निरन्तर सिकुड़ती जा रही है राष्ट्रविरोधी वामपंथी विचारधारा

punjabkesari.in Thursday, Mar 16, 2017 - 10:57 PM (IST)

अभी हाल ही में 5 राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों के परिणाम सामने आए। भाजपा के अभूतपूर्व प्रदर्शन, उत्तर प्रदेश में छद्म-पंथनिरपेक्ष व वामपंथियों की पराजय और मणिपुर में इरोम शर्मिला की शर्मनाक हार से क्या संदेश मिलता है? किसी ने नहीं सोचा था, चाहे वे विरोधी दल के सदस्य हों या फिर समर्थक, कि भाजपा उत्तर प्रदेश में 300 सीटों का आंकड़ा पार कर पाएगी। वर्ष 2012 में भाजपा को 15 प्रतिशत मत और 47 सीटें मिली थीं तो इस बार उसे 39.7 प्रतिशत मत और 325 स्थानों पर विजय प्राप्त हुई। 

उत्तराखंड में भी भाजपा को 46.5 प्रतिशत मत  के साथ प्रचंड बहुमत मिला। यहां उसे 56 सीटों पर विजय प्राप्त हुई है। गोवा और मणिपुर में भी भाजपा का प्रदर्शन उत्कृष्ट रहा। दोनों राज्यों में भाजपा भले ही दूसरे पायदान पर रही किन्तु उसका मत प्रतिशत कांग्रेस से अधिक रहा। गोवा में यहां विपक्षी दलों के अतिरिक्त संघ का एक धड़ा अलग होकर चुनावी मैदान में भाजपा के विरुद्ध खड़ा था, इस स्थिति में भी मनोहर पार्रिकर के नेतृत्व में गोवा में फिर से भाजपा की सरकार बनी है।

मणिपुर में भाजपा ने अतुलनीय प्रदर्शन करते हुए 22 सीटों पर जीत प्राप्त की और वहां पहली बार एन. बीरेन सिंह के नेतृत्व में भाजपा सरकार का गठन हुआ है। पंजाब को छोड़कर कांग्रेस का प्रदर्शन बाकी राज्यों में काफी खराब रहा और उत्तर प्रदेश में तो देश की सबसे पुरानी राष्ट्रीय पार्टी 7 सीटों पर सिमटकर रह गई। क्षत्रपों (सपा-बसपा) को भी जनता ने ठिकाने लगा दिया। 

स्वतंत्र भारत के प्रारम्भिक-काल में वामपंथियों का उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड सहित कुछ क्षेत्र में दबदबा रहा था, जिसे आज जनता ने पूरी तरह नकार दिया है। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में वामपंथियों ने 140 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे, जो अपनी जमानत तक नहीं बचा पाए। मणिपुर की ‘आयरन लेडी’ और 16 वर्षों तक सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम (अफस्पा) के खिलाफ आंदोलन चलाने वाली इरोम चानू शर्मिला, जिनके संघर्ष और व्यक्तित्व का महिमामंडन देश के वामपंथी धड़े ने विश्वभर में किया, उन्हें भी चुनाव में शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा। इरोम को केवल 90 मत प्राप्त हुए। भारत की मूल आत्मा पर लंबे समय तक वामपंथी चिंतन का दबदबा रहा है जिसने हाल के समय में कभी मो.अखलाक की निंदनीय हत्या पर ‘असहिष्णुता’ का ढोल पीटा और राष्ट्र-विरोधी नारों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का नाम देकर सार्वजनिक विमर्श में जगह दी। 

इसी दर्शन ने पहले पाकिस्तान की नींव को मजबूती देकर भारत का रक्तरंजित विभाजन कराया और फिर 1962 के युद्ध में समान बौद्धिक दर्शन की वजह से चीन का साथ दिया। यही कारण है कि आज भी वामपंथी देश को बांटने और उसकी बर्बादी का नारा बुलंद कर रहे हैं। स्वतंत्रता से पूर्व कांग्रेस के चिंतन के प्रतीक राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी रहे थे, जिनका हिन्दू-सनातन मत में अकूत विश्वास था। 30 जनवरी, 1948 को गांधी जी की हत्या के बाद जब कांग्रेस पर पंडित जवाहर लाल नेहरू का एकछत्र राज हुआ, तब वामपंथी दर्शन को कांग्रेस के मूल चिंतन में घुसपैठ करने का अवसर मिला। क्या कारण था कि गांधी जी, सरदार पटेल और सुभाष चंद्र बोस जैसे राष्ट्रवादियों के जीवित रहते हुए कांग्रेस पर कभी वामपंथी शक्तियां हावी नहीं हुईं? 

