भाजपा तो हारी है परन्तु कांग्रेस अभी ‘जीती’ नहीं

punjabkesari.in Wednesday, Dec 12, 2018 - 03:31 AM (IST)

अहंकार और आलस्य दोनों हारे। जनता ने सत्ताधारियों को हराया और विपक्ष को डराया। कांग्रेस जीती नहीं है। चुनाव की अश्लील चकाचौंध ने गांव-देहात में अपना खुरदरा चेहरा दिखाया। लोकतंत्र में तंत्र के शिकार लोक ने विरोध तो जताया लेकिन विकल्प नहीं पाया। 

आखिर 2019 के लोकसभा चुनाव का तथाकथित सैमीफाइनल पूरा हो ही गया। उससे यह तो तय नहीं हुआ कि कौन जीतेगा लेकिन चुनाव के मुद्दे तय हो गए, उसके कुछ नियम-कायदे बन गए और दोनों प्रतिद्वंद्वियों को सबक मिल गया। जो चुनाव कल तक भाजपा की जेब में दिख रहा था, वह अचानक एक खुला खेल बन गया। लोकतंत्र में तंत्र पर लोक की आवाज दर्ज करने का रास्ता एक बार फिर खुल गया। यह तय हो गया कि 2019 का चुनाव अब ङ्क्षहदू-मुसलमान के मुद्दे पर नहीं, किसान और नौजवान के मुद्दे पर होगा। मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ तीनों में भाजपा के सिंहासन को हिलाने का काम ग्रामीण वोटर ने किया है। जनता के लिए इस बार सबसे बड़ा मुद्दा बेरोजगारी और खेती किसानी के संकट का था। 

मंदिर का मुद्दा नहीं चला
परिणामों और सर्वेक्षणों दोनों से स्पष्ट है कि भाजपा के खिलाफ गांव देहात और गांव में भी किसानों के बीच गुस्सा अपेक्षाकृत ज्यादा था। पहली बार मतदान कर रहे युवाओं और बेरोजगारों ने जमकर भाजपा के खिलाफ वोट दिया। उधर योगी आदित्यनाथ के तमाम प्रचार और मीडिया के जरिए सारा माहौल बनाने के बावजूद मंदिर का मुद्दा नहीं चला। ‘मंदिर वहीं बनाएंगे तारीख नहीं बताएंगे, चुनाव से पहले आएंगे’ का खेल जनता कुछ समझने लगी है। अब आने वाले महीनों में सरकार को किसान और नौजवान के लिए कुछ योजना लागू करनी होगी, विपक्ष को भी उनके लिए कुछ कार्यक्रम देना होगा। 

इन परिणामों से यह भी साबित हो गया कि भाजपा सिर्फ पैसे और मीडिया के सहारे लोकसभा चुनाव नहीं जीत सकती। बेशक, चुनाव में पैसे की भूमिका बढ़ती जा रही है। बेशक मीडिया के सहयोग बिना राजनीति करना संभव ही नहीं रहा है। इस चुनाव में भाजपा को इन दोनों का खूब सहारा था। पार्टी ने इन चुनावों को जीतने के लिए अकूत पैसा लगाया था। टी.वी. और अखबार का एक बड़ा हिस्सा भाजपा की सेवा में बिछा हुआ था। फिर भी इन तीनों राज्यों में भाजपा का हारना यह साबित करता है कि हमारे लोकतंत्र में लोक की भूमिका अब भी शून्य नहीं हुई है। अगर चुनाव जीतना है तो आज भी जनता के सुख-दुख से अपना रिश्ता बनाना जरूरी है। इन चुनावी परिणामों से व्यक्ति पूजा की राजनीति पर भी कुछ अंकुश लगेगा। ङ्क्षहदी पट्टी के तीनों राज्यों में कांग्रेस को सबसे बड़ी सफलता वहां मिली जहां उसके पास एक भी कद्दावर नेता नहीं था। उधर भाजपा के लिए नरेन्द्र मोदी का जादू इस बार नहीं चला। केवल इन चुनाव परिणामों से यह निष्कर्ष तो नहीं निकाला जा सकता कि मोदी की लोकप्रियता खत्म हो गई है। 

मोदी का तिलिस्म टूटा
तमाम सर्वेक्षण बताते हैं कि राहुल गांधी और खुद अपनी पार्टी की तुलना में प्रधानमंत्री अब भी ज्यादा लोकप्रिय हैं लेकिन इतना जरूर है कि मोदी का तिलिस्म अब टूट चुका है। अब उन्हें अपनी सरकार का हिसाब देना होगा, हर सवाल का जवाब देना होगा। अगले कुछ महीने कई मुश्किल सवाल प्रधानमंत्री के सामने मुंहबाए खड़े हैं जैसे नोटबंदी, बेरोजगारी, जी.एस.टी. और किसान की बदहाली से लेकर राफेल तक। 

