कब होगा वर्तमान रावण रूपी बुराइयों का अंत

punjabkesari.in Friday, Oct 19, 2018 - 04:56 AM (IST)

आज विजयदशमी है, सभी पाठकों को इसकी हार्दिक शुभकामनाएं। दशहरे को अक्सर बुराई पर अच्छाई की विजय के रूप में मनाते हैं, परंतु क्या सच में समाज के भीतर असत्य पराजित हो गया है? मैं मानता हूं कि अच्छाई और बुराई के बीच संघर्ष सतयुग से लेकर कलियुग तक सतत् चल रहा है। आज अच्छाई की तुलना में बुराई का पलड़ा भारी है। वास्तव में, दशहरे का पर्व एक विजय उत्सव न होकर एक संघर्ष का प्रतीक है, जिसमें समाज और व्यक्ति के भीतर बसी रावण रूपी बुराइयों का दहन प्रतिवर्ष या प्रतिदिन ही नहीं, प्रत्येक क्षण करने का प्रण लेना है। पिछले कुछ दिनों का घटनाक्रम इसका मूर्तरूप है। 

‘मी टू’ आंदोलन के गर्भ से निकला राज्यसभा सांसद और पूर्व सम्पादक एम.जे. अकबर से संबंधित यौन-उत्पीडऩ का मामला सार्वजनिक विमर्श में है। वह केन्द्रीय राज्यमंत्री पद से इस्तीफा दे चुके हैं। पत्रकारिता के समय उन पर कई महिला पत्रकारों ने यौन-उत्पीडऩ और उन्हें प्रताडि़त करने का आरोप लगाया है। अब अकबर दोषी हैं या नहीं, इसका निर्णय शायद ही न्यायालय कर पाए, किंतु समाज का जो वर्ग, विशेषकर स्त्री-अधिकारवादी आदि संगठन, अकबर के त्यागपत्र को लेकर भारी दबाव बना रहे थे, वे केरल की एक नन से 13 बार बलात्कार करने के आरोपी बिशप फ्रैंको मुलक्कल पर चुप क्यों हैं? 

बात केवल एम.जे. अकबर तक ही सीमित नहीं है। बलात्कार आरोपी और बिशप मुलक्कल की तुलना में यौन-उत्पीडऩ मामले में दोषी आसाराम बापू की स्थिति क्या है? नाबालिगा से यौन शोषण के मामले में 31 अगस्त 2013 को गिरफ्तारी से लेकर आसाराम 25 अप्रैल, 2018 को न्यायालय द्वारा दोषी घोषित किए जाने तक जेल में बंद रहे। उनकी हर जमानत संबंधी याचिकाओं को न्यायालय द्वारा खारिज किया गया। वहीं बिशप फ्रैंको पर 44 वर्षीय नन की शिकायत पर जून 2018 में केरल पुलिस ने दुष्कर्म का मामला दर्ज किया, जिसके 3 महीने बाद ननों के विरोध-प्रदर्शन के पश्चात 21 सितम्बर को आरोपी बिशप की गिरफ्तारी हुई और 15 अक्तूबर को केरल उच्च न्यायालय से उन्हें सशर्त जमानत मिल गई। इसके 2 दिन बाद जब बिशप मुलक्कल जालंधर पहुंचे, तो चर्च और समर्थकों ने उनका फूल बरसाकर जोरदार स्वागत किया। 

