वित्तीय संकट में फंसे पंजाब के लिए क्या नरेन्द्र मोदी ‘मुसीबत में काम आने वाले मित्र’ सिद्ध होंगे

punjabkesari.in Sunday, Sep 20, 2015 - 01:10 AM (IST)

(बी.के. चम): क्या पंजाब भी उसी तरह का ‘बीमारू’ राज्य बनता जा रहा है जैसा कि नीतीश के मुख्यमंत्री बनने से पूर्व बिहार था? यदि राज्य की बिगड़ रही आर्थिक स्थिति के हिसाब से देखा जाए तो शायद यह बात सही है।

पंजाब की वित्तीय सेहत 80 के दशक से लगातार सुधर रही थी लेकिन 2002-2015 के दौरान यह औंधे मुंह नीचे गिरती आ रही है। बेशक 2002-2007 के बीच शासन करने वाली कै. अमरेन्द्र सिंह नीत कांग्रेस सरकार ने भी इस प्रक्रिया में अपना योगदान दिया है, फिर भी 2007-2015 तक के अकाली-भाजपा शासन दौरान ही अर्थव्यवस्था में सीधी गिरावट आई है जिसके फलस्वरूप राज्य सरकार को अक्सर बैंकों से भारी ऋण लेना पड़ा और यहां तक कि अपने कुछ निकायों की सम्पत्तियां तक बेचनी या गिरवी रखनी पड़ीं। 
 
एक मीडिया रिपोर्ट के अनुसार ग्रामीण और शहरी नवीनीकरण हेतु 2500 करोड़ रुपए ऋण लेने के लिए सरकार को बैंक गारंटियों का प्रावधान करना पड़ा क्योंकि प्रारम्भ में कुछ बैंकों ने राज्य सरकार को ऋण देने के मामले में आशंकाएं व्यक्त की थीं।
 
विडम्बना है कि गत 10 वर्षों दौरान बेशक पंजाब की वित्तीय सेहत लगातार बदतर हुई है, वहीं सत्तारूढ़ अकाली नेताओं और उनके परिवारों की सम्पत्ति में इसी अवधि दौरान मुख्यत: कुछ भारी कमाई वाले कारोबारों पर एकाधिकार जमा लेने के फलस्वरूप बेतहाशा वृद्धि हुई है। इसके विपरीत आवश्यक जिंसों की लगातार बढ़ती कीमतों से परेशान आम आदमी की तकलीफों में वृद्धि हुई है। 
 
पंजाब की चिंताजनक वित्तीय सेहत के लिए मुख्यत: दो बातें जिम्मेदार हैं। पहली है सत्तारूढ़ नेताओं द्वारा चुनावों दौरान मुफ्त के गफ्फे बांटने के लिए किए गए लोकलुभावन वायदे। दूसरी है पंजाब को भारी-भरकम कर्जे की दलदल में से निकालने और इसकी वित्तीय स्थिरता सुनिश्चित करने हेतु सहायता देने के वायदे पूरे करने में मोदी सरकार की विफलता।
 
सत्तारूढ़ राजनीतिज्ञ बजटीय मजबूरियों और अपनी अन्य फिजूल की प्राथमिकताओं के चलते आमतौर पर अपने वायदे पूरे करने से चूक जाते हैं। परन्तु जब भी उनकी चुनावी मजबूरियां उन्हें अपने वायदे पूरे करने की ओर धकेलती हैं तो इससे आम आदमी के कल्याण की योजनाओं की कीमत पर राज्य की वित्तीय सेहत और भी बदतर हो जाती है।
 
