बड़ों के सम्मुख विनम्र होना दर्शाता है शिष्टाचार

punjabkesari.in Sunday, Jan 28, 2018 - 01:08 PM (IST)

यदि स्वर्ण के समान मूल्यवान विद्वता हमारे पास है तो हमारी विनम्रता उसमें सुगंध और चमक का कार्य करेगी। अपने से बड़ों के सम्मुख विनम्र होना हमारा कर्तव्य है समवयस्कों के सम्मुख विनम्र होना शिष्टाचार है, छोटों के प्रति विनम्र होना हमारी सुरक्षा का कवच है। जहां अभिमान देव को दानव बना देता है, ठीक इसके विपरीत मानवता, सहजता, सरलता मानव को देवत्व की ओर ले जाती है अर्थात विनम्रता विवेक ही पहली और अंतिम सीढ़ी है। अत: शिष्टाचार भद्र आचरण का अंतिम और चरम पुष्प है। समाज में सर्वप्रथम अपेक्षा शिष्टाचार अथवा विनम्रता की जा रही है तत्पश्चात विद्या व सद्गुण। शास्त्र कथन है- क्षमाखड्ग: करे यस्य दुर्जन: किं करिष्यति। अर्थात क्षमा रूपी खड्ग जिस कर(हाथ)में है, उसका दुर्जन क्या बिगाड़ सकते हैं। जब किसी से अपेक्षा ही नहीं तो दुख कैसा। संसार से कुछ भी अपेक्षा करने का अर्थ है स्वयं को पराधीन बनाना।

इहैव वैर्जित: सर्गो येषां साम्ये स्थितं मन:।।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिता:।।

जिनका मन साम्य अवस्था में स्थित हो गया है उन्होंने यहां जीवित अवस्था में ही संसार को जीत लिया अर्थात अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों के मिलने पर उनमें सुख-दुख का अनुभव होने पर भी हर्ष-शोक के अनुभव का न होना। जरा जीवन पर विचार कर देखें तो पता चलेगा कि उसमें न जाने कितने उतार-चढ़ाव हुए हैं कितनी बार प्राणी हंसा है, कितनी बार रोया है। संसार के प्रवाह में बहते हुए प्राणी अक्सर चंचल बना रहता है, अब तक कोई ऐसा विश्रामस्थल नहीं मिला जहां थोड़े समय के लिए शांति से स्थिर होकर थकान मिटा सके। थककर जिसका सहारा लेते हैं वह भी हलचल में है, सतत् उसी प्रवाह में बह रहा है।  


सांसारिक थपेड़ों के अंतर्गत इंद्रियां व्याकुल हो जाती हैं, प्रतिकूलता में हाहाकार मच जाता है, बुद्धि कोई निर्णय नहीं कर पाती। ऐसे समय में मानव मन असफलता को प्राप्त होता है। ऐसी स्थिति में संसार को द्रष्टा बन कर देखते हुए कर्तव्य बुद्धि से विनम्रता को अपनाते हुए स्वयं को गुरु, संत, ग्रंथ, प्रभु से संलग्र होते हुए उन्हें सर्वस्व जीवन को सौंपते हुए जीना है, सफलता अवश्य मिलेगी। 


इस सब में हमारा व्यय भी क्या होता है, कुछ नहीं। यह तो ऐसी पूंजी है जो जीवन भर  लाभ ही देती है-दिन-दिन बढ़त सवायो। ईश्वर पापों को क्षमा कर सकते हैं, पर सब में हमारा व्यय भी क्या होता है, कुछ नहीं। यह तो ऐसी पूंजी है जो जीवन भर लाभ ही देती है-दिन-दिन बढ़त सवायो। ईश्वर पापों को क्षमा कर सकते हैं, पर स्वर्ग और धरती पर कहीं भी उद्दंडता के लिए क्षमा नहीं है। तात्पर्य यह है कि हमें इहलोक और परलोक में सद्गति प्राप्त करने के लिए विनम्र, शिष्ट तो होना ही होगा क्योंकि यहां न तो भय है, न त्रास है और न ही अहंकार है।

शिष्टाचार मानव का निर्माण करता है। विनम्रता और सहनशीलता अथवा तितिक्षा एक ही गुण के दो नाम हैं जो विनम्र होगा, यह स्वभावत:तितिक्षु भी होगा। मन, वाणी और शरीर तीनों की एकता होने पर संकल्पसिद्धि होता है, मन में जिसका संकल्प हो, वही बात वाणी से कही जाए और वही कर्म शरीर से किया जाए तो वह संकल्प किसी प्रकार असफल नहीं हो सकता। प्रतिज्ञा और विचार द्वारा तो मानव स्वयं के क्रोध पर भी नियंत्रण कर सकता है चित्त में कोई चिंतन न हो, इसी का नाम मौन है। इस प्रकार मानव महान बन सकता है, जैसा कि प्रभु कहते हैं:

सम: शत्रौ च मित्रे तथा मानापमानयो:।
शीतोष्ण सुखदु:ख सम: सङ्गविवॢजत:।।
तुल्य निंदा स्तुतिर्मौनी संतुष्टो येन केनचित्। 
अनिकेत: स्थित मतिर्भक्ति मान्ये प्रियो नर:।।

जो मानव शत्रु-मित्र में, मान-अपमान में सम है तथा सर्दी-गर्मी और सुख-दु:खादि द्वंद्वों में सम है और सब संसार में आसक्ति से रहित है तथा जो निंदा-स्तुति को समान समझने वाला और मननशील है अर्थात ईश्वर के स्वरूप का निरंतर मनन करने वाला है एवं जिस किसी प्रकार से शरीर का निर्वाह होने में सदा ही संतुष्ट है और रहने के स्थान में ममता से रहित है, वह स्थिर बुद्धि वाला पुरुष मुझे प्रिय है।


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