भूमिका रहेगी। विधायक दल को वोटिंग के जरिए अपना नेता चुनने को कह दिया गया तो सचिन पायलट का पत्ता अपने आप लोकतांत्रिक अंदाज में कट जाएगा। विधायक भी जानते हैं कि अगली बार टिकट मिलने, नहीं मिलने में कांग्रेस अध्यक्ष अशोक गहलोत की महत्ती भूमिका रहने वाली है। लिहाजा उन्हें नाराज करके नहीं चला जा सकता। कुल मिलाकर फिलहाल तो गहलोत के हाथ में बहुत कुछ है, जिसे वह बंद मुट्ठी में लिए हुए हैं। अब यह खुली तो लाख की होगी या खाक की, कहा नहीं जा सकता। 

भारत जोड़ो यात्रा के दौरान ही गुजरात और हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनावों के नतीजे आएंगे। हो सकता है कि दोनों जगह कांग्रेस हार जाए या दोनों जगह जीत जाए या एक-एक पर मुकाबला छूटे। लेकिन तय है कि तब तक यात्रा उस मकाम को छू चुकी होगी जिससे ये परिणाम प्रभावित नहीं होंगे। राहुल गांधी रोजमर्रा की कांग्रेस की राजनीति से मुक्त हो रहे हैं लेकिन उन्हें कांग्रेस और विपक्ष को एक करने का काम करना पड़ेगा। ममता बनर्जी के साथ खट्टे-मीठे रिश्ते रहे हैं, मिठास बढ़ानी होगी। यहां शरद पवार काम आ सकते हैं। नीतीश के साथ मिलकर चलना होगा। इसके साथ ही भले ही अशोक गहलोत अध्यक्ष बन जाएं, लेकिन कई बार राहुल गांधी को वीटो का इस्तेमाल करना पड़ सकता है। इस भूमिका के लिए भी राहुल को तैयार रहना होगा। 

यह भी तय है कि भले ही गांधी-नेहरू परिवार को कोई सदस्य अध्यक्ष नहीं बनेगा लेकिन भाजपा परिवारवाद का आरोप लगाना छोड़ेगी नहीं। यहां कांग्रेस को अभी से नया विमर्श पेश करने की जरूरत है। इसकी शुरूआत उन्होंने ताजा प्रैस वार्ता से की, जिसमें कहा कि मीडिया भाजपा, लैफ्ट या किसी अन्य दल के अंदर की चुनावी प्रक्रिया पर सवाल नहीं करता, सिर्फ कांग्रेस पर ही करता है। सच्चाई यही है कि जिस तरह से कांग्रेस में अध्यक्ष पद के लिए चुनाव होगा, उससे पार्टी लंबी लकीर खींच रही है। लेकिन इसका चुनावी सियासी फायदा तो पार्टी को ही उठाना है। क्या इसमें राहुल-अशोक की जोड़ी कामयाब हो पाएगी?-विजय विद्रोही
 


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