मेरी सहानुभूति न ही दोषी आसाराम से है और न ही आरोपी बिशप फ्रैंको के साथ। जब बलात्कार, यौन उत्पीडऩ या फिर महिलाओं से संबंधित कोई भी अपराध, सभी सामाजिक कलंक हैं और उसके दोषी को कड़ी सजा देने का प्रावधान भारतीय दंड संहिता में है, तब न्यायिक व्यवस्था, मीडिया और गैर-सरकारी संगठनों के एक भाग में आसाराम और फ्रैंको से अलग-अलग व्यवहार क्यों? ‘मी टू’ आंदोलन के अंतर्गत देश में सामने आ रहे यौन-उत्पीडऩ के मामलों की सच्चाई क्या है, यह शायद ही भविष्य में निर्धारित होगा, किंतु इसी अभियान की कोख से जन्मे लेखक-स्तम्भकार चेतन भगत और इरा त्रिवेदी के मामले ने उस एक कड़वी सच्चाई को रेखांकित किया है, जिस पर निष्पक्ष और ईमानदार चर्चा करने से आज तक बचा जा रहा है। 

युवा लेखक, स्तम्भकार और योग आचार्य- इरा त्रिवेदी ने 13 अक्तूबर को एक अंग्रेजी पत्रिका में अपने आलेख में आरोप लगाया है कि लगभग एक दशक पहले जब वह 22 वर्ष की थी तब विख्यात लेखक और उपन्यासकार चेतन भगत ने दिल्ली स्थित इंडिया इंटरनैशनल सैंटर (आई.आई.सी.) के एक कमरे में बुलाकर मेरे होंठों पर चुंबन लेने की कोशिश की थी। इसी आरोप पर चेतन ने 15 अक्तूबर को इरा के 5 वर्ष पुराने एक ई-मेल का स्क्रीनशॉट ट्वीट किया है, जिसके ङ्क्षहदी अनुवाद के अनुसार, ‘आप यहां कब आ रहे हैं? मैं प्रतीक्षा कर रही हूं। मैं अब आई.आई.सी. सदस्य बनने का इंतजार नहीं कर सकती हूं। हाहाहाहा। पता नहीं जब आप होते हैं, तभी मैं क्यों जाती हूं, शायद मैं अपने बुढ़ापे में अकेली जाऊं।’ इसी ई-मेल में इरा अंत में लिखती हैं, ‘मिस यू, किस यू।’ 

यदि इरा को एक दशक पहले चेतन भगत द्वारा किया गया व्यवहार इतना ही घृणास्पद लगा था तो उन्होंने किस कारण इतने वर्षों तक चेतन के साथ सार्वजनिक जीवन में सम्पर्क बनाकर रखा? क्यों 25 अक्तूबर, 2013 को आई.आई.सी. की सदस्यता पाने संबंधी ई-मेल किया? क्या यह सत्य नहीं कि जिस घटना का उल्लेख इरा कर रही हैं, उसके लगभग 5-6 वर्ष बाद 2015-16 में एक कार्यक्रम के दौरान उनकी पुस्तक का विमोचन चेतन भगत ने ही किया था? आखिर कोई भी स्वाभिमानी और आत्मसम्मान से परिपूर्ण महिला किसी भी ऐसे पुरुष को अपने व्यक्तिगत कार्यक्रम में आमंत्रित क्यों करेगी जिसने कभी मर्यादा लांघकर उसका यौन-उत्पीडऩ करने का प्रयास किया हो? 

चेतन द्वारा उनका ई-मेल सार्वजनिक करने पर इरा कहती हैं- ई-मेल के आखिर में लिखे शब्द ‘मिस यू, किस यू’ पॉप-संस्कृति वाले मैत्रीपूर्ण अभिवादन का हिस्सा हैं। निर्विवाद रूप से किसी भी सभ्य समाज में महिलाओं का सम्मान आदर्श समाज की कल्पना का पहला सोपान है, किंतु एक सत्य यह भी है कि आज पाश्चात्य वातावरण से जकड़े समाज में महिलाओं का एक वर्ग अति-महत्वाकांक्षी भी है, जो अपने निर्धारित लक्ष्य की प्राप्ति हेतु किसी भी सीमा तक जाने को तत्पर रहती हैं। 