इस निराशाजनक राजनीतिक-आर्थिक परिदृश्य को दो उदाहरणों से भली-भांति चित्रित किया जा सकता है। उदाहरण के तौर पर 2007 में सत्ता संभालते समय सुखबीर बादल ने चंडीगढ़ में अपने प्रथम संवाददाता सम्मेलन के दौरान पहला बड़ा वायदा किया था कि बिजली की भारी कमी से जूझ रहा पंजाब 3 वर्षों के अंदर-अंदर अपनी जरूरत से अधिक बिजली पैदा करने लगेगा लेकिन अब 8 वर्ष बीत जाने के बाद तक आम उपभोक्ता 24 घंटे निर्बाध बिजली सप्लाई के लिए तरस रहा है।
 
दूसरा उदाहरण था बादल सरकार द्वारा कृषि क्षेत्र को मुफ्त बिजली देने की नीति को जारी रखने का फैसला लेना, जबकि वर्तमान आकलनों के अनुसार सरकारी खजाने पर इससे हर वर्ष 6 हजार करोड़ रुपए के करीब बोझ पड़ेगा। इससे बड़ी बात यह है कि यह लागत लगातार बढ़ती जा रही है। गैर-अकाली राजनीतिक पाॢटयों, अर्थशास्त्रियों और यहां तक कि भाजपा द्वारा दबाव बनाया गया कि केवल सीमांत किसानों और 5 एकड़ से कम जमीन के मालिक छोटे किसानों को ही मुफ्त बिजली दी जानी चाहिए। इसके बावजूद गठबंधन सरकार पर हावी अकाली नेताओं ने इस संबंध में कोई सकारात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। यदि इस सुझाव को मान लिया होता तो न केवल अकाली नेताओं की बहुत भारी संख्या बल्कि उनका समर्थन करने वाले बड़े जमींदारों को भी मुफ्त बिजली के गफ्फे से वंचित होना पड़ता।
 
ऐसा लगता है कि सुखबीर को ‘तीन’ और ‘दो’ के आंकड़ों से खास ही लगाव है। वह दो या तीन वर्षों के अंदर हर काम की पूर्ति के वायदे करते रहते हैं। पंजाब को 3 साल  के अंदर सरप्लस बिजली पैदा करने वाला राज्य बनाने के 2007 के अपने  असफल वायदे के अलावा उन्होंने 2012 के विधानसभा चुनाव के मौके पर भी लुधियाना में यह प्रतिबद्धता व्यक्त की थी कि इस शहर में 3 वर्ष के अंदर-अंदर मैट्रो रेलें दौडऩा शुरू कर देंगीं लेकिन अभी तक यह परियोजना कागजों से बाहर नहीं निकल सकी और न ही निकट भविष्य में ऐसी कोई उम्मीद दिखाई देती है।
 
बेशक ऐसे अन्य भी कई वायदे हैं जिन्हें सुखबीर बादल निश्चित समय सीमा के अंदर पूरा नहीं कर सके, फिर भी उनकी विश्वसनीयता की अग्निपरीक्षा तो यह होगी कि क्या उनकी सरकार इन आंकड़ों का खुलासा करेगी कि 9 दिसम्बर, 2013 को आयोजित ‘प्रोग्रैसिव पंजाब इन्वैस्टर सम्मिट’ में बड़ी-बड़ी कम्पनियों के साथ 117 सहमति पत्रों पर हस्ताक्षर करने के बाद कितनी परियोजनाएं चालू हुई हैं? इन बड़ी-बड़ी कम्पनियों ने पंजाब में 65,000 करोड़ रुपए निवेश करने की प्रतिबद्धता व्यक्त की थी।
 
यह मुद्दा विश्व बैंक के गत सप्ताह प्रकाशित हुए इस सर्वेक्षण की रोशनी में बहुत अधिक महत्वपूर्ण बन गया है कि ‘‘कारोबार करने की आसानी’’ के मामले में देश के 32 राज्यों व केन्द्र शासित प्रदेशों में पंजाब शर्मनाक 16वें  स्थान पर है।
 