सत्ता के अहंकार को तोडऩे के साथ-साथ इन चुनावों ने कांग्रेस समेत पूरे विपक्ष के आलस को तोड़ा है, उसे वक्त रहते चेताया है। जो कांग्रेस राजस्थान में बिल्ली के भागो छींका टूटने की फिराक में लेटी हुई थी, उसे जनता ने नाको चने चबवा दिए। महारानी की अहंकारी, भ्रष्ट और निकम्मी सरकार को भी बड़े बहुमत से न हरा पाना कांग्रेस की नाकामी का सबूत है। राजस्थान में पहले 1998 में विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को बहुमत देने के बाद वोटर 1999 के लोकसभा चुनाव में भाजपा की तरफ खिसक चुका है इसलिए कांग्रेस के लिए खतरे की घंटी है। मध्य प्रदेश में भी पिछले 5 साल विपक्ष की भूमिका न निभाने वाली कांग्रेस को छत्तीसगढ़ में अपनी पार्टी की शानदार सफलता से सबक मिलना चाहिए। अगर जनता का विश्वास जीतना है तो उनके बीच रहना होगा, उनके मुद्दों को उठाना होगा, संघर्ष करना होगा। कहने को कांग्रेस ङ्क्षहदी पट्टी के तीनों राज्यों में जीत गई, लेकिन सच यह है कि राजस्थान और मध्य प्रदेश में नाम के वास्ते ही यह जीत है।

गठबंधन का मिथक भी टूटा
इस चुनाव परिणाम ने गठबंधन के मिथक को भी तोड़ा है। कागज पर देखें तो तेलंगाना में कांग्रेस का गठबंधन हर तरह से टी.आर.एस. पर भारी था लेकिन उस अवसरवादी गठबंधन में न तो विश्वसनीयता थी, न कोई चेहरा और न ही कोई संकल्प। उधर हर कोई मान कर चल रहा था कि अजीत जोगी और मायावती का गठबंधन कांग्रेस को टंगड़ी लगा देगा लेकिन छत्तीसगढ़ की जनता ने अजीत जोगी की मौकापरस्त, तिकड़मी राजनीति को खारिज कर दिया। मतलब यह कि 2019 के चुनाव में सिर्फ महागठबंधन बना लेने से काम नहीं चलेगा। गठबंधन उपयोगी होते हैं। उससे उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में बहुत फर्क पड़ सकता है लेकिन चुनाव सिर्फ जोड़-तोड़ से नहीं जीते जाते। चुनाव में जरूरी है जनता के सामने एक सपना रखना, एक आस जगाना। सच यह है कि कांग्रेस समेत पूरे विपक्ष के पास आज पूरे देश के लिए न तो कोई सपना है, न ही कोई योजना, न कोई चेहरा, न कोई चाल। सिर्फ चुनावी समीकरण की राजनीति आस नहीं जगाती। 

बस इतना जरूर है कि इन परिणामों ने आगामी लोकसभा चुनाव को ज्यादा संतुलित कर दिया है। इस चुनाव के आधार पर सारे देश के बारे में निष्कर्ष निकालना तो गलत होगा लेकिन इतना तो तय है कि हिंदी पट्टी के तीनों राज्यों की 65 सीटों में भाजपा को अपनी जीती हुई 62 सीटों में से कम से कम आधी से हाथ गंवाना पड़ेगा। इतना तो तय है कि अगर चुनाव किसान और जवान के मुद्दे पर होंगे तो ङ्क्षहदी पट्टी में कमोबेश सभी राज्यों में भाजपा को नुक्सान होगा। इतना तो तय है कि मुम्बई के थैलीशाह अब सारा पैसा भाजपा को देना छोड़कर दूसरी पाॢटयों को भी दो-चार आने देने लगेंगे। इतना तो तय है कि सत्ता की गोदी में बैठे मीडिया के सुर कल से बदल जाएंगे। लोकतंत्र के लिए यह भी कोई छोटी बात नहीं है। अभी 2019 के मैच का फैसला नहीं हुआ है। सच यह है कि भाजपा हारी है, लेकिन अभी कांग्रेस जीती नहीं है। जनता तो मुंह खोलकर बोल रही है लेकिन पाॢटयां कान खोलकर सुनने को तैयार नहीं हैं।-योगेन्द्र यादव
 


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Pardeep

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