आरोपों से भरे अपने आलेख में इरा लिखती हैं, ‘एक दशक पहले मैं चेतन भगत से जयपुर साहित्य समारोह में मिली थी। वह उस ‘तीन देवी’ विषय पर हो रही बहस का संचालन कर रहे थे, जिसमें मैं भी शामिल थी। चेतन साहित्यिक दुनिया के सितारा बन चुके थे। उस दौरान उन्होंने पूछा था कि यदि कोई पुरुष आपकी पुस्तक विमोचन के समय टकरा जाए, तो आप क्या करेंगी? तब मैंने जवाब दिया, ‘यदि वह मेरी 100 पुस्तकें  खरीदता है तो मैं उसे किस (चुंबन) करूंगी और यदि वह मेरी सभी पुस्तकों को खरीद लेता है, तो मैं उससे शादी कर लूंगी।’ 

मैं व्यक्तिगत रूप से न ही चेतन भगत से परिचित हूं और न ही उनसे मेरी कोई विशेष संवेदना है। इरा द्वारा लगाए गए आरोपों के अनुसार, उस समय चेतन भगत का जो आचरण रहा था, वह किसी भी सभ्य समाज में अस्वीकार्य है। क्या यह दोहरा मापदंड नहीं कि जिस पॉप-संस्कृति को आधार बनाकर इरा अपनी विशेष ‘स्वतंत्रता’ को न्यायोचित ठहरा रही हैं, संभवत: उसी संस्कृति से जनित ‘स्वतंत्रता’ के अनुरूप इरा के प्रति चेतन भगत का दशक पुराना आचरण रहा हो? क्या पॉप-संस्कृति की सीमाएं पुरुष और महिलाओं के लिए अलग-अलग होती हैं? इस संस्कृति में, जो इरा को स्वीकार्य है, वह चेतन भगत के लिए अपराध कैसे हो सकता है? 

इरा-चेतन मामले का अंत कहां होगा,यह तो आने वाला समय ही बताएगा, किंतु इस प्रकार के मामले ने उन ईमानदार महिलाओं का पक्ष अवश्य कमजोर करने का काम किया है, जो किसी बहुराष्ट्रीय कम्पनी, निजी कार्यालय, मॉल, सरकारी दफ्तर या फिर किसी भी निजी आवास में प्रतिदिन कामुक और चरित्रहीन पुरुषों का सामना और उसका प्रतिकार करती हैं। महाकाव्य रामायण और महाभारत के प्रसंगों के अनुसार, मायावी राक्षस-राक्षसी कई रूप धारण करने में समर्थ थे-जैसे सीता हरण के समय रावण साधु के भेष में आया था और राम-लक्ष्मण के समक्ष शूर्पनखा सुंदर स्त्री बनकर विवाह का प्रस्ताव लेकर आई थी। उसी तरह आज भी कई बुराइयां और असत्य विभिन्न रूपों के साथ हमारे समाज में विद्यमान हैं, जिनमें मजहबी कट्टरवाद और मतांतरण भी शामिल हैं, जो अक्सर आसानी से पहचान में नहीं आते हैं। 

दशहरे के पावन पर्व पर हमें अपने भीतर और बाहरी बुराइयों से संघर्ष का संकल्प दोहराना चाहिए। यदि सतयुग में रावण के दस सिर थे, तो कलियुग में बुराई के प्रतीक रूपी दस सिर हैं, जिनमें भ्रष्टाचार आज के रावण का मुख्य सिर है। इसके अतिरिक्त झूठ, लालच, घृणा, कट्टरता, आतंकवाद, नक्सलवाद, विभाजनकारी राजनीति, बहुलतावाद विरोधी मानसिकता और महिलाओं का अपमान- रावण के अन्य नौ सिरों का प्रतिनिधित्व करते हैं। अंतत: अधर्म पर धर्म की विजय की आशा के साथ सभी पाठकों को विजयदशमी की पुन:असीम शुभकामनाएं।-बलबीर पुंज


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Pardeep

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