यहां तक कि सत्तारूढ़ नेतृत्व बेशक यह दावे कर रहा है कि हाल ही में अपनी विदेश यात्राओं के दौरान सुखबीर ने विदेशी निवेशकों को बहुत शानदार सपने दिखाए हैं लेकिन इसके बावजूद आयरन एंड स्टील, हौजरी एवं टैक्सटाइल इकाइयों सहित पंजाब के संकटग्रस्त उद्योगों की भारी संख्या ने या तो अपना काम बंद कर दिया है या फिर हिमाचल जैसे अन्य राज्यों की ओर यह कहते हुए पलायन शुरू कर दिया है कि पंजाब सरकार उनकी समस्याओं को दूर करने में विफल रही है। स्थिति इतनी चिंताजनक बन गई है कि कभी देश के लघु उद्योग की राजधानी समझे जाने वाले लुधियाना की कुछ औद्योगिक इकाइयां तो बिहार जैसे राज्य की ओर भी पलायन करने की योजनाएं बना रही हैं।
 
कहावत है कि ‘‘मित्र वह जो मुसीबत में काम आए।’’ विडम्बना यह है कि पंजाब के मामले में ‘‘लंबे समय से मित्र’’ होने का दावा करने वाले गठबंधन सहयोगी अकाली दल और भाजपा जमीनी स्तर पर एक-दूसरे के ‘असली दोस्त’ सिद्ध होने में विफल रहे हैं।
 
मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल पंजाब को इसके वर्तमान वित्तीय संकट में से उबारने और इसे विशेष आर्थिक पैकेज उपलब्ध करवाने का वायदा पूरा करने के संबंध में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को पत्र लिखने के अलावा उनसे मुलाकातें भी कर चुके हैं। फिर भी वित्त मंत्री अरुण जेतली का स्टैंड यह है कि केन्द्र सरकार ने केन्द्रीय राजस्व कर में राज्यों का हिस्सा पहले ही 32 प्रतिशत से बढ़ाकर 42 प्रतिशत कर दिया है।  
 
परन्तु इस वृद्धि के साथ एक संवैधानिक तौर पर अनिवार्य शर्त भी जुड़ी हुई है जिसके अंतर्गत केन्द्र सरकार ने केन्द्रीय वित्त पोषित योजनाओं के अंतर्गत धन आबंटन में भारी कटौतियां की हैं। आज की परिस्थितियों में हम निश्चय से नहीं कह सकते कि मोदी सरकार संकट में फंसे हुए पंजाब को  क्या राहत उपलब्ध करवाएगी? और यदि करवाएगी तो कब? बीते घटनाक्रमों के दृष्टिगत निराशावादी लोग अभी भी इस बारे संशय में हैं कि अपनी प्रचंड वित्तीय समस्याओं पर काबू पाने के लिए पंजाब को केन्द्र से तत्काल और बिना शर्त कोई उल्लेखनीय राहत हासिल होगी।
 
जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद गत वर्ष की विनाशकारी बाढ़ के पीड़ितों के पुनर्वास हेतु मोदी द्वारा 44,000 करोड़ रुपए उपलब्ध करवाने का वायदा पूरा करवाने के लिए बार-बार अनुरोध कर चुके हैं लेकिन अभी तक केन्द्र ने कोई सकारात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की है। बादल और मुफ्ती की मांगों के प्रति मोदी द्वारा अब तक व्यक्त की जा रही उदासीनता से किसी को हैरान नहीं होना चाहिए। सरकारों के मुखिया चुनावों के मद्देनजर मतदाताओं को लुभाने हेतु दिल खोलकर धन उपलब्ध करवाने के बड़े-बड़े वायदे करते हैं। चुनाव का सामना करने जा रहे बिहार के मामले में मोदी ने 1.25 लाख करोड़ रुपए के पैकेज की घोषणा करके यही काम किया है।
 
बादल और मुफ्ती को अब यही इंतजार करना होगा कि क्या मोदी ‘‘ऐसे दोस्त सिद्ध होते हैं जो मुसीबत में काम आएं?’’ और यदि होते हैं तो कब?
 

सबसे ज्यादा पढ़े गए

Recommended News

Related News