वाम-दर्शन से ओतप्रोत होकर पं. नेहरू ने भारतीय अर्थव्यवस्था में समाजवाद का मंत्र फूंका, जिसने 4 दशक बाद देश को कंगाल कर दिया। पं. नेहरू के शासनकाल में देश के अकादमिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक या अन्य प्रमुख संस्थाओं के शीर्ष पदों पर जिस तरह वामपंथियों का वर्चस्व स्थापित हुआ, वह उनकी बेटी और देश की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कार्यकाल में भी जारी रहा। आज भी कांग्रेस के बौद्धिक चिंतन पर वामपंथी विचारधारा का गहरा प्रभाव है। 

गांधी जी की हत्या के पश्चात वामपंथियों के दुष्प्रचार से प्रभावित होकर ही पं. नेहरू ने संघ पर प्रतिबंध लगा दिया। 1962 के युद्ध में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ व जनसंघ के कार्यकत्र्ताओं ने जनजागरण अभियान चलाया और सीमा पर सैनिकों के लिए सुविधाएं जुटाने में मदद की। संघ की इसी राष्ट्रनिष्ठा से अभिभूत होकर पं. नेहरू को अपनी गलती का बोध हुआ और वर्ष 1963 की गणतंत्र दिवस परेड में शामिल होने के लिए संघ को स्वयं आमंत्रित किया। 6 वर्ष पश्चात 1969 में कांग्रेस आपसी कलह के कारण दो धड़ों में बंट गई। 

विभाजन के कारण तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के दल का संसद में बहुमत समाप्त हो गया किन्तु वर्ष 1971 में मध्यावधि चुनाव तक उनकी सरकार वामपंथियों की बैसाखी के सहारे चलती रही जिसका परिणाम यह रहा कि 1971-78 तक केन्द्रीय शिक्षा, सामाजिक विकास व संस्कृति मंत्रालय वामपंथी सैयद नुरूल हसन के अधीन हो गया। साम्यवादी शिक्षाविदों ने पाठ्यक्रमों को इस तरह तैयार किया कि उससे राष्ट्रीय गौरव से जुड़ी बातें या तो बाहर कर दी गईं या उन्हें विकृत कर दिया गया। 

1991 में सोवियत संघ के टूटने के बाद भारत सहित विश्व से वामपंथी समाजवाद का तिलिस्म ढह गया। वामपंथियों का सार्वजनिक एकाधिकार खत्म होने लगा। बदलते समय के साथ कांग्रेस जैसी सैकुलरिस्ट व राष्ट्रविरोधी वामपंथी विचारधारा निरन्तर सिकुड़ती जा रही है। पंजाब को छोड़कर 4 राज्यों के नतीजे इसकी तार्किक परिणति है। पंजाब के नतीजों से भी स्पष्ट है कि देश में राष्ट्रविरोधी ताकतों की कोई जगह नहीं है। जिस तरह ‘आप’ को विदेशों में बसे खालिस्तानी समर्थकों का साथ मिला और पूर्व खालिस्तान लिबरेशन फ्रंट के अगुवा के घर अरविन्द केजरीवाल ने उनकी मेहमाननवाजी का आनंद लिया, उससे देशभक्त पंजाबी आशंकित हुए कि कहीं पंजाब एक बार फिर 1980-90 के दशक में पाक-प्रायोजित आतंकवाद का शिकार न हो जाए। 

भाजपा चूंकि पंजाब में अकाली दल की सहयोगी थी और वह अपने बूते सरकार बनाने की स्थिति में नहीं थी, तो सत्तारूढ़ गठबंधन के खिलाफ विरोधी-लहर के बीच पंजाब की जनता ने देश की सुरक्षा की खातिर कै. अमरेन्द्र सिंह पर भरोसा जताते हुए कांग्रेस को प्रचंड बहुमत दिया। 

वर्ष 2004 से ही वामपंथी और कांग्रेस ने नकारात्मक राजनीति की है, जिसके अंतर्गत उन्होंने 2002 में गुजरात दंगे के बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री (वर्तमान समय में प्रधानमंत्री) नरेन्द्र मोदी को निशाने पर लेने के लिए इशरत जहां जैसे आतंकियों का साथ दिया। जे.एन.यू.-रामजस कालेज में देशविरोधी नारे लगाने वालों का समर्थन किया और पी.ओ.के. में ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ की प्रमाणिकता पर प्रश्नचिन्ह खड़ा कर देश की बहादुर सेना के मान और उसकी गरिमा पर कड़ा प्रहार किया। आज यही लोग नरेन्द्र मोदी से वैचारिक, राजनीतिक और व्यक्तिगत खुन्नस के कारण ई.वी.एम. पर सवाल उठाकर जनादेश का मजाक उड़ाने से भी पीछे नहीं हट रहे हैं। 

इन चुनाव नतीजों से कुछ महत्वपूर्ण तथ्य स्पष्ट हुए हैं। पहला, भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रवादी शक्तियों की स्वीकार्यता देश में निरन्तर बढ़ रही है। दूसरा, सोनिया गांधी और राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस के वामपंथी चिंतन को जनता ने अस्वीकार कर दिया है। तीसरा, सपा और बसपा जैसे तथाकथित पंथनिरपेक्षकों द्वारा देश की जनता को अब मूर्ख बनाना आसान नहीं है।     


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